विद्रूप साक्षात्कारों की विश्वसनीय प्रस्तुति
समीक्षा: दूसरी किश्त
किशन लाल के उपन्यास ‘चींटियों की वापसी’ की इस पूरी कथा में दलित जीवन के अनेक झंझावातों व अभिशप्त जीवन से जूझते परिवार में बेटा सुनील और उसका साथी पत्रकार संजय है. सुनील अपने रोजगार के साक्षात्कारों में कई तरह के झांसे खा रहा है. संजय कहता है कि “पत्रकार होने के बाद भी खुलकर वह अपने विचारों को ब्राम्हण-बनिया निर्मित प्रेस और उसकी पत्रकारिता में स्थान नहीं दे पा रहा है.” भतपहरी गुरूजी संजय से कहते हैं कि “एक सच यह भी है कि इस जातिवादी देश में अनुभूति और संवेदनाएं जाति, धर्म और उसकी समाजिक आर्थिक हैसियत के आधार पर जागती-मरती हैं.” (पृ. ७७). गुरूजी को सख्त एतराज है कि ”सरकार ने महज अपने चुनावी फायदे के लिए बरसों से चले आ रहे पारंपरिक राजिम मेले को ‘कुम्भ’ का दर्जा दे दिया जो शास्त्र सम्मत भी नहीं है. राजिम मेले से बड़ा गिरौदपुरी का गुरुदर्शन मेला है. दस दिन के राजिम मेले में दस लाख लोग आते होंगे तो तीन दिन के गिरौदपुरी मेले में इससे दो-गुना लोग आ जाते होंगे. जबकि राजिम कुम्भ के लिए करोड़ों की राशि दी जाती है और गिरौदपुरी धाम के लिए सिर्फ आठ-दस लाख! यह तो सरासर भेदभाव है (पृ.99)” सरकार जिन्हें मुफ्त तीर्थयात्रा पर ले जा रही है उसमें भी जातिवाद और भेदभाव है. (पृ. १३४).”
बाबा घासीदास की पत्नी सफुरा माता के त्याग पर आज तक कोई कवि कलम उठाकर उनके त्याग और ममत्व की गाथा का महिमा मंडन नहीं कर सका, समाज को उनके बलिदान की कथा को बता नहीं सका. जबकि युवा घासीदास अपनी पत्नी और पांच पुत्र-पुत्रियों को छोड़कर तप के लिए चले गए थे और उनके बेटों की हत्या हो गई थी. (पृ.१४३)” धमतरी के पास कंडेल सत्याग्रह में सहयोग करने वाले एक दलित सेनानी बरातू राम धृतलहरे को लोग कितना जानते और मानते हैं? सुनील का अनुभव है कि “बस-ट्रेन यात्रा में जातिगत अवहेलना की पीड़ा है. प्रेम करने वाली लड़कियां जात जानते ही छटक जाती हैं. अपने वादों से पलट जाती हैं.” ऐसी अनेक अप्रिय स्थितियों को हर हमेशा झेलते हुए सुनील और संजय दोनों कुंठाओं से भरकर शराबी हो जाते हैं. भतपहरी गुरूजी ने समतावाद लाने की कोशिश में पहले ही अपने माता पिता की हत्या हो जाने को देखा था. भतपहरी की बेटी मधुलिका छत्तीसगढ़ी फिल्मों की चकाचौंध में खो जाती है और उनकी अच्छी भली, मर्यादित जीवन जीने वाली बड़ी बेटी अम्बा असामाजिक सवर्णों द्वारा सामूहिक बलात्कार व हत्या की शिकार हो जाती है. कथा के इस ‘ट्रेजिक एन्ड’ में अपने गाँव छोड़कर शहर आ जाने और शहर के छलावे में मर कूट जाने से गोहार पारकर रोता हुआ परिवार है. उनके भग्न दलित जीवन के सामने सवर्णों के जातिवाद निर्मित अभेद्य किले हैं.
