November 15, 2024

आप पत्रकार हैं या स्टेनोग्राफर ?

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(डॉ संदीप अवस्थी, शिक्षाविद,अध्यक्ष,भारतीय विद्या अध्ययन केंद्र,राजस्थान,कई किताबो के लेखक 7737407061)

एक कुशल स्टेनोग्राफर अपने साहब के बुलावे पर जाने के लिए तैयार रहता है ।फिर जो साहब बोलते जाते हैं वह दक्षता से नोट करता है,बिना मुहँ खोले। फिर टाइप करके कॉपी साहब को दिखाता है,साहब कुछ संशोधन करते हैं और वह ठीक करके फाइनल कॉपी पर साहब हस्ताक्षर करते है और वह आगे जाती है ,सबके लिए। हमारी पत्रकारिता प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनो कई दशकों से (संभवतः 2001 से) इसी तरह की चल रही है। जो आला अफसर,नेता,मंत्री,कॉरपोरेट बॉस कह दे ,वह निष्ठा से नोट करते पत्रकार आपको बरसों से दिखते होंगे। जो फाइनल कॉपी पर सर,यानि न्यूज मेकर की सहमति और मनपसन्द बात के बाद उसी न्यूज़ को चलाते,दिखाते हैं। स्टेनोग्राफर संघ कोई होता तो वह ऐतराज करता कि हमारी तुलना इन तथाकथित पत्रकारों से मत करें।हमारी कोई इज्जत है,हम हमे दिया हुआ कार्य ईमानदारी से करते हैं स्टेनोग्राफी का। तो आप जागरूक,लोक और उसकी समस्याओं को उठाने का कार्य ईमानदारी से क्यों नही करते ? यह यक्ष प्रश्न कई बार उठता है।
माधवराव सप्रे ( जून १८७१ – २६ अप्रैल १९२६ ) उस युग मे हुए जब पत्रकारिता एक जुनून, निष्टा और आमजन की वाणी बुलंद करने का जरिया थी। जब लोकतंत्र के पहरुए उस चौथे स्तम्भ से डरते भी थे और सम्मान भी करते थे। स्वयं सप्रे जी के ऐसे अनेक उद्धरण हैं जब उन्होंने स्वहित की जगह लोकहित,जनमानस की भावनाओं को तरजीह दी।यह वह दौर था जब संपादक विद्वान और सरोकारों से युक्त थे। चाहे वह महावीर प्रसाद द्विवेदी,बालमुकुंद पांडेय,बद्री विशाल पित्ती हो या गोयनका, राजेंद्र मोहन, बाबू छजलानी,प्रभाष जोशी,दिनमान,सारिका के कमलेश्वर, (धर्मवीर भारती,अश्क,कालिया,मृणाल पांडे आदि को जन सरोकारों की जगह साहित्यिक माना जाए) यह ऐसी लम्बी परम्परा रही जिनसे पटेल,नेहरू,शास्त्री सब प्रभावित रहे। आज एक राज्यसभा सीट के लिए बड़े से बड़ा मीडिया हाउस राजनेताओं के आगे पीछे दुम हिलाता और कॉरपोरेट के साथ खड़ा आता है। ऊपर से बेशर्मी से अपनी कारगुजारियों को खीसे निपोरता यह कहता है कि अखबार,पत्रिका,चैनल चलाना कितना महंगा हो गया है तो विज्ञापन के बिना सम्भव ही नही। तो हमे विज्ञापनदाता की बात सुननी ही होगी। वह हमारा अन्नदाता है।और आम नागरिक,ग्रामीण,मजदूर,किसान,विस्थापित,आदिवासी इस देश के अस्सी फीसदी लोग क्या हैं? गुनहगार,गिनीपिग, प्रयोगशाला के चूहे?कैसी विडंबना है कि जिन लोगो के लिए माधवराव सप्रे जैसे प्रतिबद्ध लोग अखबार,पत्रकारिता करते करते होम हो गए उन्ही के बाद के पत्रकारों ने दलालों के रूप अख्तियार कर लिया ।

