व्यवस्था के अंधेरे पक्ष का निर्मम अनावरण है डा. बलदेव की कविता ” अंधेरे में”
81 वीं जयंती के अवसर पर __________________________________
* डा. बलदेव होने का अर्थ *
(27 मई 1942 – 06 अक्टूबर 2018)
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व्यवस्था के अंधेरे पक्ष का निर्मम अनावरण
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है डा. बलदेव की कविता ” अंधेरे में”
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@,डा. देवधर महंत
हिंदी साहित्य में “अंधेरे में ” शीर्षक से दो कविताएं महत्वपूर्ण हैं । एक मुक्तिबोध की दूसरी डा. बलदेव की । मुक्तिबोध की कालजयी प्रलंब कविता “अंधेरे में ” उनकी कविताओं के संचयन “चांद का मुंह टेढा है ” में संकलित है । इस रचना में स्वातंत्र्य के
पूर्व और स्वतंत्रता के पश्चात की भयावह और विकट स्थिति – परिस्थितियों के यथार्थ को चित्रित किया गया है। इस कविता में यह प्रदर्शित किया गया है कि स्वातंत्र्य समर के जिन दुर्धर्ष योद्धाओं ,हुतात्माओं ने मातृभूमि की बलिवेदी पर हंसते – हंसते अपने प्राणों की आहुति दी ,वे विस्मृति के घटाटोप अंधेरे में खो गए , यहां तक कि लाखों अनाम शहीदों की पहचान तक नहीं हो पाई है , उनका सूचीकरण तक नहीं हो पाया है और इसके ठीक विपरीत नितांत स्वार्थी , लोभी , सुविधाभोगी ,अवसरवादी ,कुटिल मुखौटे प्रकाश में आ गए । अंधेरा घोर अव्यवस्था का
जीवंत प्रतीक है । इस कविता में व्यवस्था की विसंगतियों और विद्रूपताओं तथा विकृतियों की वीभत्सता को गहनता और सघनता के साथ अभिव्यक्त करने का उपक्रम परिलक्षित होता है।
दूसरी “अंधेरे में “कविता डा. बलदेव रचित है । जो उनके काव्य संग्रह ” वृक्ष में तब्दील हो गई औरत” में समाविष्ट है। इस विवेच्य कविता में बिंबधर्मिता , प्रतीक योजना की अद्वितीय और अनूठी उपस्थिति है। इस रचना में अन्योक्ति का विकट और रहस्यमय रूपक श्लेषित है ।इसमें फैंटसी भी है , कठोर यथार्थ भी है और गहरी भावुकता की समाविष्टि भी है । राजनीति ,सत्ता ,लोकतंत्र की जटिल अव्यवस्था के कुरूप चेहरे को फ्रायड की मनोवैज्ञानिकता के औजारों के प्रयोगों द्वारा निर्ममतापूर्वक बेनकाब किया गया है । आज सत्ता लोलुपता वासना का पर्याय हो गई है । सत्ता लब्धि के लिए तमाम षड्यंत्र बुने जा रहे हैं। सत्ता आज जन सेवा न होकर मेवा अर्थात् वैभव प्राप्ति का माध्यम हो गई है। समाज भी इस विडंबना के लिए कम दोषी नहीं है। संप्रति समाज में विद्वानों, साहित्यकारों, कलाकारों तथा समाजसेवियों का स्थान गौण हो गया है । राजनीति के महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान और विद्यमान चेहरों का सम्मान किया जा रहा है । उनकी अगवानी की जा रही है ,उनकी जय-जयकार हो रही है । उनकी तारीफों के कसीदे गढे जा रहे हैं । चारणों -,भाटों की नयी जमात पैदा हो गई है । राजनीति एक बेहद लाभप्रद धंधे में बदल गई है । वस्तुत: येन केन प्रकारेण अर्थात् साम, दाम, दंड, भेद के सहारे सत्ता पर काबिज होनेवाले सत्ता सुन्दरी का उपभोग करनेवाले सत्ताभोगी आज के पेशेवर, धुरंधर राजनीतिबाज ही कामातुर पशु हैं और शहर लोकतंत्र का प्रतीक है । ऐसे कुटिल राजनीति के शकुनियों ,काम मोहितों को ही डा.