उपन्यासकार ने इस कथा को यथार्थ और फंतासी के अद्भुत मेल से बुना है. इसकी भूमिका लिखते हुए उपन्यासकार तेजिन्दर कहते हैं- “किशन लाल का यह उपन्यास अपने समय की गाथा को न केवल यथार्थ रूप में पकड़ सका है बल्कि उससे भी आगे चींटियों की फंतासी का सहारा लेते हुए अपने समाज के व्यापक फलक पर छा जाता है. मनुष्य का शोषण चाहे वह धार्मिक परम्पराओं के आधार पर हो या राजनीतिक समीकरणों की वर्तमान क्रूर स्थितियों पर हो, वे उन पर गहरी चोट करने से पीछे नहीं हटते… वे मनुष्यों के छोटे-छोटे जाति-समूहों में बनते समाज की नब्ज को पकड़ते हैं और इस बनते हुए समाज की अंतर-कथा को विस्तार देते हैं. उपन्यास की एक खास बात यह भी है कि इसके अधिकांश पात्र जो सदियों से दबे-कुचले समाज के प्रतिनिधि हैं, एक तरह के साहस के साथ अपनी बात कहते हैं और अपने अपमान पर त्वरित प्रतिक्रिया देते हैं. वे दबे-कुचले जरुर हैं लेकिन उनका स्वभाव अब और सहन करने को तैयार नहीं दिखता. यही इस उपन्यास की प्रबल सकारात्मकता है.”
संतदास भतपहरी गुरूजी की बेटियों के समानांतर इनमें चींटियों की कथाएँ भी चलती हैं. अपने समुदाय की मुखिया चींटी ने गुरूजी के नाम के अनुकूल सर्टिफिकेट भी दे दिया है बड़ी चींटी को बताते हुए कि “गुरूजी के घर में तुम लोगों को मांस मछली खाने को नहीं मिलेगा. गुरूजी पक्के सतनामी हैं. लहसुन-प्याज तक को हाथ नहीं लगाते.” (पृ. २२). इनमें एक परिवार है जिसके सदस्य हैं- बड़ी चींटी, मझली चींटी और छोटी चींटी. जिस मुहल्ले में वे आई हैं वहां जो चींटियों का एक और समुदाय है उसमें एक मुखिया चींटी है तथा कुछ और नामधारी पात्र हैं. इनमें छोटी चींटी की आकांक्षाएं तो गुरूजी की बेटी मधुलिका के समान उभरती हैं. वह युवकोचित्त उत्साह से भरी रहती है. इन चींटियों के माध्यम से कथा के अनेक सुरागों की तफ्तीश और पड़ताल की गई है. एक छोटी चींटी का हवा चलने से करन के पत्ते पर उड़कर और रस्तोगी बैंक मेनेजर के घर में उसकी कामवाली बाई दुखत के साथ हो रही ज्यादतियों को देख लेने का चित्रण है. ये चींटियाँ एक तरह से इस कथा की ‘नैरटर’ हैं जो दलित जीवन के दुखों और उन पर हो रहे अत्याचारों का वृत्तान्त कहती हैं. इसमें कथाकार का ‘हाइपोथीसिस’ बोलता है जिसमें चींटी जैसे सूक्ष्म जंतु के सूक्ष्म निरीक्षणों और उनके मनोविज्ञान का ब्यौरा पाठक के सामने आता है. इन चींटियों के स्त्रियोचित भाव और व्यवहार में जो चेतना जागती है और वे अपने आसपास के देस दुनिया की जैसी खबर लेती हैं उनमें नारी विमर्श की प्रेरणा है. इस बहाने लेखक ने एक तरह के ‘फेमिनिज्म’ को स्त्रियों में लाने पिरोने की बात कही है. एक निम्न-मध्यम और गरीब समाज की स्त्रियों में ऐसे स्त्री-विमर्शों का आना जरुरी है जो उनके रोजमर्रा के कामकाज को न केवल सुघड़ सरल बना सके बल्कि अपने आसपास घट रहे घटनाक्रम के प्रति उन्हें चैतन्य और जागरूक रख सके. नारीवाद का आशय तो यही है कि ‘स्त्रियों के अधिकार और अवसर भी पुरुषों के बराबर हों.’
