फुलगे फुलगे चंदैनी गोंदा फुलगे चंदैनी गोंदा…फूलगे
" चंदैनी गोंदा " की सुरभि यात्रा
मिडिल स्कूल झरना में हमें भूगोल पढाते हुए गोपाल श्रीवास गुरूजी ने बताया था कि एक कहावत प्रचलित है
मरना है तो वेनिस ( इटली ) को देख कर मरो। मैं चंदैनी गोंदा के बारे में भी यही कहता रहा ।जो इसे देख पाए ,वे नितांत सौभाग्यशाली रहे ,जो उस समय चूक गए वे बहुत कुछ खो डाले । चंदैनी गोंदा को छत्तीसगढ की सांस्कृतिक यात्रा कहा जाता है। लेकिन मैं तो कहता हूं यह छत्तीसगढ की माटी की अस्मिता और स्वाभिमान को जगानेवाली , छत्तीसगढियों की आत्मा को झकझोरनेवाली ,लोक संस्कृति को झंकृत करनेवाली अद्वितीय,अनन्य ,अनुपमेय मंचीय अभिव्यक्ति रही है।
धान और किसान छत्तीसगढ की पहचान है । धान बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण ही इसे ” धान का कटोरा” कहा जाता है और किसान को “भुइयां के भगवान “। उल्लेखनीय है कि 1971से 1977 तक चावल अनुसंधान केन्द्र रायपुर के निदेशक रहे डा. रिछारिया ने मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ के सैकडों ग्रामों से धान की लगभग 1700 प्रजातियों को संकलित किया था। इसमें से 1500 प्रजातियां विशुद्धत: छत्तीसगढी हैं। चंदैनी गोंदा मे वस्तुत: धरती की कोख सें मोती चुननेवाले , पुण्य भूमि को स्वेद का अर्घ्य अर्पित करनेवाले कृषक के जीवन दर्शन को रूपायित किया गया है । कर्णप्रिय, मधुरिम गीत संगीत ,दर्शनीय नृत्य से आप्लावित चंदैनी गोंदा का ऐसा भव्य प्रदर्शन होता था कि दर्शक मंत्र मुग्ध होकर रात भर अपनी जगह से हटते नहीं थे । वरिष्ठ पत्रकार रामाधार देवांगन के पास इस तथ्य के साक्ष्य के रूप में अनेक संस्मरण उपलब्ध हैं।
चंदैनी गोंदा जैसे कार्यक्रम के बारे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि न भूतो न भविष्यति …..।
चंदैनी गोंदा के सिद्धहस्त शिल्पी थे दाऊ रामचंद्र देशमुख । उन्हें छत्तीसगढ की लोक संस्कृति की गहरी समझ थी और रंग कर्म का गहन – सघन अनुभव । वे छत्तीसगढ के कमिया किसान,खेत खलिहान ,अमरैया दइहान , दादर खार ,तीज त्यौहार,लोक व्यवहार ,करमा बार ,गुंडी परसार , सुवा ददरिया ,गउरा गेंडी आदि से तृण मूलत: जुडे थे। उनकी सांस्कृतिक यात्रा सन् 1950 से शुरू होती है ।उसी वर्ष उन्होंने देहाती कला मंडल की आधारशिला रखी । इसी के अंतर्गत सरग अउ नरक ,जनम अउ मरन, काली माटी , बंगाल का अकाल ,राय साहब मि. भोंदू खान साहब नालायक अली खां, मिस मेरी का डांस आदि का मंचन किया गया । उनकी वर्षों की सोच एवं चिंतन – मनन का परिणाम था ” चंदैनी गोंदा” का प्रस्फुटन । दरअसल चंदैनी गोंदा असली छत्तीसगढ की सार्थक तलाश थी ।जिसमें आम दर्शक छत्तीसगढ महतारी का दर्शन किया करते थे । उन्हें लगता था कि किसान के जीवन का चित्रण उनकी अपनी आत्मकथा का दिग्दर्शन है । इसीलिए वे रात – रात भर भाव विभोर होकर आनंद उठाते थे । चंदैनी गोंदा के कुल 99 प्रदर्शन हुए । इस विराट और विशाल मंचीय प्रस्तुति में 63 कलाकारों की सहभागिता हुआ करती थी । 7 नवंबर 1971 वह ऐतिहासिक तिथि है ,जिस दिन दाऊजी के गृहग्राम बघेरा में चंदैनी गोंदा के प्रदर्शन का श्रीगणेश हुआ । इसके शीर्षक और प्रमुख गीतकार तथा गायक थे रविशंकर शुक्ल । 