November 24, 2024

_ लक्ष्मीकांत मुकुल

सुबह की चंचल किरणें छू रही हैं गंगा के बहाव को
उसके आभा से चमकते हैं बनारस के ऊँचे घाट,
उत्तरोत्तर सीढ़ियाँ, मार्निंग वॉक करते लोग
दमकते हैं उस पार के बलुआ रेत
श्मशान की दहकती लाशों की चिरांध में धुल जाती हैं
कलरव करते जल पंछियों की चहचहाहट

नाविक नदी की शांत देह को त्याग
ले जा रहा है नौका दरिया की मुख्य धारा में
मजधार में विचरती है नाव मस्तानी
जैसे किसी कोमलांगी के अनछुवे मौलिक पहलुओं को
स्पर्श कर रही हों शोख़ जलधाराएँ
और वह चिहुक रही हो हवा के तरंगों के साथ
उछलती कूदती तारिणी तरूणी-सी
जल के धरातल से नाव का उठना, गिरना झूले-सा आनंद दे रहा है हमें
कितना अनूठा उदात्त प्रेम के प्रकटीकरण का
आभास हो रहा है यहाँ
मानों पृथ्वी के पहले मानुस हों हम ही
हमारे लिए ही बनी हो अभी यह धरती,
आकाश, नदी, नाव, किनारा सब कुछ
नया-नया-सा जीवन,
प्रेम, खुशियां, मिलन, छुवन…

चप्पू चलाता माँझी गुनगुनाता है कोई गीत
जैसे पहली बार नाव खेने गया उसका आदिम पुरखा छेड़ा होगा कोई आद्य राग
नदी, नाव, पतवार, धार-मजधार, प्रेम,मिलन
बिछुड़न के दर्दीले स्वर
गूँज रहे होंगे उसकी ध्वनियों में, जिसमें तप रही होगी
तुफानों, लहरों, आंधियों से जूझते नाव को
बचा लेने की तड़प
मचलती होगी उसके अंतस में और थिरक
गये होंगे उसके होंठ

‘नदी नाव संयोग’ का आनंद उठाते हम नाव सहयात्री
थिरक रहे थे देखते हुए सुबह की उजास में
दमकते हुए बनारसी घाटों-मंदिरों के रंग-बिरंगे चित्र
सुनते हुए तेज बहाव को नाव के चीरने से
उठती जल ध्वनियाँ
गुनगुनाते हुए मछुआरों के गीत,
जो गाते हैं मछलियाँ मारने जाते हुए
दशाश्वमेध घाट पर दिखती
जीवन के नश्वरता के विरुद्ध !

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