कथा के अंत में लेखक चींटियों की सामूहिकता पर यह टिपण्णी करते हैं कि “चींटियाँ साम्यवाद पर विश्वास रखती थीं और सामूहिक जीवन जीती थीं. सब अनाज पर सबका बराबर का अधिकार था. उन्होंने जितना अनाज इकठ्ठा किया था, वह सबके लिए था. अनाज के दानों को अपने बिल में ले जाने के लिए सामूहिक रुप से जुट जाती थीं. सहयोग की भावना उनमें इतनी अधिक थी कि सामने वाली को पीछे करके पीछे वाली मदद के लिए आगे बढ़ जाती थी. इस मायने में उनका जीवन मनुष्यों के जीवन से लाख गुना बेहतर था. (पृष्ठ-१६१).
दलित, पतित, वंचित जीवन की ऐसी कितनी ही लोमहर्षक कथाएँ हैं जो सदियों से हमारे आसपास घटती रही हैं. जैसे देश और समाज के विकास का रूप बदलता है वैसे ही समाज में हिंसा पीड़ा और दमन के रूप भी बदलते चलते हैं. अपढ़ और अभावग्रस्त समाज के जनमानस की पीड़ा अलग थी पर आज पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा, सुविधाभोगी और मॉंल-संस्कृति से लकदक समाज में यह द्वंद अलग दिखाई देता है इस पनप रही अपसंस्कृति से समाज का कोई भी वर्ग अछूता नहीं रहा है. क्योंकि दमन का रूप बदला हुआ है. धर्म और जातिगत भेदभाव मिटाने के लिए लोकलुभावन घोषणाएं तो सरकार कर देती है, लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता है.
इन स्थितियों में लेखक की भूमिका क्या होती है! क्योंकि साहित्य इस समाज में उस तरह की नियामक शक्ति नहीं है जिस तरह से धर्म और राजनीति नियामक शक्तियां रही हैं. लेखक का मोर्चा अपने किसम से होगा जिसका प्रभाव समाज में भले ही विलम्ब से दिखे पर उसके सकारात्मक परिणाम दूरगामी होते हैं जो पाठकों को संस्कारित करते हैं. तब लेखक ने अपने हिस्से का जो रोल अदा किया है हम उसमें उसकी सार्थक भागीदारी को देखेंगे. समकालीन उन्नत परिदृश्य को देखने की लेखक की उसकी दृष्टि क्या है? उसने कितनी जाँच पड़ताल की और वह किस राय पर पहुँचता है. समाधान उसके बस की बात भले न हो पर उसका लेखकीय साहस नियामकों और सुधारवादियों के सामने हल्लाबोल कर सकता है.. समाधान के लिए दरवाजे वह खोल सकता है.
