तुपकी की सलामी का लोकपर्व : बस्तर का गोंचा
स्मृति की रेखाएं
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●बस्तर:गोंचा तिहार
रथयात्रा की बात करते ही जगन्नाथपुरी की बात जेहन में आ जाती है लेकिन इसका एक बस्तरिया संस्करण भी है जिसे ‘गोंचा तिहार’ कहा जाता है । जगन्नाथ रथयात्रा का एक दूसरा नाम गुण्डिचा पर्व भी है ऐसा प्रतीत होता है इसी गुण्डिचा से ‘गोंचा’ बना है ।
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अगर इस लोकपर्व के ऐतिहासिक सन्दर्भ की ओर दृष्टिपात करे तो पाते हैं कि जगन्नाथ पुरी के इतिहास से बस्तर का पुराना नाता है । बस्तर क्षेत्र के काकतीय राजा भयराजदेव के बेटे पुरुषोत्तम देव ने 1408 ई. के आसपास अपनी कुछ वनवासी मुरिया प्रजा को लेकर जगन्नाथपुरी तक पदयात्रा की थी । इस यात्रा के बाद उन्हें ‘रथपति’ की उपाधि मिली । इस विषय में ‘बस्तर के मुक्तिसंग्राम’ नामक पुस्तक में डॉ. हीरालाल शुक्ल लिखते हैं- “पुरुषोत्तम देव (1468-1534) तीर्थयात्रा के लिए पेट के बल सरकते हुए पुरी पहुंचे थे । पुरी पहुँचकर उसने जगन्नाथ के दर्शन किये और रत्नाभूषण आदि की भेंट चढाई । वहां उसे ‘रथपति ‘की उपाधि मिली तथा लौटकर उसने बस्तर में रथयात्रा प्रारम्भ किया । बस्तर में यह पर्व ‘गोंचा’ के नाम से प्रसिद्ध है ।”
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तीर्थाटन से लौटने के बाद जगन्नाथपुरी के यादों को चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से पुरुषोत्तम देव ने बस्तर में ‘दशहरा’ और ‘गोंचा पर्व’ में रथों का उपयोग शुरू किया । इन पर्वों को विशुद्ध रूप में न अपनाकर उन्होंने बस्तर के लोकतत्वों को उसमें शामिल कर एक अलग ही स्वरूप निर्मित किया । बस्तर दशहरा और गोंचा को देखने वाले इसे महसूस कर सकते हैं । यहां का दशहरा और गोंचा प्रकृति का पर्व है जिसके उत्सव का रूप शास्त्रीय विधानों से जुदा लोक के मुक्त भाव से जुड़ा हुआ है । कहा जाता है कि राजा पुरुषोत्तम देव ने अपने साथ गए मुरिया वनवासी साथियों को तीर्थाटन की सफलता पर जनेऊ पहनाया था । उन्हें अब मुरिया से ‘भद्र’ कहा जाने लगा । भद्र से वे ‘भतरे ‘बोले जाने लगे । भतरे के नाम पर बस्तर की एक बोली का नाम भी है भतरी । बस्तर के स्थानीय निवासी इसकी दूसरी तरह भी व्याख्या करते हैं उनका मानना है कि जो लोग राजा के साथ जगन्नाथ यात्रा पर गए थे वे भतरा ही थे । भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण से वे इंकार करते हैं बावजुद इन सबके रथ-चालन में भतरा की प्रभावी भूमिका होती है । इस विषय में ‘बस्तर भूषण’ (केदारनाथ ठाकुर) का यह कथन दर्शनीय है-“भतरा लोग अपने शरीर में चावल पीसकर रेहन के छींटे शरीर में दे देकर तथा सिर में चिड़ियों के पंख लगाए हुए तीर कमान हाथ में व काँधे पर रखे हुए तरकस पीठ पर लटकाए (लगाये) हुए नये-नये कपड़े पहने हुए हूँ हूँ हूँ हूँ करते हुए इधर से उधर किलकारा देते हुए रथ के आगे पीछे झुंड के झुंड अलग-अलग हो होकर चलते हैं और अन्य आदि निवासी तथा विदेशी लोगों को पकड़-पकड़ कर लाते हैं और रथ खींचने की रस्सी पकड़ाते रहते हैं । हजारों भतरा इसी तरह तीर धनुष तरकस लिए हुए सैकडों झुंड बना मेले में किलकारी देते घूमते रहते हैं।”
