प्रेम रंग
रसिक रचित रचना है प्रेम,
या भ्रमित भावना कल्पना है प्रेम।
उगता है प्रेम, खेतों खलिहानों में भी,
और पकता है प्रेम, रोटीहानों में भी।
मां, भार्या या प्रिया,
प्रेम से प्रेम ,इन सब ने किया।
सूर्य प्रेम रंग दिखते हैं नभ में,
जगाती है वर्षा प्रेम बीज, धरती के गर्भ में।
शिव का प्रेम शमशानों में रमता है,
वृंदावन का कण – कण ,राधा की प्रेम ध्वनि सुनता है।
ऊपर उठकर, नीचे झुकना, वृक्षों का धरा प्रेम बताता है, सागर नदी को खुद में समाकर अपना प्रेम निभाता है।
मिट्टी के आंगन में जब, प्रेम रंगोली बन उभरता है,
तब घर का हर कोना-कोना सवरता है।
बस बाजारों में नहीं बिकता सजता, यह प्रेम,
बनता ,बिगड़ता, उगता, सिकता और खिलता है यह प्रेम।
©️ माधवी निबंधे