कैसे कैसे रंग बदलता है आसमान

इक्कीसवी सदी में लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को जहां सशक्त,अधिक मानवीय और लोक सरोकारों का पैरोकार होना चाहिए वहां यह इसके विरोधियों के साथ खड़ा नजर आता है। हर राज्य ,शहर में हजारो की संख्या में पत्रकारिता की पढ़ाई कराने वाले संस्थान उग आए हैं। उनमें क्या और कैसी पढ़ाई हो रही है यह एक बड़े और गम्भीर संपादक की जुबानी सुनिए,” हमे पहले तो इन नए स्टिंगर (नया नया पत्रकार)को जो गलत सलत पढ़कर आए हैं यह भुलाने,मिटाने की मेहनत करनी पड़ती है और फिर उन्हें सही,निर्भीक पत्रकारिता सिखानी पड़ती है।इस तरह दोहरा कार्य करना पड़ता है।” ,कोई आश्चर्य नही की अधिकांश अच्छे मीडिया हाउस पत्रकारिता पढ़कर आए ऐसे युवाओ की जगह उन नए लोगो को लेते हैं जो सामान्य डिग्री रखते हैं।क्योकि उन्हें सिर्फ काम सिखाना है ,पिछला भुलाना नही।
ऐसे वक्त में यह याद दिलाना समीचीन होगा। माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर १९२६ के कर्मवीर में लिखा था − “पिछले पच्चीस वर्षों तक पं॰ माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।
माधवराव सप्रे आज के मीडिया की भाषा और ज्ञान पर क्या कहते यह दिलचस्पी से खाली नही है। कुछ बानगी देखें ,1.नगर निगम ने डॉग का किया वेक्सिनेशन (दैनिक भास्कर,राज.16 अप्रैल 21) .2. पी एम गए अब्रॉड (19 मई ,2017 ,पंजाब केसरी) 3.MNC,S में जॉब ऑपर्चुनिटी (अमर उजाला, उत्तरप्रदेश ,11 जनवरी 2019 ) यह तो कुछ भाषाई व्यभिचार के उद्धरण हैं प्रिंट मीडिया से। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो एक नई भाषा बरसों से चल रही है जो हिंगलिश,उर्दू,फ़ारसी और न जाने क्या क्या शब्दों का जंजाल है।
संपादक रूप में सप्रे जी ने जहाँ भाषा ,हिंदी और स्थानीय बोली के शब्दों को प्रचुरता से स्थान दिया वहीं आमजनों ,लोक की समस्याओं को बखूबी उठाया भी। फिर चाहे वह विस्थापन के आसन्न संकट हो, इमरजेंसी हो, या भारत चीन,भारत पाक युद्ध एक सजग पत्रकार हर मुद्दे पर आमजन और व्यवस्था के मध्य पुल की तरह रहा।और कई बार वह जनता का ही वकील,हिमायती रहे बजाए सरकार के।
इसकी कीमत भी आप सभी जानते हैं उन्होंने चुकाई, पर संतोष और बिना शिकायत की। मुफलिसी के दिन कुछ लोगो की गुरबत को और मजबूत करते हैं। आज के तथाकथित संपादक और मीडिया घरानों के मालिक देखें कि कैसे बिना लोभ,लालच,लाभ के निस्वार्थ पत्रकारिता की जाती है। साथ ही यह भी गौरतलब है कि आप शोषित, किसान,वंचितों,आम व्यक्ति की तरफ नही हैं तो फिर स्पष्ट है आप सरमायदारों के हिमायती हैं।
माधवराव सप्रे जीवनपर्यंत इन मूल्यों, प्रतिबद्धता और आमजन के साथ खड़े रहे तभी हम आज उनकी शताब्दी मना रहे हैं। उन्हें याद कर रहे हैं ,वह भी ऐसे समय मे जहां यह पत्रकारिता का पेशा लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का दायित्व भूल चुका है।और गोदी मीडिया,(कॉरपोरेट,नेताओ का) प्रेस कार्ड दिखाकर हर सुविधा लेने की अपेक्षा वाला हो गया है।जहाँ प्रेस क्लब डील करने की जगह बन गई है। जहाँ ऊपर से नीचे तक सब खाने में लगे हैं। शोषण की नई नई इबारतें लिखी जा रही हैं। वेसे समय मे माधवराव सप्रे जी को याद करना अंधेरे में प्रकाश की किरण दिखाने के बराबर है।