बलदेव ने पशु संबोधित किया है।सत्ता की अनंत -असीम पिपासा इस लोकतंत्र को कहाँ और किस स्तर तक ले जायेगी या कहा जाए कि कुर्सी की भूख लोकतंत्र को किस सीमा तक अधोपतित करेगी , कहा नहीं जा सकता । यह कल्पनातीत है ।सत्ता की काम वासना अनंत है। सत्ता संतुष्टि की कोई परिधि ही नहीं है । लोकतंत्र में नवीन किस्म का राजतंत्र पनप गया है । राजनीति जन जीवन पर हाबी हो गई है। यही कारण है कि समाज में आज भ्रष्टाचार – अनाचार का जानलेवा कैंसर व्याप्त हो गया है । भाई भतीजावाद पसर गया है । सर्वत्र जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
आज राजनीतिबाज कामांध हो गए हैं । कुर्सी के प्रति उनकी आसक्ति सर्वोपरि है। जनता भोग्या हो गई । महाभारत की द्रौपदी की तरह उसकी अस्मिता के शीलहरण का खेल जारी है ।
लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए अब्राहम लिंकन ने कहा है , लोकतंत्र जनता का , जनता के द्वारा , जनता के लिए शासन है । लोकतंत्र में चुनाव ही सत्ता प्राप्ति का राजमार्ग है । चुनाव की वैतरिणी पार करने के लिए मतदाताओं को मांस ,मदिरा ,मुद्रा और इतर सामग्रियों की सहायता से प्रलोभित – सम्मोहित किया जाता है। मदिरा की मानों नदिया बहती हैं । आदमी व्होट में तब्दील हो गया है । सत्ता की राजनीति मादा पशु की तरह लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है । सत्ता की मादक गंध सत्ता लोलुपों को मदहोश कर देती है ।मदांध बना देती है। आज की राजनीति तिलस्मी है , मायावी भी है। सत्ता प्राप्ति का स्त्रोत चुनाव है । चुनाव में वही सफल होता है ,जो चुनावी प्रबंधन में जितना कुशल होता है । आज चुनाव में दलीय प्रणाली प्रचलित है। किसी महत्वपूर्ण दल का टिकट पाना भी दुष्कर कार्य है । टिकट पा जाने पर प्रत्याशी की वित्तीय स्थिति , उसके प्रचारकों,अनुचरों,कार्यकर्ताओं की संख्या चुनाव जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। लोकतंत्र में भेड़ चाल भी दिखती है । सामयिक लहर में जनता प्रभावित हो जाती है।जार्ज बर्नार्ड शा ने ठीक ही कहा है ” यदि मतदाता मूर्ख हैं ,तो उनके प्रतिनिधि धूर्त होंगे।”
लोकतंत्र के चार स्तंभ है। विधायिका,
कार्यपालिका, न्यायपालिका और पत्रकारिता।
न्याय की देवी की आंखों में पट्टी बंधी हुई है । चतुर्थ स्तंभ ढहता नजर आ रहा है। सर्वत्र गोदी मीडिया का बोलबाला है । आज बिकने और बिछने की होड़ मची हुई है, चिंतक , विचारक , पत्रकार , साहित्यकार जनता की अस्मिता के चीरहरण को चुपचाप देख रहे हैं। नपुंसक की भांति कुछ नहीं कर पा रहे हैं । सचमुच आज लोकतंत्र क्षत – विक्षत हो रहा है ।
इन्हीं तिमिराच्छन्न विकट भयावह स्थिति- परिस्थितियों को कवि द्वारा अपनी कविता “अंधेरे में “में बिंबधर्मिता और प्रतीक योजना के माध्यम से सारगर्भित रूप में रहस्यमय ढंग से उतारा गया है । डा.बलदेव की “अंधेरे में” कविता कलेवर में सधी हुई और कसी हुई है ,शब्द स्फीति का अभाव है , केदार- नाथ सिंह की रचनाधर्मिता की तरह अनावश्यक शब्दों का प्रयोग अदृश्य है।
