मित्र सम्वाद : प्रेम,साहित्य, संघर्ष और युगबोध
मित्रता उच्चतर मानवीय मूल्यों में से एक है.सच्चा मित्र हमारे सुख-दुख का साथी और सहारा होता है.वह न केवल हमारे उपलब्धियों से अभिभूत होता है वरन हमारे कमजोरियों को भी उद्घाटित करता है और उससे उबरने में मदद करता है.मित्रता समानता के भावभूमि पर होता है;वहां कोई छोटा-बड़ा नहीं होता;वहां आत्मसम्मान होता है,अहंकार नहीं.यदि मित्रों के कर्मक्षेत्र, वैचारिक पृष्टभूमि में समानता हो तो उद्देश्यों में समानता की संभावना बढ़ जाती है और तदनुरूप मित्रता में प्रगाढ़ता भी.मित्रता की उपर्युक्त बातें डॉ रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल जी की मित्रता को देखते हुए सहज ज़ेहन में प्रकट होती हैं.’मित्र संवाद’ उनके मित्रता का जीवंत दस्तावेज है;जो आज के इस अवसरवादी दौर में जहां मित्रता परस्पर लेनदेन की संभावना पर बनती-टूटती है;दुर्लभ जान पड़ती है.
‘मित्र संवाद’ डॉ रामविलास शर्मा और केदारनाथ जी के एक-दूसरे को लिखे पत्रों का संग्रह है, जो 1991 में केदारनाथ जी के अस्सीवे जन्मदिवस पर प्रकाशित हुआ था. पत्र 1935 से 1991 तक छप्पन वर्षों के हैं;बीच- बीच के कुछ पत्र खो गए हैं मगर इतनी अधिक संख्या में, इतने वर्षों तक पत्रों को सुरक्षित रखना भी बड़ी उपलब्धि है. डॉ शर्मा और केदारनाथ जी दोनों का निधन सन 2000 में हुआ, इसलिए 1991 के बाद के भी कुछ पत्र अवश्य होंगे जिन्हें प्रकाशित किया जाना चाहिए.नामवर जी ने भी इस तरफ ध्यान दिलाया है(अब यह प्रकाशित हो गई हैं).पुस्तक का संपादन रामविलास जी और अशोक त्रिपाठी जी ने किया है; भूमिका डॉ शर्मा ने लिखी है.अशोक जी ने भी आखिर में ‘मित्र सम्वाद से गुजरते हुए’ अपनी प्रतिक्रिया लिखी है.पुस्तक प्रकाशित होने के बाद काफी चर्चित रही है.कई समीक्षाएं लिखी गई होंगी; मैं केवल दो समीक्षाओं को पढ़ पाया हूँ; शिव कुमार मिश्र जी और डॉ नामवर सिंह की.नामवर जी की समीक्षा सन 2000 की है; दोनों मित्रों के निधन के बाद की.जितनी अच्छी पुस्तक है उतनी ही अच्छी नामवर जी की समीक्षा भी.आश्चर्य होता है कि इस समीक्षा के साल भर बाद ही नामवर जी ‘इतिहास की शव साधना’ लिखते हैं!उन्होंने इस सम्वाद को “जनता के कवि और समालोचक का हृदय संवाद” कहा है. और भी “मित्र संवाद अंततः जीवन का गद्य है”.वे मानते है कि “रामविलास जी-केदार की दोस्ती की मिसाल हिन्दी के इतिहास में नहीं है”.वे रामविलास जी के सौंदर्य दृष्टि और विवेचन क्षमता से अभिभूत भी होते हैं; खासकर सूर के एक पद की व्याख्या के संदर्भ में. पद है – “अरुझी कुंडल लट, बेसरी सौं पीत पट, बनमाल बीच आनि उरझे हैं दोउ जन….आँचल लै-लै पोंछत है स्रमकन”. रामविलास जी ने सूर के इस पद को “रस निष्पत्ति की पराकाष्ठा” कहा और नामवर जी ने रामविलास जी के व्याख्या को “व्याख्या की पराकाष्ठा” कहा.इस पत्र संवाद में निराला शुरू से आखिरी तक हैं, रामविलास जी और केदार जी के मित्रता के निमित्त निराला ही थें. निराला के इस ‘केन्द्रीयता’ को देखते हुए नामवर जी ‘भारतेंदु -मंडल’ और ‘द्विवेदी-मंडल’ की तर्ज पर ‘निराला-मंडल’ की बात करते हैं जिसमे निराला से गहरे प्रभावित तत्कालीन लेखकों को शामिल करते हैं.