यह दलित आवाज और चेतना का उपन्यास है, जिसमें जातिवाद के दंश को प्रमाणिकता के साथ उसके नग्न रूप में चित्रित किया गया है. लेखक सामाजिक सरंचना की न केवल तह में जाकर समाज की, न केवल पड़ताल करता है बल्कि उसमें छुपी हुई विषमताओं को उजागर कर उसके प्रतिकार और परिष्कार के लिए भी जमीन तैयार करता है यह रेखांकित करते हुए “विद्यार्थियों के बीच कॉपी-किताब का आदान-प्रदान नहीं होता है. कॉपी मांगने पर कहते हैं कि ‘’पापा मारेंगे’. सामाजिक बहिष्कार के मामले में कानून हो.(पृ.१६५).” उसका पत्रकार संजय कहता है कि ‘जातिवाद सब जगह है पत्रकारिता में दस दलित लोग भी नहीं हैं.” रिक्शावाला पुनऊराम की दहाड़ सुनाई देती है “… मेरे अजीत जोगी के बारे में किसी ने कुछ भी कहा तो मैं उसकी…” वह छाती पीटते हुए कह रहा था कि “वह मेरा भतीजा है, मेरा बाप है, मेरा भगवान है.(पृ. २६)” मुखिया चींटी कहती है कि “अजीत जोगी यानि आंबेडकर के बाद जोगी. (पृ. २९)” राज्योत्सव रायपुरोत्सव में फ़िल्मी तारिका करीना कपूर ने पांच मिनट के ठुमके लगा दिए तो उसका पेमेंट करोड़ों में है. स्थानीय कलाकारों को, जिन्होंने कई दिनों के अभ्यास के बाद इस मंच पर झूम झूम कर अपनी प्रस्तुति दी थी, उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक दिया गया था.(पृ.१३)”. पारिश्रमिक भुगतान और सुविधाओं में ऐसा ही जमीन आसमान का फर्क शास्त्रीय संगीतज्ञों और लोक कलाकारों के बीच दिखता है. यह अनायास नहीं मंत्रियों नौकरशाहों का सायास उपक्रम है. एक जानी-समझी चाल है.
यह उपन्यास संतदास भतपहरी गुरूजी जैसे वंचित, पीड़ित और दलित परिवारों की गुमनाम गाथा है. जिसे केवल चींटियों ने देखा है क्योंकि वे भी उनके साथ और समय में वहां पहुंची थीं. वे ही उनके पल पल टूटते अरमानों और संत्रासपूर्ण घटनाओं की चश्मदीद गवाह थीं. उन चीटियों के जीवन में जैसे यही देखना बदा था. उन्हें भी सामूहिक हत्या और बलात्कार की शिकार अपनी बेटी अम्बा की लाश के सामने विलाप करते भतपहरी गुरूजी को पछताते देखा था कि न वे अपने गाँव पौंता से विस्थापित होकर इस शहर में आते और न ये दिन उस परिवार को देखने पड़ते. उन्हें भी उन खेत खलिहानों की याद आई जहाँ से वे ट्रेक्टर की मिट्टियों में लदकर इस अंजान शहर में आ गई थीं. अब इन चींटियों की वापसी तो शुरू हो गई थी पर क्या फिर “हरेली त्यौहार के किसानों द्वारा खेतों में चढ़ाई गई मीठी चीला रोटियों का स्वाद उन्हें मिल पावेगा! जो सुख खेतों-खलिहानों में श्रम करने से मिलता है, उस सुख से शहर की चींटियाँ वंचित थीं. वे खेतों के उन सुराखों बिलों के अपने वितान में फिर पहुँच पाएंगी? जहाँ उनकी सुखद स्मृतियों का बसेरा था? ये इस उपन्यास के त्रासद अंत के सवाल हैं.
किशन लाल अपने उपन्यासों में ‘मैनरिज्म’ के शिकार शायद नहीं हैं. एक अलग कथाभूमि और उसके साथ निर्वहन में अन्तर दीखता है. उसमें उपन्यास लेखन का प्रबंधकीय व संपादन कौशल है. उन्होंने दलित समाज की कथा को न केवल उसके समूचे यथार्थ के साथ उद्घाटित किया है बल्कि अपने समाज में जीवन की विद्रूपताओं से हुए साक्षात्कारों को विश्वसनीय भी बनाया है. उनके स्वाभाविक लेखन पर किसी भी अतिरंजना का आरोप लगाना अस्वाभाविक होगा.’
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– विनोद साव (‘पाठ’ पत्रिका के जुलाई-सितम्बर’२२ अंक में प्रकाशित समीक्षा)
चित्र में अपने उपन्यास की कथाभूमि पर बोलते हुए उपन्यासकार किशन लाल. मंच पर दिनकर शर्मा, विनोद साव, जयप्रकाश, सियाराम शर्मा और अजय चन्द्रवंशी.