November 22, 2024

घिस रहा है धान का कटोरा : लोक चेतना और सम्वेदना की कविताएं

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मनुष्य का अपने परिवेश से सहज लगाव होता है। उसकी संस्कृति ,इतिहास ,स्मृतियां उसे प्रभावित करती हैं, और इस कारण उसे जानने ,उसे याद करने की उसमे सहजवृत्ति होती है। एक हद तक उसके गुजर जाने और फिर से लौटकर न आने की पीड़ा भी होती है। अतीत व्यक्ति के लिए सामान्यतः मोहक होता है और इस कारण कई बार वह नास्टेल्जिया का शिकार भी हो जाता है।

लेकिन अतीतजीवी होना एक बात है, उसे याद करना, उससे प्रेरणा लेना दूसरी बात।परिवर्तनशील समाज में बहुत कुछ बदलते रहना स्वाभाविक है,मगर सारे परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होते रहे हैं, ऐसा नही कहा जा सकता।
आज विकास का जो रूप हमारे सामने है उसमे प्रकृति का विनाश चिंताजनक है। आज जल, जंगल, ज़मीन का जिस तरह क्षय होता जा रहा है उससे भविष्य के भयावहता का अंदाज़ लगाया जा सकता है।

संस्कृति का सम्बंध प्रकृति और परिवेश के भूगोल घनिष्ठ रूप से होता है। इनमे बदलाव से संस्कृति का स्वरूप भी बदलता जाता है और बहुत बाद उसका कोई पहलू नष्ट(विलुप्त) भी हो जाता है।ज़ाहिर है यह सहज बदलाव से भिन्न होता है इस कारण समाज मे इसका प्रभाव सहज रूप से नहीं होता।

कवि मन संवेदनशील होता है,इसलिए वह जहां परिवेश के बदलावों,विडम्बनाओं,त्रासदियों के प्रति मुखर होता है वहीं ये सामान्यतः उसकी कविताओं में दर्ज भी होते जाते हैं।

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। उनके कविता संग्रह ‘घिस रहा है धान का कटोरा’ की कविताएं लोकजीवन और संस्कृति से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई हैं।जितना उन्हें लोकजीवन से प्रेम है उतना ही उसके बिखराव पर दुख भी। वे बार-बार भूले-बिसरे उन दिनों को याद करते हैं चाहे वे ‘छोटे लाइन की छुक-छुक गाड़ी’ हो जिसे “अब शायद ही याद करता है कोई”, कुलधरा के बीच का अपना घर “कभी आबाद हुआ करते थे वे खंडहर/उनके चूल्हे के घुएं छेंक लेते थे आकाश”,या फिर “छुटपन के साथी पांच-दस पैसे के सिक्के”।

कभी दशहरा में लोग नीलकंठ के दर्शन करते थे अब “दबोच ले गयी है उसे भी विकास की आंधी ने”। चिड़ियों के होने से प्रकृति सुंदर होती है मगर इधर “वैज्ञानिकों की तरह नए अविष्कार/चिड़ियों की जघन्य हत्या करने के/कारगर उपकरण” ढूंढ लिए गए हैं।

बदलाव की बयार इस तरह बह रही है कि बसंत भी ठिठक गया है “व्याकुल है बसंत/बदल रही है ऋतुओं की समय तालिका/समय पूर्व केंचुल छोड़ने को/विवश हो रही है पृथ्वी”

लोक जीवन से जुड़ी व्यवस्थाएं खत्म ही रही हैं।कभी गड़ेरियों के कंबल खरीदने लोग दूर-दूर से आते थे।
“अब कोई नहीं पूछता इनके उत्पादों को/सुदूर गांव तक पहुँचने लगी हैं परदेशी वस्तुएँ”।

नदियां सुख रही हैं।जलधारा कैद हो रहे हैं।मछलियों को पानी मे ज़हर डालकर सामूहिक रूप से मारा जा रहा है।
“हमारी मिट्टी में जन्मी दुधारू पशुओं को/ ले जा रहा है बूचड़खाने में/बदले में लौटते हूए/फ्रीजियन जर्सी नस्ल की गायें”।इस बदले समय मे धान का कटोरा भी घिस रहा है।
“क्या बदलेगी कभी/धान के कटोरे की तकदीर?”

