आदमी के भीतर का देश खोजती कविताएँ
शहंशाह आलम
कविता ख़ुद के अंदर कोई मिलावट नहीं चाहती। कविता के साथ मिलावट का काम हम जब भी करते हैं, कविता की आत्मा को ठेस पहुँचती है। अब यहाँ यह बात स्पष्ट की जानी ज़रूरी है कि कविता में कवि किस तरह की मिलावट करेगा? सवाल यह भी उठ सकता है कि कविता कोई पानी तो है नहीं कि उसमें चीनी या गुड़ घोलकर उसको शरबत बनाया जाए या नीबू के रस में थोड़ा नमक डालकर नीबू-पानी बनाया जाए या कविता दूध भी नहीं है कि उसमें पानी मिलाकर उसकी शुद्धता का स्तर गिरा दिया जाए। फिर कविता में किस चीज़ की मिलावट की बात यहाँ उभरकर सामने आ गई है। यहाँ कविता के साथ मिलावट का मेरा मतलब यह है कि कई कवि ऐसे होते हैं, जो कविता में झूठ के शब्द डालकर कविता के जीवन-काल को कम करते चले जाते हैं।
वाजिब बात है, जब कवि के शब्द झूठे होंगे, तब कविता सच्ची कैसे रह पाएगी। जब कविता सच्ची नहीं होगी, तब कविता की दुनिया कैसी होगी, इसका अंदाज़ा सहज लगाया जा सकता है। झूठ जितना नुक़सान किसी आदमी को पहुँचा सकता है, दूसरी ख़राब चीज़ें अपना ख़राब असर आदमी पर झूठ से कम करेंगी। कविता के लिए सुखकर यह है कि ऐसे कवि कविता के प्रदेश में कम उछल-कूद कर रहे हैं। जो कवि सच को अपना ओढ़ना-बिछौना मानकर कवितारत हैं, उनमें रमेश प्रजापति का नाम भी है। रमेश प्रजापति के ‘पूरा हँसता चेहरा’ और ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ संग्रह क्रमशः 2006 और 2015 में छपकर आए, जो चर्चित भी हुए। अब 2021 में उनका संग्रह ‘भीतर का देश’ छपकर आया है।
देश कविता का हो अथवा आदमी का हो, उसका मूल स्वभाव, उसके लोकतांत्रिक बने रहने में हमेशा होना चाहिए। लेकिन अब आदमी के जो जो देश भी लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुसार बचे हुए हैं, वे अपनी इस प्रजातंत्रीय प्रणाली में स्वयं को किसी क़ैदी की हैसियत से अधिक नहीं मानते। यानी लोकतंत्र अब उस आदमी की तरह है, जिसे कोई बेकार का, नाकारा, बेमतलब का आदमी समझकर अपने घर के बाहर फेंकवा देता है। इस बात के प्रमाण के लिए सबसे उपयुक्त उदाहरण अपना भारत देश है। यहाँ की प्रमुख सत्ता जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ में दिखाई देती तो है, लेकिन यहाँ का जनतंत्र अब किसी तानाशाह के ज़रिए अपहृत कर लिया गया दिखाई देता है। प्रसन्नता की बात इतनी भर है कि जो आदमी के भीतर का देश है, वह अब भी प्रजातांत्रिक दिखाई देता है। संभवतः यही कारण है कि रमेश प्रजापति अपने नए आए कविता-संग्रह का नाम ‘भीतर का देश’ रखते हैं। रमेश प्रजापति की रचनात्मकता इस बात में है कि आदमी के अंदर रहने वाला राष्ट्र अगर जनतंत्रीय, गणतंत्रीय, प्रजातंत्रीय है, तो शासक कितना भी बड़ा तानाशाह क्यों न हो, वह देश में लोकतंत्र को बंधक ज़रूर बना सकता है, उसकी हत्या नहीं कर सकता।