रामविलास जी अपने निराला सम्बन्धी लेखन के लिए विख्यात हैं; उनके लिए वे मित्र और गुरू दोनों थे.केदारनाथ जी भी शुरुआत से ही निराला के संपर्क में रहें और उनसे प्रभावित होते रहें;इसलिए ‘संवाद’ के पत्रों में निराला की चर्चा बराबर होती रही है, खासकर उनके स्वास्थ्य की चिंता,उनके आर्थिक जरूरत की पूर्ति के लिए व्यवस्था,सरकार की उपेक्षा, तत्कालीन साहित्य जगत में उनकी उपेक्षा पर कई पत्रों में चर्चा है. दोनों उनसे मिलने को लालायित रहते थे. केदारनाथ जी उनके निधन के ठीक पहले उन्हें देख आये थे, मगर रामविलास जी को अधिक अंतराल हो गया था. निराला जी के निधन होने पर रामविलास जी की प्रतिक्रिया “हाँ प्यारे, निराला जी अब नहीं रहे. न रोता हूँ, न हँसी आती है. कोलरिज के शब्दों में A grief without pang, void, dark and drear का अनुभव करता हूँ. बीच-बीच मे एक लंबी सांस ले लेता हूँ. बस. ……जिस निराला ने मेरी आँखों के सामने गीतिका के गीत, राम की शक्तिपूजा, तुलसीदास, कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा की रचना की थी, वह जीते जी ही मिट गया था.अंतिम बार जब मैंने देखा था तब कुछ घण्टों के लिये मानो वह निराला लौट आया था…..प्यारे, तुलसीदास के बाद अब ऐसी अमोघ प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में न आया था. ……. मुझे उनका साहचर्य प्राप्त हुआ, वह मेरे जीवन का सबसे बड़ा पुण्य था”.(20/10/61).कुछ समय बाद (17/1/62) लिखते हैं “दोस्तों के साथ अपने को भी देखता हूँ मानो वर्षों की पर्त उघड़ती जाती है और मैं अपने से, तुम से, निराला से फिर मिलता हूँ. मन पर उदासी नहीं छाती, न तो यह भाव जागता है कि फिर नव जवान हो जायँ(जवान तो अब भी हैं) और न यह भाव पैदा होता है कि हाय वे दिन बीत गए, फिर कभी न लौटेंगे. इसके विपरीत पुराने संघर्षों की झलक देखकर संतोष होता है कि वृथा नहीं जिये, भरसक भाषा और साहित्य के लिए काम किया.” इस पर नामवर जी की टिप्पणी उतनी ही सार्थक है “पत्र के इन शब्दों को पढ़ते हुए निराला के साथ-साथ पत्र लेखक की छवि भी सामने आती है और मन उदात्त की भूमि पर होता है”.निराला सम्बन्धी यह चर्चा ‘निराला की साहित्य साधना’ (1969) के प्रकाशन पर अपने चरम पर पहुँचती है. केदारनाथ जी लिखते हैं “तुम्हारी पुस्तक :निराला की साहित्य साधना: पीले शब्दों में छपी-रामविलास शर्मा की साधना:मिल गयी थी…..तब से अब मैं इसी पुस्तक से चिपका हुआ हूँ……मगर अब मेरी मनोदशा वही बनी हुई है जो मनोदशा Lear पढ़ने के समय होती थी. मैं गर्क हूँ इसके अंदर.यह मुझे बाहर नहीं आने देती. मेरा संपूर्ण व्यक्तित्व अपार मानव सहानुभूति से द्रवित है.मैं एक तरह से जड़ता खो चुका हूं.स्थल-स्थल पर करुणा से भर-भर कर रो पड़ा हूँ….. गद्य कविता से अधिक प्राणवान और जीवंत हो गया. वास्तव में गद्य गद्य नहीं रह गया. वह पूरे युग का, दिक और काल मे पुनः अवतरण हो गया है….यह पुस्तक तुम्हारे शरीर से पक गयी फसल की तरह निकल पड़ी है…..यह भी लगा कि तुम्हारी कलम।लिखते-लिखते उत्तरोत्तर उदात्त चली गयी है”.(5/3/69). जवाब में रामविलास जी लिखते हैं “हम तो निराला पर लिख रहे थे, अपने मित्र और गुरू पर, उनकी कमजोरियों को उजागर करते हुए, उन्हें मनुष्य के रूप में समझने का प्रयास करते हुए…..इतनी मेहनत हम दूसरी किताब ओर तो अब कर नहीं सकते, न इससे पहले किसी और किताब पर की है…….गृहस्थी के अनेक झंझट- कभी पत्नी अस्वस्थ, कभी बेटी के लिए वर की असफल तलाश. हमने मन से कहा-सबेरे-शाम आधा घण्टा चिंता कर लिया करो, उसके बाद बस निराला के साथ रहो”.
