शहर गांव
गाँव नंगे पाँव चला शहर की ओर
ज़ीरो माइल तक जाते जाए
उसके पैरों में छाले पड़ गए
देह जवाब दे गई
भूख हावी हो गई
जेब खाली हो गई
गाँव शहर तक पहुंचा ज़रूर
लेकिन अर्बन पूअर बनने के दुख
पलायन के झंझावात
और स्लमडॉग सरीखे शब्द
सुरक्षित हो गए
शहर बसे ग्रामीणों के लिए
पीछे छूट गया गर्म चूल्हा
प्रतीक्षा में पथराई आँखें
आम के बगीचे
सब्ज़ियों के बगान
पर्व त्यौहार मीठी बोलियां
सालों बाद जेबें भर भर
शहर चला गाँव की ओर
पैरों में एडिडास और नाईकी के
कवच पहने गए
कदम जहां जहां पड़े
मिट्टी के घर ढहते गए
परिजन लौटे विकास लेकर और
दबे पाँव गाँव कस्बा बना
फिर कस्बाई शहर
कुछ दिनों में नगर पालिका का
हिस्सा भी हो जाए
शहर के चार पैसे की चाशनी
गाँव में वर्षों से सहेजे शहद पर
बहुत भारी पड़ती गई
उसकी पहचान ही खोती गई
कहते हैं सभ्यता के चरम पर
शहर पूरा गाँव निगल जायेंगे
कभी कभी इसे हम प्रगति कहेंगे
कभी कभी अफसोस जताएंगे।
प्रज्ञा मिश्र पद्मजा