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अगर इन दोनों बातों को देखें तो पहली बात वनवासी प्रजा के जीवन में जनेऊ जैसे संस्कार वनवासी परम्परा में आर्य परम्परा के समन्वय जैसा प्रतीत होता है । दूसरी व्याख्या में लोक का अलमस्त भाव प्रधान है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि राजा ने धार्मिक संस्कार देने की कोशिश जरूर की लेकिन उसे प्रजा पर लाद नहीं पाये | इसके वरक्स वनवासी परम्परा और बस्तर के मूल जीवन संस्कार दशहरा और गोंचा जैसे पर्वों के मूल में रच-बस गए |
राजा पुरुषोत्तम देव जगन्नाथपुरी से जब वापस आये तो उनके साथ उड़ीसा के आरण्यक ब्राह्मणों का एक जत्था भी आया । यहाँ वे पूजा आदि के कार्य के साथ राजव्यवस्था के संचालन में भी सक्रिय रहे | गोंचा में आज भी अरण्यक परिवार प्रमुख भूमिका निभाते हैं | बस्तर की भाषा और लोक पर उड़ीसा और द्रविड़ परम्परा का प्रभाव विशेष रूप से देखा जा सकता है ।
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गोंचा पर्व बस्तर जिले के मुख्यालय जगदलपुर में सम्पन्न होता है । जगदलपुर में बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों से लोग इकठ्ठे होते हैं । जगन्नाथ रथयात्रा के शुभारंभ को ‘सिरी गोंचा’ कहते हैं और जब 10 वें दिन जगन्नाथ जी अपने भाई और बहन से साथ एक ही रथ में सवार होकर वापस लौटते हैं तो उसे ‘बोहडती गोंचा’ कहते हैं । बस्तर नरेश रथ के आगे चाँदी की बनी झाड़ू से मार्ग बुहारता है । गोंचा की यह रस्म राजा के सामान्य प्रजा के साथ लय होने की एक कोशिश के रूप में देखी जा सकती है । यहाँ भक्ति की चरम उपलब्धि मनुष्य मात्र की समानता का भाव है ।
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अब असल लोकराग गोंचा की विशिष्टता में आते हैं । जगन्नाथपुरी की रथयात्रा में जहां धर्म मुखर है, कर्मकांड प्रबल है वहीं दूसरी ओर गोंचा अपने बस्तरिया लोकरंग में प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्ध को नई तरह से परिभाषित करता है । दरअसल गोंचा पर्व के केंद्र में ‘तुपकि चालन’ की परम्परा है और लोक का हृदय इसी में बसता है । तुपकि धर्म, जाति, वर्ण, सम्प्रदाय, वर्ग सबकी दीवारों को तोड़कर उत्सव में रम जाने की अनूठी परम्परा का नाम है । पिचकारी की तरह की आकृति वाला लोक उत्सव यन्त्र है तुपकी । तुपकी बाँस से बनाया जाता है । बांस की नली को तुपकी कहते हैं जिसमें जंगल के हरे-भरे छोटे कच्चे फलों को भरकर जगन्नाथ के स्वागत में छोड़ा जाता है । मूल रूप से इसमें अंगूर के आकार का ‘मालकांगिनी लता’ के फल का प्रयोग होता है । ‘मालकांगिनी’ का उपयोग औषधि के रूप में भी होता है ।
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तुपकी चालन दन्तेवाड़ा की ‘फागुन मड़ई’ की याद दिलाता है । फागुन मड़ई में उपस्थित जनों को ‘आंवला’ मारकर स्वागत किया जाता है । गोंचा में मालकांगिनी के फलों को तुपकी में भरकर उड़ाते हुए रथयात्रा आगे बढ़ती है । फल तो उड़ते ही हैं , तुपकि की सामूहिक ध्वनि भी उड़ती है । बस्तर की गोंचा में वाणी ,राग, रस ,गंध के साथ लोकजीवन भी उड़ता है मानो विश्व चैतन्य हो रहा हो ।