29 जनवरी 1972 को पैरी में इसका दूसरा प्रदर्शन हुआ । यहीं से लक्ष्मण मस्तुरिया की एंट्री हुई । इसमें दो मत नहीं कि चंदैनी गोंदा के कारण संगीतकार खुमान साव और लक्ष्मण मस्तुरिया को अपार लोकप्रियता और प्रसिद्धि मिली । अशौका होटल दिल्ली और झांसी के पास मउरानीपुर के लोक कला महोत्सव में भी चंदैनी गोंदा के प्रदर्शन हुए ,जहां उसे व्यापक सराहना मिली । चंदैनी गोंदा के प्रथम उद्घोषक डा. सुरेश देशमुख की खनकती आवाज में संचालन कार्यक्रम में चार चांद लगा देता था । दाऊ रामचंद्र देशमुख ने सन् 1983 में पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी की कहानी ” कारी” का मंचन भी किया ।14 जनवरी 1998 को छत्तीसगढ महतारी का यह पुजारी हमें रोता विलखता छोडकर चला गया सांस्कृतिक यात्रा से अनंत यात्रा में।
आज छत्तीसगढ राज्य बन गया लेकिन सांस्कृतिक जागरण के इस अग्रदूत के प्रदेय का सम्यक मूल्यांकन आज
पर्यंत नहीं हो पाया है । किसी शिक्षण ,प्रशिक्षण संस्थान का नामकरण न तो दाऊजी के नाम पर हो पाया ,न हि इनके
नाम पर शासन स्तर पर कोई सम्मान या पुरस्कार घोषित हुआ ।
जबकि छत्तीसगढ के सांस्कृतिक वैभव को प्रदर्शित करने में दाऊजी का योगदान अपेक्षाकृत सर्वाधिक और सर्वश्रेष्ठ है । मुझे वसीम बरेलवी का एक शेर याद आता है –
” झूठवाले कहीं से कहीं बढ गए ,
और मैं था कि सच बोलते रह गया ।”
दाऊजी किसी भी राजनैतिक चेहरों को तरजीह नहीं देते थे । इसी कारण राजनैतिक मुखौटे दाऊजी से अप्रसन्न रहते थे । दाऊजी ने चंदैनी गोंदा में एक आदर्श परंपरा यह भी स्थापित की कि इसके प्रत्येक प्रदर्शन में किसी स्थापित लेखनी का सम्मान किया जाता था । सम्मानितों की इस सूची मे पं. द्वारिकाप्रसाद तिवारी ” विप्र” , प्यारेलाल गुप्त , श्यामलाल चतुर्वेदी , कोदूराम दलित , डा. नरेन्द्रदेव वर्मा , डा. विमल पाठक ,नारायणलाल परमार ,दानेश्वर शर्मा , नंदकिशोर तिवारी ,रविशंकर शुक्ल ,त्रिभुवन पांडेय ,सुरजीत नवदीप ,डा. मनराखनलाल साहू से लेकर यह खाकसार शामिल हैं । 13 नवंबर 1977 को ग्राम सरहर ( बाराद्वार ) के प्रदर्शन में इस अकिंचन का सम्मान हुआ । सम्मानितों में सबसे अल्प वय का कवि , तब मात्र 21 वर्ष उम्र थी मेरी । यह मेरे लिए गर्व का विषय है ।
दाऊ रामचंद्र देशमुख के योगदान को रेखांकित करने की दिशा में रिश्ते में उनके भतीजे एवं प्रथम उद्घोषक डा. सुरेश
देशमुख ने अमूल्य उपक्रम किया है । उन्होंने ” चंदैनी गोंदा : छत्तीसगढ की एक सांस्कृतिक यात्रा ,दाऊ रामचंद्र देशमुख : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ” जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का संपादन किया है।
यह ग्रंथ निस्संदेह कालजयी प्रकाशन सिद्ध होगा ।इस कृति के प्रकाशन में वैभव प्रकाशन रायपुर के सूत्रधार डा. सुधीर शर्मा की भूमिका श्लाघनीय है । कुल 488 पृष्ठों और 16अध्यायों में निबद्ध यह ग्रंथ सर्वप्रिय प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह ऐतिहासिक कृति लोकार्पण की बाट जोह रही है ।अभी तो कोरोना का रोना है । इस कृति के प्रकाशन से दाऊ रामचंद्र देशमुख के सम्यक प्रदेय से रूबरू होने का मार्ग प्रशस्त होगा ,इसमें दो मत नहीं। इस अध्यवसाय के लिए डा. सुरेश देशमुख के प्रति आभार व्यक्त न करना ,उनके प्रति अन्याय होगा ।
@ देवधर महंत
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