“अंधेरे में ” कविता का शिल्प अनूठा है ,
कविता के धर्म और मर्म की दृष्टि से भी कविता के सृजन में उत्कृष्टता द्रष्टव्य है।
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“कविता एक नन्हीं गौरैया है ,जिसकी चोंच में सारा आकाश है ”
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81 वीं जयंती “कविता एक नन्हीं गौरैया है ,जिसकी चोंच में सारा आकाश है ”
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81 वीं जयंती के अवसर पर __________________________________
# डा. बलदेव होने का अर्थ #
(27 मई 1942 – 06 अक्टूबर 2018)
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@ डा. देवधर महंत
9399983585
“दरअसल कविता आंख है , जिसमें
भीतर की दुनिया / बाहर दिखायी देती है
दरअसल कविता / हथियार है / जिसमें
बाहर की लडाई / भीतर लडी जाती है
दरअसल कविता क्या है ? कविता है
या आंख या हथियार / दरअसल
कविता / एक नन्हीं गौरैया है ,
जिसकी चोंच में सारा आकाश है ।”
जैसी कालजयी पंक्तियां एवं “सिसरिंगा की घाटियां ” सहित कुल 8 कविताएं ,जब “प्रस्तुति “के अंतर्गत मध्यप्रदेश साहित्य परिषद की पत्रिका “साक्षात्कार “के फरवरी 1979 के अंक में प्रकाशित हुईं ,तो हिंदी जगत में तहलका – सा मच गया । राजेंद्र अवस्थी ने” कादंबिनी “के अपने संपादकीय में कविता की इस सार्थक परिभाषा को अपनी अनुशंसा के साथ उद्धरित किया। इसके पूर्व अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ के जुलाई 1974 के अंक में छपी उनकी कविता “यह सांवला दिन” भी बेहद चर्चित हुई थी । उन दिनों नेमीचंद जैन द्वारा लिखी गई आलोचना कई दृष्टियों से विचारणीय रही । इसके अतिरिक्त, धर्मयुग, दिनमान ,आजकल ,वागर्थ ,अक्षरा ,दृष्टि ,वर्तमान ,स्मरण ,आज ,जनसत्ता जनधर्म,मध्यप्रदेश संदेश,नवभारत टाइम्स , हिंदुस्तान टाइम्स आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशित होती रहीं ।
छायावाद प्रवर्तक पं. मुकुटधर पांडेय के प्रदेय के पुनर्मूल्यांकन की सुदृढ़ पृष्ठभूमि तैयार करने का श्रेय भी डा. बलदेव के खाते में जाता है । ध्यातव्य है कि क्षेमचंद्र “सुमन” ने अपनी कृति “दिवंगत हिंदी सेवी ” में पं. मुकुटधर पांडेय को स्मृतिशेष मानकर समादृत कर दिया था ,जबकि उन दिनों पं.मुकुटधर पांडेय जी जीवित थे । डा. बलदेव की दृष्टि जब उस कृति पर पडी , तो डा. बलदेव अत्यंत क्षुब्ध , परिवेदित और आहत हुए , उन्होंने इसका त्वरित प्रतिवाद भी किया । फिर तो डा. बलदेव देश की विभिन्न लायब्रेरियों में स्वयं जा-जाकर पं.मुकुटधर पांडेय जी की प्रकाशित दुर्लभ रचनाओं को खोज-खोजकर संग्रहित – संकलित करने लगे । यही नहीं उन्होंने अपनी भविष्य निधि की राशि से पं. मुकुटधर पांडेय जी की कविताओं को “विश्वबोध “शीर्षक से तथा उनके निबंधों को” छायावाद और अन्य निबंध” शीर्षक से संपादित कर प्रकाशित कराया । तात्पर्य यह कि डा. बलदेव ने पं.