वरिष्ठ कथाकार आशा प्रभात का नया उपन्यास उर्मिला (राजकमल प्रकाशन) पढ़ गई. क्या कहूँ …
बस मुग्ध हूँ, नम हैं आँखें… लेखन पर मुग्ध और उर्मिला की पीड़ा के सटीक बयान पर नम हैं आँखें. थोड़ी ग़ुस्से में भी हूँ… उर्मिला के साथ. भरी सभा में राम ने सीता से उनके दोनों पुत्रों का प्रमाण माँगा. सीता से उसकी शुद्धता का एक बार फिर से प्रमाण माँग रहे हैं. उर्मिला के हृदय पर जो उस समय बीत रहा था… इस प्रसंग को पढ़ते हुए मुझ पर बीता.
“आह ! क्या ये राम के शब्द हैं? अपनी अर्द्धांगिनी के लिए, वह भी भरी सभा के मध्य ? इतने कटु शब्द ! पीड़ा से हृदय विदीर्ण हो गया. इतने वर्षों पश्चात अपनी भार्या को देख कर तनिक भी उनका हृदय न पसीजा? कहाँ तो मान के साथ अपने समीप बैठाते, कहाँ वे उनसे शुद्धता का प्रमाण माँग रहे हैं. … उनकी इस अन्यायपूर्ण बात पर मेरा रक्त उबल रहा!”
ये उर्मिला की मनोदशा नहीं… मेरी भी होती है जब जब ये प्रसंग पढ़ती हूँ. मेरा रक्त उबाल मारता है और मेरे मन से राम
चले जाते हैं. एक कथा नायक के रुप में, एक मिथक या भगवान के रुप में… किसी रुप में उन्हें आदर देना मेरे लिए संभव नहीं.
सीता का जवाब भी यहाँ देती हूँ – संक्षेप में –
“और रहा मेरी शुचिता का प्रश्न …तो अब न उसका कोई औचित्य है न आवश्यकता ही और न मेरे अंदर यह लालसा शेष है कि मैं आपके वाम भाग को सुशोभित करूँ. बार-बार इस भरी सभा में एक स्त्री से उसकी शुचिता का प्रमाण माँगना…उसके स्व तथा स्वाभिमान पर प्रहार करना आपके लिए कौतुक हो सकता है परंतु मेरे लिए नहीं. अतः आज इस भरी सभा में मैं जनक पुत्री जानकी यह घोषणा करती हूँ कि मैं अपनी शुचिता का प्रमाण नहीं दूँगी. और इस कौतुक का अंत भी कर रही हूँ, आपका परित्याग करके…!”
इतना कह कर स्तंभित सभा को छोड़कर सीता अदृश्य हो गई.
आशा जी की उर्मिला बहुत प्रखर, तार्किक, बहस करने वाली स्त्री के रुप में सामने आती है जिस पर विरह बार-बार थोपा गया. अंतिम समय में भी लक्ष्मण ने उससे विदा नहीं ली. विवाह के वचनों का उल्लंघन सारे पुरुषों ने किया यहाँ. उनके हर निर्णय एकाकी रहे. पत्नियों से विमर्श को आवश्यक नहीं समझा… सबने. लक्ष्मण जल समाधि लेते हैं… उर्मिला को पता नहीं चला. कोई और खबर देता है. सीता के वियोग में नहीं, लक्ष्मण के वियोग में राम लेते हैं जल समाधि. ओह… क्या है ये सब !
इस उपन्यास में कई प्रसंग ऐसे हैं जहां लगा, लेखिका कहीं लड़खड़ा न जाएँ. कहीं जजमेंटल न हों जाएँ या उन पर ईश्वरीय दबाव न पड़े.
लेखिका सबसे बचा ले गईं और अहिल्या प्रसंग में भी वे न्याय करती हैं. यहां अहिल्या कथा विस्तार से कही गई है. एकदम सुलझी हुई कथा, जिसमें अहिल्या का पक्ष बहुत स्पष्ट और न्यायपूर्ण है. कई बार मनुष्य नहीं, परिस्थितियाँ गुनहगार होती हैं.
यहाँ कहानी पूरी तरह उर्मिला की है जिसके साथ -साथ अन्य कथाएँ चलती हैं. जिन प्रसंगों में उर्मिला की भूमिका है या उपस्थिति.
उर्मिला ख़ुद कहती हैं अपनी कथा… सबकी कथा… अन्याय पर प्रश्न उठाती हुई, देश और राजनीति पर बहस करती हुई… एक सचेतन स्त्री. विरह में होते हुए भी सिर्फ़ अपनी चिंता में नहीं घुलती. बहुत मार्मिक ढंग से कथा कही गई है. इसीलिए पढ़ते हुए आँखें नम हो जाती हैं.
एक प्रश्न रह गया मेरा … उपन्यास में सीता अदृश्य होती हैं, लोक कथाओं में धरती फट जाती है, सीता उसमें समा जाती हैं, वाल्मीकि नगर आश्रम में पाताल भूमि हैं जिसमें सीता समा गई थीं. रामराज्य फ़िल्म में धरती फटती है, सीता की माता पृथ्वी उन्हें लेने आती हैं और सीता पृथ्वी में समा जाती हैं. सीता भूमि -पुत्री थीं… इसलिए अंतिम शरणस्थली भूमि ही थी.
मैंने वाल्मीकि नगर आश्रम में वह जगह देखी … तस्वीर लगाती हूँ.