क्या हम कुछ सीखेंगे इस शताब्दी समारोह से

आज से एक सदी पहले जब पत्र प्रकाशन के लिए पर्याप्त सुविधाएं और आधुनिक तकनीक नहीं थी, ऐसे समय में उन्होंने छत्तीसढ़ में पत्रकारिता की बुनियाद रखी थीं।वर्ष उन्नीस सौ में छत्तीसगढ़ पत्रिका का प्रकाशन करके।(तब यह दो वर्ष तक निकली)। फिर उन्होंने तिलक जी के विचारों को लेकर एक पुस्तिका “,स्वदेशी आंदोलन और बायकाट” (1906)शीर्षक से निकाल जनजागरण का कार्य किया। जिसने जनता से विदेशी सामानों को त्यागने , स्वदेशी अपनाने और उपनिवेशवाद के आर्थिक पक्ष की बात थी।आपने न्याय देवता को सत्तापक्ष से मुक्त रखने की पुरजोर हिमायत की।(पांडेय मैनेजर, माधवराव सप्रे, प्रतिनिधि संकलन,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,नई दिल्ली,2009, पृष्ठ 45) । ऐसी निर्भीकता ही पत्रकारिता को जीवित रखती है,जो देश,शासन,उद्योगपतियों की गलत रीति नीति का खुलकर विरोध करती है।साथ ही सबाल्टर्न,वंचितों के पक्ष में आवाज उठाती है। सप्रे जी ने अप्रैल उन्नीस सौ सात में एक अन्य पत्र “हिंदी केसरी” निकालना प्रारम्भ किया। उद्देश्य था जन जागरण और स्वराज्य प्राप्ति में योगदान देना था।इसमें स्वाधीनता आंदोलन सबंधी खबरों के अतिरिक्त लोकमान्य तिलक के मराठी लेखों के हिंदी अनुवाद भी छपते थे,जिससे अधिक से अधिक लोगों तक उनके विचार पहुंचें। अगस्त उन्नीस सौ आठ को राजद्रोह के आरोप में संपादकों सप्रे और कोल्हटकर को गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसे पत्रकारिता को राष्ट्रहित की मशाल मानते थे सप्रे जी।
सप्रे जी द्वारा रचित कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी‘ भारतीय साहित्य में हिन्दी की पहली मौलिक कहानी मानी जाती है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनकी लेखनी ने कई सत्याग्रहियों का मार्गदर्शन किया और राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा दी। वे जीवन भर देश और साहित्य सेवा में लगे रहे।
आज आवश्यकता अपनी जड़ों और पत्रकारिता की नई, दूरंदेशी पढ़ाई,ईमानदारी,निर्भीकता से अपनी बात कहने वाले खरे पत्रकारों की। साथ ही पत्रकारिता को जन जन की आवाज बनकर,सरकार और कॉरपोरेट की आंखे खोलने वाली विसल ब्लोअर की भूमिका में आना होगा। ऊंचे आदर्श भले ही इस भूमण्डलीकरण की आंधी में सम्भव न हो परन्तु कम से कम हमारे लिखे,दिखाए समाचार और स्टोरी से लोकहित भी होना चाहिए। लोकहित में ही हमारा अपना हित भी निहित है।
उनके द्वारा स्थापित” छत्तीसगड़ मित्र ” आज भी गम्भीर अध्ययन,वैचारिक प्रतिबद्धता और प्रदेश की खुबियो और कमियों को उजागर करता है। साथ ही अपनी भाषा,लेखन से पढ़ने वालों में आज भी लोकप्रिय है। वर्तमान संपादक सुशील त्रिवेदी और प्रोफेसर सुधीर शर्मा लगन और निष्टा से इसे अंतरराष्ट्रीय पाठकों और लेखको तक पहुंचा रहे हैं। पत्रकारिता के उच्च मूल्यों,नवीनतम पाठ्यक्रम,जिसमें बालकृष्ण भट्ट,माधवराव सप्रे, द्विवेदी,गणेश शंकर विद्यार्थी,मौलाना हसरत मोहानी,मौलाना अबुल कलाम आजाद, बापुते, अरुण शौरी,प्रेमचंद आदि के ऊपर भी अध्याय हो,से युक्त ऐसा संस्थान होना चाहिए ।यह संस्थान देश भर में सुयोग्य और प्रतिबद्ध पत्रकारों की नई पीढ़ी तैयार करेगा।
हर काल खण्ड के अलग अलग मुखमंत्रियीं ने कहा और माना भी की छत्तीसगढ़ में सप्रे जी द्वारा रखी गई मजबूत नींव पर ही आज की पत्रकारिता समृद्ध हो रही है।
ऐसे मनीषी,विद्वान और प्रतिबद्ध पत्रकार,संपादक सप्रे जी को वसीम बरेलवी की यह पंक्तियाँ समर्पित हैं, “मंजिल समझ के बैठ गए जिनको चन्द लोग / मैं ऐसे रास्तो से गुजरता चला गया।”

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