निराला का महत्व दोनों समझते हैं, मगर ऐसा नहीं की हर बात में सहमति हो. ‘राम की शक्तिपूजा’ के महत्ता को लेकर केदार जी रामविलास जी से असहमत रहते हैं, तुलना कीट्स के ‘हाईपीरियन’ से होती है और केदार जी उसे ‘राम की शक्तिपूजा’ से श्रेष्ठ मानते हैं.लिखते हैं “हाईपीरियन के आगे कुछ नहीं सुहाता. बड़ी गजब की कविता है. वाह रे कीट्स! हजारो वर्ष तक यह दकदकाती रहेगी.कभी भी मैली न पड़ेगी. राम की शक्तिपूजा कही नहीं ठहरती. यह अंतर्द्वंद्व और यह उसका निरूपण कमाल का है. निराला जी ‘तुलसीदास’ में कुछ टक्कर लेते हैं, मगर कल्पना के बल पर”.(11/4/58). इस पर रामविलास जी की प्रतिक्रिया देखिये- “सुसरे, राम की शक्तिपूजा के लिए लिखा है, हाईपीरियन के आगे कहीं नहीं ठहरती. तबियत होती है, बाँदा आकर तुम्हारे कान पकड़ कर दो तमाचे लगा दूं. चुगद. दुख की अभिव्यंजना दोनों में है, निराला में Tragic Sublimity है, Keats में विषाद से संघर्ष करने की निर्बल आकांक्षा मात्र” केदार जी आगे भी बहस करते हैं ,हाईपीरियन की चित्रमयता को रेखांकित करते हैं. निराला की कल्पना में कमी देखते हैं, शब्दों के ‘गर्जन-प्रहार’ से असहमत होते हैं मगर धीरे-धीरे ‘शक्तिपूजा’ की महत्ता को स्वीकार करते जाते हैं.
दोनों में कविता में मुक्तछंद के प्रयोग को लेकर भी बहस होती है. रामविलास जी आमतौर पर छंदबद्ध रचना को अधिक पसंद करते हैं, इसका कारण यह है कि यह श्रमशील जनता तक आसानी से पहुंचती है. केदारनाथ जी इससे असहमति प्रकट करते हैं “Free Verse में मैं पनपता हूँ. मुझे तुम्हारी सलाह तुकांत में लिखने की पसंद हैं पर ग्राह्य नहीं है. मैं उसे ग्रहण तो तब करूँ जब वह मुझे धोखा न दे. वह दगाबाज है. वह केदार को नहीं साहित्यिक मानव के पुरातन भावों को ही शब्दों के गर्भित अर्थ गौरव से प्रकट करना जानती है.मुझे Free Verse का माध्यम जानदार और जोरदार मिला है. यह पिटाघिसा नहीं है…..शर्मा मेरी राय मानो तो तुम मुझे तुकांत लिखने की सलाह न दो.मैं तुम्हारा केदार हूँ” (5/12/43).इस पर रामविलास जी जवाब देते हैं “तो फ्रीवर्स मेरी जान! तुम फ्रीवर्स लिखो. पिसनहारियों की तरह स्वर को घटा-बढ़ा कर लिखो…..मेरी राय एक दोस्त की राय है.उसे सुनो; झगड़ो.करो हमेशा वही जो जँचे. कलाकार की यही परख है…..तुकांत लिखने की सलाह का यह मतलब नहीं है कि अतुकांत लिखना छोड़ दो.तुकांत लिखने को क्यों कहा था? इसलिए नहीं की साहित्यिकों की आलोचना से “प्रगतिवाद” से, प्रभावित हो गया हूँ.वरन इसलिए कि तुम्हारी रचनाओं का “भदेसपन” भदेसी भाइयों की समझ मे तब ज्यादा आ सकता है जब उनके लिए सुगम छंदों की राह से उन तक पहुंचो”(8/12/43).