भौतिक दुनियावी संसार से अलग प्रकृति की गोद में बस्तर गोंचा के माध्यम से ईश्वर को मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करता है । रथ को खींचने वाले मुरिया, माड़िया, गोंड बंधुजन मनुष्यता के मूल हैं । इनके आचरण में मूल जीवन राग बसता है । जीवन में सभी को कम से कम एक बार कैमरे के नजरों से हटकर हृदय की नजरों से इस दृश्य को देखने के लिए बस्तर जरूर आना चाहिए ।
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गोंचा प्रकृति के सामूहिक लोकलय का प्रतीक है । यह अपने आपमें विशिष्ट है । गजामूंग के पारंपरिक प्रसाद के साथ फनसकोषा(पका कटहल का फल ) का प्राकृतिक स्वाद लोक और जन का रस है । तुपकि की हर सलामी बारूद से जुदा प्रकृति की सलामी है । भक्तियुगीन दौर में कृष्ण ने बाँस की बाँसुरी से मुक्ति का संदेश दिया था गोंचा में वह तुपकी की सलामी में बदलती प्रतीत होती है ।
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आज जब बाजार के सर्वग्रासी रूप के सामने स्थानीयता मर रही है | लोकपरम्परा और लोकभाषाएँ मृत होती जा रही है तब बस्तर की ‘तुपकी’ जाने कब प्लास्टिक के खिलौने का रूप ले ले, साल के पत्ते में रखा फनसकोशा का स्वाद कब डिब्बे में पैक हो जाएं कहना मुश्किल है । भौतिकता और बनावट की तपिश के बीच गोंचा जैसे धर्म और लोक के समन्वय का पर्व बाह्य प्रभाव को अपनी स्थानीयता में आत्मसात करने का बेहतरीन उदाहरण है । आज अधिकांश लोकपर्व बाजार के दबाव में हैं । स्थानीयता गौण है और इस लिहाज से स्वत्व भी । यह बाजार हमारे नितांत निजी जीवन आचरण तक उतर आया है और हम बेखबर हैं । गोंचा जैसे लोकपर्व इन सबके विरुद्ध एक सुंदर सांस्कृतिक प्रस्ताव हैं जिस पर सोचने और जीने की जरूरत है ।
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गजामूंग को साक्षी मानकर छत्तीसगढ़ की उज्ज्वल मित्र परम्परा को आगे बढाने का रूप है गोंचा । आज के दिन ‘गजामूंग’ बदते हैं । कोई भी स्त्री या पुरुष गजामूंग का आदान-प्रदान कर मित्र सम्बन्धमाला में जीवन भर के लिए बंध सकता है । एक बार या डोर बंध जाये फिर लोग एक दूसरे को नाम से न बुलाकर गजामूंग शब्द से सम्बोधित करते हैं । यह किसी भी शास्त्रीय पर्व के विधान से आगे लोक के उत्सवधर्मिता की मौलिकता का प्रमाण है ।
बाबा नागार्जुन जब बस्तर आये थे तब एक कविता लिखी थी ‘शालवनों के निविड़ टापू में’ –
“हल्बी और हिंदी का
हमारा दुभाषिया साथी
करने लगा उससे बातें
फूल बाबू के लिए चाहिए थी माचिस
पास की झोपड़ी से वह ले आया साबित दियासलाई
क्षण भर बाद वापस भी दे आया …”
इस कविता में जो ‘फूलबाबू’ आया है वह गजामूंग बदने वाले एक मित्र का दूसरे मित्र के पिता के लिया किया जाने वाला सम्बोधन है और माँ फूल माँ होती है । इस कविता की अंतिम पंक्ति है-
“और हम चारों जने
देखते रह गए शालवनों के उस पगडंडी की ओर
कम से कम दस मिनट तक देखते ही रहे
तैरती रही आरण्यक छवियां सूनी निगाहों में
लेकिन वह तो अब तक अलक्षित हो चुका था
जा चुका था गहरे निविड़ अरण्य की अतल झील के अंदर”
अतल झील के अंदर जा चुके वनवासियों को इकठ्ठा करने वाला पर्व है गोंचा । बाबा नागार्जुन के मन में माड़िया अधेड़ से मन भर बात न कर पाने का जो मलाल था वह बस्तर के गोंचा जैसे लोकपर्वों में वनवासियों की मुखर उपस्थिति से पूरा हो सकता है।
(भुवाल सिंह ठाकुर
असिस्टेंट प्रोफेसर,शासकीय महाविद्यालय भखारा-धमतरी, (छत्तीसगढ़),7509322425)