रमेश प्रजापति अपनी कविताओं के माध्यम से एक बात और समझाते हैं कि आदमी कोई हो, जिस देश में वह रहता है, उस देश से उसका गहरा रिश्ता बन जाता है। इस रिश्ते की एक ख़ास वजह यह होती है कि आदमी को देश के शीर्ष पर क़ाबिज़ लोग यह पाठ पढ़वाते रहते हैं कि तुम्हारे देश की परिधि इतनी है। इसी परिधि में रहते हुए तुमको थाल पीटना है, दीया जलाना है, उत्सव मनाना है। थाल पीटने का यह काम, जब किसी स्त्री का बलात्कार किया जा रहा हो, उस समय किया जाए ताकि उस स्त्री की चीख़ें दब जाएँ। दीया जलाने का यह काम उस समय किया जाए, जब किसी की हत्या की जा रही हो ताकि हत्या किए जा रहे इंसान को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सके। उत्सव मनाने का यह काम, जब देश में महँगाई चरम पर हो, उस समय किया किया जाए ताकि यह महँगाई उनके लिए लगे, जो थाल बजाने का, दीया जलाने का, उत्सव मनाने का आदेश नहीं मानते। इस परिधि से बाहर निकलने के बारे अगर तुमने सोचा भी, तो तुम भी देशद्रोही साबित किए जाओगे।
वहीं, सत्ता के शीर्ष पर क़ाबिज़ लोग इन बातों को नहीं मानते। वो इस परिधि के साथ तोड़-फोड़ करते रहते हैं। सत्तापक्ष तभी सत्तापक्ष है। रमेश प्रजापति शासक-वर्ग के इस खेल को समझते रहे हैं। तब भी, कवि का मानना है, आदमी के भीतर का जो देश है, उसकी कोई सरहद नहीं होती। यहाँ सरहद इसलिए नहीं होती, क्योंकि इस देश में रहने वाले आदमियों के दुःख में कोई फ़र्क़ नहीं है। विपत्ति में कोई फ़र्क़ नहीं है। रोआ-रोहट में कोई फ़र्क़ नहीं है। रमेश प्रजापति अपनी कविता ‘विडंबना’ में यही सबकुछ साफ़ कहते दिखाई दे रहे हैं, ‘उन्होंने आँखें फोड़कर सामने रख दी / एक ख़ूबसूरत दुनिया / उन्होंने हाथ काटकर फैला दिया / आकाश का कैनवास / उन्होंने / होंठों पर उसके चस्पाँ कर दिए / तारीफ़ भरे शब्द / और राजा के गुणगान का फ़रमान जारी कर दिया / उन्होंने भारी-भरकम बूटों तले कुचल दिए / विचारों के फूल / सड़क पर कहीं नहीं दिखे लहू के धब्बे / हवा में सिर्फ़ / मौत की बू तैर रही है (पृष्ठ : 76)।’
रमेश प्रजापति देश को देश बनाने वाले कवि हैं। यहाँ आकर आप यह सवाल भी पूछ सकते हैं कि एक कवि देश को देश कैसे बनाएगा? आपका यह सवाल पूछना बिलकुल जायज़ होगा। क्योंकि हमारी एक धारणा यह बन गई है कि देश को देश बनाने का काम बस राजनेताओं का है। इसमें कोई कवि, कोई कथाकार, कोई नाटककार भला क्या करेगा? मुझे ऐसे सवाल से हमेशा से आपत्ति रही है। देश को देश बनाने का काम कोई नेता कभी कर ही नहीं सकता। यह काम जनता का है। और यह काम जनता कवि, कथाकार, नाटककार आदि के साथ मिलकर संभव करती रही है। ऐसा है, तभी रमेश प्रजापति लिखते हैं, ‘कच्चे दूध की उमड़ी नदी से / धान की सुगंध / सुदूर…, पहुँचती है चिड़ियों तक / खिल उठता है कोठी-कुठलों का मान (‘धान का खेत’, पृष्ठ : 11), ‘बच्चा, स्लेट पर बनाकर फूल / महका देता है कोमल हँसी से / धरती का आँगन (‘स्लेट पर बच्चा’, पृष्ठ : 15), ‘संभावनाओं से भरी नाव तट पर लौट रही है / पहाड़ से गाय का झुंड अपने ठीहों की तरफ़ आ रहा है / गाँव की ओर साइकिल पर झोला लटकाए / कुछ ख़ुशियाँ आ रही हैं (‘पहाड़ के आँसू हैं नदी’, पृष्ठ : 18), ‘दिहाड़ी मज़दूरों के खुरदुरे पैरों से / बल्लियों-सा उछलने लगा / शहर जाने वाली टूटी-फूटी सड़कों का मन (‘आख़िर कब तक’, पृष्ठ : 26 )।’ क्या ऐसे शब्द, ऐसे भाव, ऐसी अभिव्यक्ति कोई नेता दे सकता है। नहीं दे सकता। एक नेता ‘गोली मारो सालों को’ जैसी पंक्ति से देश का सिर रोज़ नीचे झुकने के लिए मजबूर करता रहता है। वहीं, रमेश प्रजापति जैसे कवि ‘वह सपने देखती है / और धरती की बाँहों में खिल उठते हैं फूल’ (‘वह सपने देखती है’, पृष्ठ : 80) जैसी पंक्ति लिखकर देश का सिर रोज़ गर्व से उठाता रहता है। तभी मैं कहता रहता हूँ कि देश को कवि के चुने हुए रास्ते पर चलना चाहिए। रमेश प्रजापति की ‘साँझ का उतरना’, ‘अंतिम आदमी’, ‘नदी एक धड़कन है’, ‘पेड़ उदास है’, ‘उम्मीद एक चिड़िया का नाम है’, ‘दृश्य’, ‘कविता की तलाश’, ‘प्रेम राग’, ‘बच्चे’, ‘तुमसे मिलना’, ‘बचाना’ आदि कविताएँ हमारे अंदर की उम्मीदों को टूटने से बचाती हैं। रमेश प्रजापति में एक और अच्छी बात यह है कि वो अपने भीतर आदमी की उम्मीदों को बचाए रखने के लिए जो साहस चाहिए, यह साहस वरवर राव, राजेश जोशी, नरेश सक्सेना जैसे अग्रज कवियों से लेते हैं।
कविता मछलीमार के जाल की तरह है जिसमें आदमी के काम की चीज़ें ही पानी से बाहर निकाली जाती हैं जबकि सत्ता का कुविचार मकड़ी का वह जाला है, जिसमें जो कोई फँसता है, विषैला होकर ही बाहर निकल पाता है। अपने देश के साथ अब यही हो रहा है। देश का जो तथाकथित पढ़ा-लिखा वर्ग है, वो बस यही चाहता है कि मकड़ी का जाला हर तरफ़ बढ़ता जाए। ऐसे पढ़े-लिखे निर्बुद्धि के पास अपने आसपास के निर्बुद्धियों को पढ़ाने के लिए बस एक पाठ है कि अमुक धर्म का आदमी चार शादियाँ करता है। फ़लाँ धर्म का आदमी दस बच्चे पैदा करता है। अमुक धर्म का आदमी देश में न रहता तो कोरोना जैसी घातक बीमारी का मजाल था कि घुस आती। फ़लाँ धर्म का आदमी देश में न रहता तो यह होता और यह न होता। जबकि यह सब काल्पनिक होता है। सच यही है कि फलान-ढेकान करने से देश नहीं चलता। देश संविधान से चलता है। देश के घोड़े अब मगर फलान-ढेकान करके ही हाँके जा रहे हैं। रमेश प्रजापति की कविताएँ इस फलान-ढेकान वाले विचार की सख़्ती से मज़म्मत करती हैं। उनका साफ़ मानना है कि इस फलान-ढेकान वाले विचार से ‘लहूलुहान है बापू की आत्मा’ (पृष्ठ : 73)। यही वजह है, रमेश प्रजापति बाह्य से अधिक यानी दिखावे से अधिक अंदर की अच्छाइयों पर ज़ोर देते हैं, ‘तुम्हारी मुस्कराहट से / खिल उठती हैं कुमुदिनी की बाँछें / तुम्हारी झलक पाकर / उजास से भर जाती हैं दिशाएँ / तुम्हारी चुप्पी से तिड़ककर / बहुत कुछ एक साथ / दर्द से भर जाता है भीतर का देश (‘भीतर का देश’, पृष्ठ : 77)।’
रमेश प्रजापति के इस नए संग्रह ‘भीतर का देश’ की लगभग सारी कविताएँ आम-फ़हम यानी सबकी समझ में आने वाले शब्दों में लिखी गई हैं। यह सरल भाषा, यह सरल कथन, यह सरल शैली कविता के भले के लिए है और कविता के पाठक के लिए भी। इस बात को बाक़ी साथी कवियों को भी गंभीरता से लेनी चाहिए ताकि कविता की पहुँच आम आदमी तक हो। ऐसा करते हुए इस बात का ख़्याल रखा जाना चाहिए कि आम-फ़हम के चक्कर में कविता सतही होकर न रह जाए। रमेश प्रजापति ने इस ख़तरे से बचने का भरसक प्रयास किया है, तब भी ‘सूरज के पौधे’ (पृष्ठ : 86) जैसी कई कविताओं में कविता को सतही होने से नहीं बचा पाए हैं।
‘भीतर का देश’ की कुछ कविताओं में कुछ ख़ामियाँ हैं, परंतु संग्रह की अधिकतर कविताएँ अच्छी हैं। ये कविताएँ अपने समय से जुड़ी हैं, अपनी हद से बँधी हैं, आदमी के यथार्थ से सजी हैं। संग्रह की कविताएँ ख़ुद को ईमानदारी से पढ़े और विचारे जाने की माँग करती हैं।
किताब की दुनिया से : एक
‘भीतर का देश’ (कविता-संग्रह)
कवि : रमेश प्रजापति
प्रकाशक : सहज प्रकाशन
113, लाल बाग, गाँधी कॉलोनी
मुज़फ़्फ़रनगर – 251001 (उत्तरप्रदेश)
मूल्य : 150 Rs
मोबाइल संपर्क : 9891592625