दिनकर जी की ‘उर्वशी’ को लेकर भी दोनों मित्रों में बहस होती है.रामविलास जी उसे महत्वपूर्ण कृति मानते हैं. यहां तक कि ‘पल्लव’, ‘कामायनी’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ के बाद का ‘टकसाली माल’ कहते हैं.केदार जी इससे प्रभावित नहीं होते; वे इसे प्रेम के नाम पर आडम्बर मानते हैं. उनको इसमे बड़बोलापन अधिक दिखता है “ऐसा लगता है दो दार्शनिक-दो वकील-दो बौझक-दो बकवासी-दो मंत्री-एक दूसरे से बाजी मार ले जाना चाहते हैं” (26/3/62)प्रसंगवश मुक्तिबोध भी ‘उर्वशी’ के इस पक्ष की आलोचना करते हैं उसे कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित मानते हैं.रामविलास जी आगे लिखते हैं “ज्ञान भौतिकता में है या उससे परे? Spirit और matter को Primary और Secondary कहने से उनका भेद मिट जाता है या बना रहता है. समस्या को पेश करना भी एक सफलता है”(14/4/62). केदार जी दिलचस्प जवाब देते हैं “अच्छी दिलचस्प गुफ्तगू है.दोनों एक-दूसरे को जानना चाहते हैं. पर न जानने में ही मजा लेते रहते हैं ….. प्रेम Sprit है.मैटर नहीं.वह मैटर को छू कर- उसमें जान फूंकता है”.(16/4/62). रामविलास जी इस बार जवाब नहीं देते, सिर्फ इतना ही कहते हैं कि “उर्वशी के बारे में तुमसे आकर ही बाते करूँगा”.(10/5/62)
केदारनाथ जी रामविलास जी को शुरुआत से अपनी लिखीं कविता और अंग्रेजी कवियों के अनुवाद उनके सलाह के लिए भेजते रहते थे.वे भी दो-टूक अपनी धारणा व्यक्त करते थे. कई बार तो वे बड़ी ‘निर्ममता’ से कविता का विश्लेषण करते थे; जैसे ‘ताजमहल’ कविता की है.केदार जी बहस करते,अपना पक्ष रखते मगर अनन्तः रामविलास जी सहमत हो जाते हैं. रामविलास जी योग्यता और दृष्टि पर उनकी गहरी आस्था झलकती है,वे उनको मित्र ही नहीं गुरू की तरह भी महसूसते हैं. बार-बार उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हैं और खुश होते हैं कि उनको उनका सानिध्य मिला.मित्रता ममत्व तक चली जाती है.डॉ शर्मा जब ‘महत्व केदार का’ कार्यक्रम के बाद बाँदा से लौटते हैं तब केदार जी लिखते हैं “उस दिन मैं स्टेशन नहीं जा सकता था.वहां पहुंचकर ट्रेन चलते समय फूट-फूट कर रो पड़ता. सम्हाल न पाता. घर मे भी बड़ी कड़ाई से रोके रहा और किवाड़ बंद करके लेट गया.क्या कहूँ.रात भर जागता रहा”(21/10/86).रामविलास जी भी केदार जी से गहरा प्रेम करते हैं और उन्हें अपना सच्चा दोस्त मानते हैं.