कारीगर के हाथ सोने के नहीं होते
कमलेश्वर साहू समकालीन कविता में जाना-पहचाना नाम है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहती है।अभी तक उनके पांच कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘कारीगर के हाथ सोने के नहीं होते’ कविता संग्रह हाल में प्रकाशित हुआ है। संग्रह का शीर्षक कविता ही इस संग्रह के कविताओं की दिशा और दृष्टि को रेखांकित कर रही है। संकलित कविताएं जन-सरोकार और आम आदमी के दुःख, पीड़ा और संघर्ष से ओत-प्रोत हैं।
इन कविताओं में अभिजात्य जीवन और बाज़ारवाद का तीखा प्रतिरोध है।ये दोनो आपस में जुड़े हुए हैं।समाज में वर्ग-विभाजन और असमानता इस कदर है कि एक तरफ अय्याशी के तमाम समान हैं तो दूसरी तरफ खाने के लाले हैं। बाज़ार का मायाजाल ऐसा है कि “कोई किसी को देख नहीं रहा था/कोई किसी को पहचान नहीं रहा था।” बाज़ारवाद जीवन की सहजता खत्म कर रहा है। अब प्रणय निवेदन तक के लिए मोबाइल में ‘लव टिप्स’ बताये जा रहे हैं। हालात यह है कि “वस्तु से ज्यादा/उसे बनाने वाली कंपनी का नाम चमक रहा था” । यह बाज़ार का कमाल है कि अब “पांव को जूतों की नहीं/जूतों को पांव की जरूरत है”।
मगर इस बाज़ारवाद का स्याह चेहरा उसके चकाचौंध में कुछ देर भले छुप जाये; हकीकत छुप नहीं सकती “ये वही कोठी थी/जिसके गेट के बाहर/भटक रहे थे/कितने ही नंगे पांव/जूतों की प्रतीक्षा में!” बाज़ारवाद का एक सच यह भी है ‘बाजार के मायाजाल में फँसे लोगों के पास /सब कुछ था/बस कंधा नहीं था/कि जरूरत पड़ने पर/दे सके किसी दूसरे को सहारा!”बाज़ारवाद का असर समाचार पत्रों,न्यूज चैनलों पर इस तरह है कि “एक सफल पत्रकार वह होगा/जो ख़बर को बांचना नहीं/बेचना जानता हो।”
कमलेश्वर साहू जनपक्षधर कवि हैं। स्वाभाविक रूप से वे कविता को दुरूहता से बचाने के पक्षधर हैं। वे ‘चम-चम करती चिकनी भाषा’ के कवि नहीं हैं।वे लिखते भी हैं ‘कविता हो बस पानी जैसी/या, कबीर की बानी जैसी!”। इसलिए उनकी कविताओं में शिल्प का ‘चमत्कार’ नहीं मिलेगा। वे सहज ढंग से, ठोस रूप में अपनी बात कहते हैं, वे शिल्प की ओट में विरोधाभासी मन्तव्य प्रकट कर,बच निकलने के रास्ते नहीं बनाते। उनकी जनपक्षधरता स्पष्ट है। उनकी कविता का सबल पक्ष उनकी स्पष्टता, व्यंग्यात्मकता और बेलौसपन है। ‘ईश्वर के बहाने कुछ बकबक’ और ‘उत्तर-आधुनिक व्यक्ति की प्रार्थना’ कविता श्रृंखला में इसे देखा जा सकता है; जिनमे व्यंग्य में आज के समय के संकट, विसंगति, छद्म को उजागर किया गया है।
कमलेश्वर साहू लम्बे समय से बस्तर में कार्यरत रहे हैं। उन्होंने बस्तर की बिडम्बना को नज़दीक से देखा है। अमूमन कवियों द्वारा बस्तर के लोक जीवन के केवल सौंदर्य पक्ष तथा प्राकृतिक सुंदरता को ही दर्ज किया जाता रहा है। इधर कवियों का ध्यान उसकी विडंबना और वहां घटित हो रही दुर्घटनाओं, शोषण तथा विभीषिका की तरफ भी गया है।चूंकि कमलेश्वर ने बस्तर को करीब से देखा है, इसलिए उनका कविमन इनसे असंपृक्त नहीं रह सका है।उन्होंने सप्ताह के सात दिन का रूपक लेकर सात कविताओं में बस्तर के जीवन और संषर्ष को रेखांकित किया है। बस्तर के आदिवासी अपना जीवन जीते रहे हैं; उन्होंने कभी दूसरों को परेशान नहीं किया। लेकिन ‘बाहरी’ लोगों ने अक्सर उन्हें दुःख ही दिया है। व्यापारी, दलाल, तस्कर, अधिकारी कितने रूपों में उनका शोषण करते रहें! फिर भी बस्तर उन्हें प्रेम ही देता रहा। उनकी मेहमान नवाज़ी करता रहा। ऊबे हुए हुए लोगों को अपनी गोद में पनाह देता रहा। लेकिन उन्होंने उसे धोखा ही दिया। एक सीमा के बाद बस्तर का सब्र टूट गया। उसने विरोध किया।उसमे बाहरी हस्तक्षेप भी रहा। इधर सत्ता का दमन शुरू हुआ। इस खून खराबा में अधिकतर निर्दोष ही मारे जाते रहें।
कमलेश्वर की कविताओं में इन तमाम पक्षों को देखा जा सकता है। कमलेश्वर ‘नक्सल आंदोलन’ को उचित नहीं मानते “सत्ता-संविधान-राष्ट्रध्वज-राष्ट्रगान/सबके प्रति नकार का ऐलान, धिक्कार/विरोध और विद्रोह की इतनी तीखी भाषा, हाहाकार/ क्या एक मात्र विकल्प है बहिष्कार? वे इसका विकल्प किसानों में देखते हैं “वे देखो उधर पूरब में/ उगते हुए सूरज को बौना करते/ जिस किसान के कंधे पर हल है/ वही सबल है”। यहां तक ठीक है मगर एक जगह वे कहते हैं “रविवार ने कहा अपने आप से/सत्ता या सरकार को नकारना/ कहीं न कहीं/ जन को नकारना है” तो बात समझ में नहीं आती! सत्ता या सरकार हमेशा जन का प्रतिनिधि नहीं होता।
संग्रह में कई तरह की कविताएं है जिनमे घर, परिवार,समय, समाज की चिंता है; मगर इन सभी कविताओं में ‘आम आदमी’ की ही केन्द्रीयता है। वे अभिजात्य का केवल नकारात्मक विरोध नहीं करतें, उन्हें ‘पसीने की गंध’ की ताकत मालूम है। उनकी चिंताओं में पाश कालोनी का बूढ़ा पहरेदार भी है, कारीगर है,कविमित्र हैं, बच्चे हैं, जनता है तो ‘मसखरा राजा’ भी है जिसे “हर बार दांव लगाकर’ चुनती तो जनता ही है मगर”हर बाजी/जनता ही हारती है”।और इन सबके बीच कवि की आकांक्षा है-
“अपनी कविता का /कोई अंश बनकर रह जाना चाहता हूँ/पाठकों की स्मृति में/जिसके याद आते ही कौंध जाए/ अन्याय और शोषण का विरोध करते हुए/लालभभूका हो गया मेरा चेहरा”।
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कृति- कारीगर के हाथ सोने के नही होते(कविता संग्रह)
कवि- कमलेश्वर साहू
प्रकाशन- अंकिता प्रकाशन, गाज़ियाबाद
कीमत- ₹250
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[2020]
●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728320