मनीषा भारद्वाज की चार कविताएं
कभी हँस के तो कभी रो के
गम छुपाते रहे लोगों से मिल के
न डरपोक थे न ही कायर थे बस
अपनों के लिए सब कुछ खोते रहे
खुशनसीब है वो जिन्हें अपनी मंज़िल मिली
हम अपनी ही जिंदा लाश को ढोते रहे
किस्मत बदलेगी सोच के मेहनत करते रहे
और तकदीर बनाने में दिन रात जगते रहे
लोग कहाँ से कहाँ निकल गए और
हम चैन व सुकून के लिए अपनों के पास ठहर गए
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ज़िन्दगी जब भी रुलाने लगी
हम और ज्यादा मुस्कुराने लगे
ज़िन्दगी जब भी सताने लगी
उसके सितम सर आँखों पर रखने लगे
ज़िन्दगी और मुझमें जंग बरसो की है
उसके फैसले मेरे हौसले से दंग होने लगे
चलो छोड़ते हैं सितम और जख्म की गिनती
थोड़ा अब दोनों का रिश्ता सुधारने लगे
एक दिन ऐसा आएगा जब तुम थक जाओगी
और राहों में काटें की जगह फूल बारसाओगी
तब थाम के तेरा दामन तुझे अपना बना लेंगे
और चाँद तारों से तुझे सजा के रखेंगे
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अगर ना रही इस दुनियां में
तो पढ़ लेना मेरे गीतों को
बन कर लफ्ज मैं
तुम्हारे होठों में मिलूंगी
यहाँ वहाँ जब ढूंढोगे तो
मैं तुम्हें फ़ैली हवा में मिलूंगी
जब कभी याद करोगे बातें मेरी
उदासी भरे चेहरे में हँसी बनकर मिलूंगी
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चाहत का कोई हिसाब नहीं
ये दिल है कोई किताब नहीं
कितने ही नासमझे है वो
दिल का हाल पता ही नहीं
नादानी है इस दिल की
जो तुममें खुद को खो देता है
आज भी बीते पल याद कर
ये दिल अकेले में रो देता है