यह भाव वे पत्र-संवाद के शुरुआत में ही व्यक्त करते हैं, और आगे भी “मुझे इस बात पर बड़ी प्रसन्नता है कि साहित्यिक जीवन के आरम्भ से ही तुमसे और अमृत नागर से मेरी दोस्ती बराबर बनी हुई है और संदेह, कटुता या ईर्ष्या-द्वेष की हल्की छाया भी इस मैत्री पर इस लंबी अवधि में एक बार भी नहीं पड़ी”.(17/1/62).केदार जी के कविताओं के जब वे नुक्ताचीनी करते हैं तो इसलिए कि वे उनसे बहुत अपेक्षा रखते हैं; उनको तुलसीदास-निराला की परंपरा को आगे ले जाने वालों में शामिल करते हैं. उनकी कविताओं में उनको मुख्य कमी कई बार जल्दबाजी, इमेज़ में ठहर न पाना,मूर्ति विधान में कमी,धैर्य की कमी,फार्म का अनगढ़पन,कविता छोटी होने से कविता के बीज होते हैं, विकसित कविता नहीं, आदि दिखाई देती है.ये बातें उनकी सभी कविताओं के लिए नहीं है; उनकी कई कविताओं का वे जमकर तारीफ भी करते हैं “तुम्हारी कविताओं में सबसे बड़ा गुन यह है कि वह लोक-कला के इतने नजदीक है कि उसका एक अंग सा बन गई हैं”(17/1/55).”तुम्हारी कविताओं में अब भी ताजगी है, अनूठापन है, उपमानों का चमत्कारी प्रभाव है, तीक्ष्ण और कोमल सम्वेदनाएँ हैं. लेकिन अपनी अनुभूति को बराबर refresh करते रहना जरूरी है और भाषा, imagery, छंद वगैरह पर और मेहनत करना जरूरी है”(9/1/56). “तुम्हारा इन्द्रियबोध तगड़ा है;वैसा ही दृढ़ भावबोध भी है किंतु इनके साथ विचार और चिंतन की वह गहराई नहीं है जो दांते, शेक्सपियर आदि उच्चतम कवियों में है.इसलिए तुम सहज कवि हो, दार्शनिक नहीं.आधुनिक हिंदी में-नयी पीढ़ी और दिनकर-बच्चन वाली पुरानी पीढ़ी दोनों में-तुम सर्वश्रेष्ठ कवि हो.इन्द्रियबोध के टक्कर की विचार-गरिमा हो तो तुम शेक्सपियर और दांते की तरह विश्ववंद्य हो जाओ”.(14/3/66). “छायावाद के बाद हिंदी कविता को विकसित करने का श्रेय प्रगतिशील कवियों को है जिनमे तुम्हारी भूमिका प्रमुख है.नयी कवितावादी इस तथ्य को मूंद-ढांक कर रखते हैं”.(8/11/68)
इन पत्रों से गुजरते, कविताओं पर बात करते रामविलास जी के कविता सम्बन्धी स्थापनाओं की झलक मिलती है.कविता में परिष्कृत इन्द्रियबोध,रूप, रस, गंध, स्पर्श को जगाने वाले शब्द, मूर्तिविधान, कविता के भागों में आंतरिक समन्वय,भाषा की सहजता,कविता में तस्वीर बननी चाहिए, सूक्ति नहीं,कविता के मर्म का शब्दों में छिपा होंना,आदि.नामवर जी के शब्दों में ” ‘मित्र संवाद’ के अंतर्गत कविता में शब्द-प्रयोगों के औचित्य-अनौचित्य पर जिस एकाग्रता से विचार किया गया है और उसके सामने अंग्रेजी की ‘नई आलोचना’ फीकी पड़ जाती है और प्राचीन संस्कृत काव्यशास्त्र के ‘काव्यप्रकाश’ जैसे ग्रन्थ और उस पर लिखी हुई टिकाएं याद आ जाती हैं”.