ऐसा नहीं कि इन कविताओं में केवल लोक संस्कृति के विघटन की पीड़ा है।कवि दृष्टि वर्तमान से ओझल नहीं है और समकालीन समस्याओं की तरफ़ उनकी निगाह जाती है।बिहारी मजदूरों के बहाने प्रवासी मजदूरों की पीड़ा

“दुखों के पहाड़ लादे सिर पर/चले जाते हैं ये बिहारी/सूरत,पंजाब,दिल्ली, कहाँ-कहाँ नहीं/हड्डियां तोड़ती कड़ी मेहनत के बीच……….बबूल की पेड़ो पर छाये बरोह की तरह/गुजरते हैं वे अपना जीवन”

पंचायत चुनाव में गाँव की स्थिति

“जो बेचते नहीं अपना वोट सौदागरों को/नरमेधों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है उन पर/उनके खेत रखे जाते हैं बिन पटे/उनके खेत रखे जाते हैं बिन पटे”

दिल्ली में किसानों की ऐतिहासिक हड़ताल पर

“कौन है वह शातिर चेहरा/जो छीन रहा है/जनता से कृषि योग्य भूमि का अधिकार/सेज,हाइवे,बांधो,रेलखंडों के नाम/कौन बुला रहा है विदेशी कम्पनियों को/कार्पोरेट खेती कराने”

बाजारवादी शक्तियां अपने उत्पाद बेचने किसी भी स्तर पर जा सकती हैं। एक तरीका देशी उत्पादों को गुणवत्ताहीन, संक्रमित,खराब होने की दुष्प्रचार का भी होता है

“यह कौन सी साजिश है/ कि किसानों की उत्पादित लीची को/फेंकवाया जा रहा है गड्ढे में/और डिब्बाबंद लीचियाँ को दिया जा रहा है बढ़ावा”

युवावर्ग में असीम ऊर्जा होती है मगर उसे सार्थक दिशा की आवश्यकता पड़ती है। इधर किशारों के कुछ समूहों में अराजकता इस कदर बड़ी है कि

“जैसे ही मैंने कहना चाहा/कि नाबालिक बच्चों को/नहीं चलानी चाहिए बाइक/शौक वश चला भी रहे हों तो/सिर पर रख लेना हैलमेट/सुनते ही नौछटीहों के भीड़ की आँखे/घूरती हैं मुझे/उनकी नज़रों से दहक रही क्रूरता की लपटें/बौखलाए कुत्तों-से घेर लेते हैं/मुझे झुंड के झुंड अचानक”

कोरोना काल मानवता के लिए बड़ी त्रासदी थी।बीमारी में लाखों लोग काल-कलवित हो गए। वहीं सरकारों की अव्यवस्था और विवेकहीन निर्णय से भी लोगों खासकर मजदूर वर्ग को भयावह कष्टों का सामना करना पड़ा। दूर के मजदूर घर अपना आना चाहते थे मगर

“यातायात के विकास की बातें बेमानी थी/उन पदयात्रियों के लिए, उन्हें पार करने थे/हजार मील के ककड़ीले पथरीले रास्ते/कोई आश्रयदाता नहीं था उनका,/जिसके लिए खटकर बहाते थे खून-पसीना/कोई जगमगाता प्रकाश/नहीं दिखा रहा था उनकी राहें,/न कोई दैवी चमत्कार ही/साथ देने वाला था उनका”

इधर सरकारों ने अधिकांश पदों की भर्ती का एक वैकल्पिक रास्ता निकाला है,जो पूर्णतः भेदभाव पर आधारित है यह ‘समान काम के लिए समान वेतन’ की अवधारणा के विपरीत है। ‘नियोजित शिक्षक’ भी इसी तरह का एक पद है

“शिक्षा माफिया मूंगफलियां चबाते हुए/इनके ऊपर फेंकते हैं छिलकों के ढेर/अधिकारी मुँह बिचकाते देखते हैं इनकी ओर/जैसे उनके पाँव औचक पड़ गए हों ‘खंखार’ पर/वक्र दृष्टि से देखते हैं इनकी ओर/खींच लेने को/इनके फड़फड़ाते पंख,निचोड़ लेने को/इनका सारा जीवन द्रव्य”