मुकुटधर पांडेय को पुनर्प्रतिष्ठित करने के भगीरथ प्रयास में स्वयं को झोंक दिया। डा. बलदेव ने अपने अकाट्य,अमोघ और प्रामाणिक तर्कों से यह सिद्ध भी कर दिया कि छायावाद प्रवर्तक अभिहित किए जाने के असल हकदार पं. मुकुटधर पांडेय ही हैं। पं.मुकुटधर पांडेय डा.बलदेव के प्रयासों से अभिभूत थे , वे डा.बलदेव को अपना मानस पुत्र मानते थे। डा.बलदेव के अध्यवसाय का ही परिणाम है कि हिंदी जगत में “छायावाद का पुनर्मूल्यांकन “संबंधी सार्थक पहल हुई और पं.मुकुटधर पांडेय के प्रदेय के निष्पक्ष पुनर्मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त हुआ और उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से विभूषित किया गया। वहीं पं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा उन्हें मानद् डी. लिट् की उपाधि प्रदान की गई। अनेक संस्थाओं द्वारा उनका सारस्वत सम्मान किया
गया।
छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी रायगढ के सांस्कृतिक वैभवशाली अतीत को विश्व मानचित्र में रेखांकित करने का बीडा भी डा. बलदेव ने उठाया । इस दृष्टि से डा.बलदेव की कृति ” रायगढ का सांस्कृतिक वैभव ” अत्यंत खोजपूर्ण और अभूतपूर्व सृजन है । यही नहीं लखनऊ और जयपुर घराने की तर्ज पर “कथक रायगढ घराना “की प्रतिष्ठापना का अप्रतिम कार्य भी डा. बलदेव की समर्थ लेखनी से ही संभव हुआ है । संगीत कला के क्षेत्र में अद्वितीय मौलिक कृति ” कथक रायगढ घराना ” को शीर्षक बदलकर ” रायगढ में कथक ” नाम से प्रकाशित तो किया गया ,लेकिन नृत्याचार्य कार्तिकराम के साथ सह लेखक के रूप में डा.बलदेव का नाम एक घृणित षडयंत्र के तहत गायब कर दिया गया । जबकि पूर्व में ही संगीत पत्रिका में डा. बलदेव कथक रायगढ घराना के बारे में सारगर्भित रूप में लिख चुके थे । इस विवाद ने तूल पकड लिया। अंततः “दिनमान” में सतीश जायसवाल (6-12 फरवरी 1983) की रपट और साप्ताहिक “जांजगीर ज्योति “में इस खाकसार के लेख ” रायगढ में कथक : कौन असली लेखक ” से मूल लेखन का यथार्थ उद्घाटित हो ही गया । साप्ताहिक “दिनमान” में स्वयं डा.बलदेव ने भी धारदार ढंग से लिखा था ।
छत्तीसगढ़ी सेवक ,मयारू माटी और छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर जैसी छत्तीसगढ़ी पत्र – पत्रिकाओं में डा. बलदेव के छत्तीसगढी कवियों पर लिखे गए आलोचनात्मक लेखों ने तो चमत्कृत ही कर दिया। यही कारण हैं कि इन्हें छतीसगढ़ी का रामचंद्र शुक्ल कहा जाने लगा । इन्हें छत्तीसगढ़ी साहित्य का ” धारनखंभा ” भी कहा जाने लगा है।
हिंदी और छत्तीसगढ़ी में अब तक डा. बलदेव की 15 कृतियाँ प्रकाशित होकर चर्चित हुई हैं लेकिन डा.बलदेव की बहुत कुछ रचनाएं और पांडुलिपियां अभी भी प्रकाशन की बाट जोह रही हैं ।
यह सुखद प्रसंग है कि वंदना जायसवाल पी-एच.डी.की उपाधि हेतु डा.बलदेव के सृजन संसार पर अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत कर चुकी हैं, वहीं विमला नायक संप्रति शोधरत हैं। निस्संदेह इन दुर्लभ शोध
प्रबंधों के प्रकाश में आने से डा.बलदेव के अवदान का सम्यक मूल्यांकन हो सकेगा।
डाँ. देवधर महंत