ऐसा नहीं कि इन पत्रों में केवल साहित्यिक चर्चाएं हैं; बल्कि निजी सुख-दुख, घर-परिवार की बातें भी हैं.बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से नौकरी, शादी-ब्याह,नातियों तक का जिक्र है.रामविलास जी ‘मालकिन'(पत्नी) के अस्वस्थ रहने के कारण अधिकांशतः साहित्यिक कार्यक्रमो में नहीं जा पाते थे, उनकी सेवा-सुश्रुवा को प्राथमिकता देते थे.केदार जी का पत्नी के प्रति प्रेम चर्चित ही है जो उनकी कविताओं में भी दिखती है.दोनों मित्रो के पत्नियों के निधन का मार्मिक प्रसंग भी यहाँ उपस्थित है.मालकिन के निधन पर केदार जी द्वारा रोने के बारे में पूछने पर रामविलास जी का जवाब “तुमने रोने के बारे में पूछा है.दूसरों को ढांढस बंधाने के बाद जब फुरसत मिलेगी, तब इसके बारे में सोचूंगा”(5/9/83). केदार जी अपनी पत्नी के निधन पर रामविलास जी को लिखते हैं “प्रिय प्रियवन्द पार्वती तो प्रेमयोगिनी थीं. उनकी मूर्ति बराबर सामने आती है.वह मरी नहीं. उनका चेतन रूप मेरे दिल मे है.काव्य बन गई है”(4/3/86).पत्रों में खुशी के क्षण भी हैं, नोक-झोंक, चुहलबाजी,छेड़-छाड़ भी जगह-जगह है; रामविलास जी लिखते हैं “तुम्हारे गालों की सुर्खी और उस पर बालों की सफेदी खूब है…..क्या रात को चिराग जल्दी ही गुल हो जाता है?”(22/4/46), “ठोकने-पीटने लायक तुम नहीं हो.जो कुछ कहूंगा मुहब्बत से.’चोली चीर’ वाली बात याद है न?(27/10/47), “श्रीमती जी दिल्ली में सत्कार लाभ कर रही है.एक हफ्ता हो गया-हम समझते थे, हमारे बिना उनको दो दिन जी न लगेगा-सो न पत्री भेजी न बहुरने का नाम लिया. खैर, हम भी उनके गम में हलवा खा रहे हैं.”(14/4/62) . “इच्छा होती है Love at 60 पर एक गद्य पुस्तक लिख डालूँ”.(12/5/72).”ऐसी-तैसी साले बुढ़ापे की”.(15/9/72).केदार जी “चप्पलें प्रियतमा की हों तो वह उनकी ऐन इनायत की बदौलत मिलती है.सौभाग्य है उनका जो प्रेम फंदे में पड़कर पेटिकोट धोते हैं”(4/5/64).
पत्रों में रामविलास जी के लेखन योजना, उनकी चिंताओं ,उस दौर के साहित्यिक-राजनीतिक परिवेश,आदि कई बातों की जानकारी मिलती है.केदार जी वकालत पेशा से जुड़े होने के कारण अक्सर साहित्य के लिए यथेष्ठ समयाभाव का जिक्र करते हैं.रामविलास जी ने भूमिका में भी और पत्रों में जगह-जगह केदार जी के गद्य की प्रशंसा की है.कहीं-कहीं उसे उनकी कविता से भी बेहतर कहा है.यहां तक कि “केदार अपने पत्रों में जिस तरह का गद्य लिखते हैं, उस तरह का गद्य हिंदी में और किसी ने नहीं लिखा”.गद्य की सुंदरता रामविलास जी के पत्रों ने भी है, जिसे नामवर जी ने उचित ही लक्षित किया है.
इस तरह यह पत्र संवाद दोनों मित्रों के प्रेम, संघर्ष, सुख-दुख के अलावा अपने समय के द्वंद्व को भी उजागर करता है;युवा रचनाकारों के लिए इसमे सीखने को बहुत कुछ है;खासकर कविता की समझ के लिए. यह भी कि दुनियादारी की दायित्वों को निभाते हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है;जरूरत इनकी तरह लगन, समर्पण, प्रतिबद्धता और ईमानदारी की.इस पत्र सम्वाद में ऐसी कई पंक्तियां है, जो सार्थक हैं.
