दान पुन के तिहार हे छेरछेरा
डॉ सुधीर शर्मा
छेरछेरा छत्तीसगढ़ का लोक तिहार है। यह लोक को धर्म, अध्यात्म, इतिहास और संस्कृति से जोड़ता है। धर्म और अध्यात्म कहता है संग्रह न करो दान भी करो । अध्यात्म रूप में मोक्ष की कामना । इतिहास छेरछेरा को मुगल काल से जोड़ता है तो संस्कृति हमें मिल बांटकर खाने कहती है। छेराछेरा इसलिए दान का पर्व कहलाता है।
परंपरा यह बताती है कि धान की प्रथम फसल की आगमन की खुशी का पर्व है। मां अन्नपूर्णा और शाकंभरी की पूजा अर्चना का भी प्रचलन है। बच्चे गीत गाते हैं दान मांगने टोली बनाकर निकल पड़ते हैं दान में मिलता है धान का मुट्ठी भर हिस्सा। चारों तरफ हेरहेरा की गूंज सुनाई देती है। गांव के युवक डंडानाच भी करते हैं।
छेरछेरा के गीत छत्तीसगढ़ी और हल्बी सहित अन्य बोलियों में मिलते हैं। जहां छत्तीसगढ़ी में छेरिक छेरा छेर बरतनिन छेरछेरा. माई कोठी के धान ला हेर, हेरा गीत गाते हुए बच्चे -युवा और महिलाएं दिखती हैं तो हल्बी में भी गीत गाए जाते हैं।
छेरछेरा का दिन है पौष पूर्णिमा का जिसे छत्तीसगढ़ में पुष पुन्नी भी कहा जाता है।
त्योहार ऐसा की अमीर-गरीब व कोई छोटा-बड़ा नहीं है।
इस दिन, बरा रोटी, अरसा रोटी, चौसेला रोटी बनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में पुष के महीने में शादी नहीं होती है। पुष के पहले या बाद में ही शादी होती है।इन्हें हर घर से धान, चावल व नकद राशि मिलती है। इस त्योहार के दस दिन पहले ही डंडा नृत्य करने वाले लोग आसपास के गाँवों में नृत्य करने जाते हैं। वहाँ उन्हें बड़ी मात्रा में धान व नगद रुपए मिल जाते हैं। इस त्योहार के दिन कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्रायः गाँव छोड़कर बाहर नहीं जाते। ।
जनश्रुति के अनुसार, एक समय धरती पर घोर अकाल पड़ा। इससे इंसान के साथ जीव-जंतुओं में भी हाहाकार मच गया। तब आदिशक्ति देवी शाकंभरी को पुकारा गया। जिसके बाद देवी प्रकट हुईं और फल, फूल, अनाज का भंडार दे दिया। जिससे सभी की तकलीफें दूर हो गई। इसके बाद से ही छेरछेरा मनाए जाने की बात कही जाती है। इस पर्व को मनाने के पीछे की कहानी यह है कि कोसल प्रदेश (छत्तीसगढ़) के राजा कल्याण साय, वे मुगल सम्राट जहाँगीर के सल्तनत में युद्ध कला की शिक्षा प्राप्त कर लगभग आठ वर्षों बाद वापस अपने राज्य लौटे I तब यहाँ कि प्रजा अपने राजा के स्वागत में बड़े उत्साह के साथ, गाजे बाजे लेकर उनसे मिलने राजमहल पहुंची I अपने राजा से मिलने पहुँचे प्रजा के उत्साह और लोक गीतों से भाव विभोर होकर महारानी ने महल में पहुँचे सभी लोगों के बीच अन्न और धन का वितरण कर अपनी खुशी जताई I
फिर राजा कल्याण साय ने इस उत्सव को पर्व के रूप में मनाने का आदेश दिया I तभी से, छत्तीसगढ़ के लोग प्रति वर्ष इस पर्व को बड़े धूम धाम से मनाते चले आ रहे हैं I बाबू रेवाराम की पांडुलिपियों से पता चलता है कि कलचुरी राजवंश और मंडला के राजा बीच विवाद चल रहा था । कोसल नरेश “कल्याण साय” व मण्डला के राजा के बीच विवाद हुआ, और इसके पश्चात तत्कालीन मुगल शासक अकबर ने उन्हें दिल्ली बुलावा लिया। कल्याणसाय 8 वर्षाे तक दिल्ली में रहे, वहाँ उन्होंने राजनीति व युद्धकाल की शिक्षा ली और निपुणता हासिल की।