समय आज इस तरह है कि

“न्याय की गुहार लगाने वाले को आतंकवादी/विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को/अर्बन नक्सली/रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को/देशद्रोही/संविधान की दुहाई देने वालों को/विदेशी घुसपैठिए/सही आजादी की मांग करने वालों को/देश का गद्दार” कहा जाता है

बच्चे,बच्चे होते हैं उनके बचपना को बचाये रखना चाहिए,इस उम्र में उन्हें माँ-बाप के संरक्षण की आवश्यकता होती है।कवि की संवेदना ‘रामलीला के पात्र बने बच्चे’ को देखकर मचल उठता है

“नियम कानून की पोथियों की धज्जियां उड़ाते/कौन खींच लाया है/इन अबोध बालकों को/पुरायुगीन नायक पात्रों का/अभिनय करने के लिए राधा-कृष्ण बने बच्चों को/दिला सकते हो तुम कभी/न्याय की दिलासा”

‘सूचनाधिकार कानून’ की हक़ीक़त यह है

“एक चोर कैसे बता सकता है सेंधमारी के भेद/हत्यारा कैसे दे सकता है सूचना”

संग्रह में द्वंद्व ,तनाव,प्रतिरोध की कविताएं हैं तो प्रेम,सौंदर्य और मानवता भी है।प्रेम में प्रिय की हर बातें अच्छी लगती हैं

“जब तुमने कहा कि/तुम्हे तैरना पसंद है/मुझे अच्छी लगने लगी नदी की धार”

विगत प्रेम की स्मृतियां

“जब भी लौटता हूँ पुराने शहर की उस गली में/यादों के कुहासे चीरती उभरती है वह मुलाकात”

प्रेम में प्रकृति से एकरूपता का चित्रण ‘हरेक रंगों में दिखती हो तुम’ कविता में बहुत अच्छे ढंग से हुआ है

“मदार के उजले फूलों की तरह/तुम आयी हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में/तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता/सूंघता रहता हूँ तुम्हारी त्वचा से उठती गंध/ तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता/ तुम्हारी पनीली आँखों में छाया पोखरे का फैलाव तुम्हारी आवाज की गूंज से चूते हैं मेरे अंदर के महुए/ जब बहती है अप्रैल की सुबह में धीमी हवा/ डुलती है चांदनी की हरी पत्तियाँ/अपने धवल फूलों के साथ/मचलता हूँ कि घड़ी दो घड़ी के लिए भी/बनी रहे हमारी सन्निकटता।”

माता-पिता के प्रेम,प्रेरणा,लोकजीवन में धार्मिक सहभाव, फिर इधर धार्मिक स्थलों में बढ़ रहे कट्टरता से लेकर विविध रंग की कविताएं संग्रह में हैं।चूंकि कवि इतिहास के अध्येता हैं,उसका भी रंग स्मृतिपर कविताओं में है।एक खंडहर सामान्य व्यक्ति के लिए उपेक्षित होता है, मगर एक इतिहास प्रेमी के वह रोमांचक होता है,इसकी बानगी भी संग्रह में देखी जा सकती है।

कवि के कहन का ढंग बातचीत की शैली में सहज है।लोकजीवन के चित्रण के कारण उसकी शब्दावली भी सहज ढंग से आ गयी हैं, जो जाहिर है अपने भूगोल से सम्बद्ध भी है,मगर ये इतने सहज और सीमित हैं किसी क्षेत्र के पाठक को कठिनाई नहीं होगी।

बहरहाल लोकजीवन के चित्रण, अपने समय की विडम्बनाओं से मुठभेड़, संवेदनशीलता और जनपक्षधरता के लिए इस संग्रह को पढ़ा जाना चाहिए, ऐसा हमारा विचार है।

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कृति-घिस रहा है धान का कटोरा(कविता संग्रह)
कवि- लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशक-सृजनलोक,नई दिल्ली
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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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