”तुलसीदास के सामने-समाज का वही ढाँचा था जो शास्त्रों में लिखा हुआ था लेकिन उनकी सह्रदयता बार बार उससे बगावत करती थी.इस असंगति को पकड़ना आलोचक का काम है (डॉ शर्मा,27/10/47)
”उमंगे जमुनजल, प्रफुलित कुंज-पुंज,
गरजत कारे-भारे जूथ जलधर के.
सौ बार माथा टेको इस पंक्ति के सामने.यहीं तो ब्रजवासी तुलसी से आगे बढ़ गया है”(डॉ शर्मा 22/8/56)
”कालिदास में सुरतवाद बहुत है, वर्ना वह आदमी था काम का.सोंधी मिट्टी उसे बहुत पसंद है.अप्सराओं की लड़कियां ही उसकी प्रेमिकाएँ हैं या उन्ही में से एक रही होगी.अपने सीमित क्षेत्र में कला की जो पूर्णता उसमे है, वह किसी मे नहीं.परिष्कृत इन्द्रियबोध में सब उसके सामने पानी भरते हैं”(डॉ शर्मा 28/9/56)
”कवियों को थोड़ा विज्ञान अवश्य पढ़ना चाहिए.इससे उनका दृष्टिकोण निखरेगा और विशद भी होगा”(डॉ शर्मा13/3/57)
”कविता लंबी भी जमती है और बिना निराला के कंठ स्वर के भी.असल मे बहुत गठी हुई कविता को तुरत ग्रहण करना कठिन होता है.इसलिए तुरन्त दाद देने वालों से मुझे डर लगता है”(डॉ शर्मा16/5/57)
”नयी कविता की समस्या दूसरे को स्पर्श न कर सकने की मूल समस्या है”(केदार जी24/2/59)
”मेरी बड़ी बिटिया जब बहुत पहले यहां बीमार थी तब मैं रात-दिन सेवा में लगा रहता था. सबके सामने नही छिप कर चुम लेता था.वह इससे कि दूसरे स्नेह को नज़र लगा देते हैं”(केदार जी 10/7/61)
”आजकल हम निराला के उस अद्वैत पर लिख रहे हैं जिसमे ब्रम्ह नहीं है,केवल शक्ति है और उसकी अव्यक्त अवस्था अनादि अंधकार है कौन तम के पार- रे कह?”(डॉ शर्मा 4/10/70)
”यह कैसे हो सकता था कि निराला पर किताब लिखने के लिए मुझे सम्मान मिले और मैं उस अवसर पर भाषण अंग्रेजी में करूँ”(डॉ शर्मा 17/3/71)
”मार्क्स के अनुयायी होने का मतलब उनके सूत्रों को दोहराना नहीं है”(डॉ शर्मा 31/3/76)
”अच्छी कविता अपना मर्म शब्दों के भीतर छिपाये रहती है और उस तक लोग धीरे-धीरे पहुंचते हैं.Never seak to tell thy love, Love that never told can be”(डॉ शर्मा 3/11/82)
”रहस्यवादी कवि भले आदमी थे पर वे आनन्द विभोर तभी तक रह सकते थे जब तक उन पर घन चोट न पड़े.भवभूति-निराला-शेक्सपियर-ये सब घनचोट के कवि हैं(डॉ शर्मा 12/3/85)
”प्रकृति ने मनुष्य जीवन की सीमाएं निर्धारित कर दी हैं. इन सीमाओं पर मनुष्य विजय पाता है कविता में”.(डॉ शर्मा 18/9/85)
”वैदिक कवियों के लिए जो महत्व सरस्वती का था, वही या उससे मिलता जुलता महत्व तुम्हारे लिए केन का है”(डॉ शर्मा 1/3/89)
”केवल भवभूति को पढ़ने के लिए मनुष्य को संस्कृत जानना चाहिए” (डॉ शर्मा 21/8/70)
“मौत से आदमी की कभी न खत्म होने वाली लड़ाई का नतीजा है कला”(डॉ शर्मा 15/5/77)
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[2018]
●अजय चन्द्रवंशी
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