सभ्यता का ‘मंकी सिंड्रोम’
’वागर्थ’ का संपादकीय जून-2023 :
शंभुनाथ
हर विकासशील भारतीय भाषा का अपना एक विश्व है जो ‘स्थानीय’, ‘राष्ट्रीय’ और ‘वैश्विक’ के बौद्धिक त्रिभुज से बनता है। इस त्रिभुज का कोई कोण छोटा या बड़ा हो सकता है, पर इसके बिना हर भारतीय अधूरा है! आज हर भारतीय में यह त्रिभुज लड़खड़ाया है या दरका है, जिसका असर साहित्य पर भी पड़ा है।
हाल के विभिन्न विकासों ने हिंदी को ज्ञान या साहित्य की भाषा से बाजार की भाषा में बदल दिया है। हिंदी का विश्व तरह-तरह से खंडित हुआ है। क्या अनिवासी भारतीय, क्या प्रवासी, क्या आप्रवासी और क्या देश के शहरों के समृद्ध जन, किसी भी जमात की स्मार्ट पीढ़ी को हिंदी से मतलब नहीं है और सामान्यतः साहित्य से भी नहीं है। हिंदी का बाजार में महत्व बढ़ा हो, पर समाज में घटा है!
एक प्रश्न यह है, मशीन ट्रांसलेशन की टेक्नोलॉजी बढ़ जाने पर सरकारी हिंदी सेल के अनुवादकों का क्या भविष्य है?
हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता के लिए, चाहे वह देश में हो या विश्व में, हिंदी की प्रकृति, परंपराओं और क्षमताओं को समझना जरूरी है। हिंदी की प्रकृति किसी भी भाषा से अधिक लचीली, परपराएं अधिक विविधतापूर्ण और क्षमता इसको समझने वालों की बड़ी संख्या के कारण ही नहीं, इसकी समावेशिकता की प्रकृति के कारण भी बहुत अधिक है। हिंदी में बहुत अधिक साहित्यिक अनुवाद होते हैं।यह भारतीय भाषाओं का आंगन है। यह कई अन्य जगहों की तरह स्वजाति-केंद्रिक भाषा नहीं है।
हिंदी ‘आइडेंटिटी पालिटिक्स’ की भाषा नहीं है
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किसी मराठी बोलने वाले से पूछो, तुम कौन हो? वह बोलेगा- मराठी।किसी तमिल बोलने वाले से पूछो, वह बोलेगा तमिल। पर किसी हिंदी बोलने वाले से पूछो कि तुम कौन हो, वह एक बार भी नहीं बोलेगा कि वह हिंदी है! इसका अर्थ है, हिंदी ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ की भाषा नहीं है। इसे सकारात्मक ढंग से भी लिया जा सकता है। हिंदी सबको जोड़ने वाली भाषा है। यह सभ्यताओं के संवाद की भाषा है। यह सामाजिक क्षितिजों की भाषा है, जहां मिलन है।विडंबना यह है कि हिंदी को औपनिवेशिक मिजाज के बुद्धिवादी और सामंती मिजाज के भाषाई मूलवादी दोनों नकारते रहे हैं! वे कहते हैं, हिंदी किसी की भाषा नहीं है या यह एक कृत्रिम भाषा है!
हमारे देश में हजारों साल की अशिक्षा ने ही नहीं, दो सौ साल की कुशिक्षा ने भी बड़ा नुकसान किया है। कुशिक्षा का एक रूप बौद्धिक उपनिवेशवाद का प्रभाव है, जिसके कारण अनुकरण की आदत पड़ गई है। समाज में नकलजीवी अधिक हैं, ये बौद्धिक क्षेत्र में ज्यादा हैं। इसी का नतीजा है कि समाज में खुद सोचने की शक्ति खासकर पिछले कुछ दशकों में घटती गई।
आज भी शिक्षा में इंडो-आर्यन भाषा परिवार की धारणा बनी हुई है, अर्थात उत्तर भारतीय भाषाओं और संस्कृत का मूल स्रोत यूरोप है। भारत के लोगों को समझाना था कि अंग्रेज कोई और नहीं भारत के ही श्रेष्ठ पूर्वज हैं और उनके राज्य को उनके अपने पूर्वजों का शासन मानना चाहिए! उपनिवेशक बड़े विद्वतापूर्ण ढंग से मूर्खतापूर्ण बातों का प्रचार करते थे और भारतीय बुद्धिजीवी उन्हें स्वीकार करते थे। इसी तरह का षड्यंत्र ग्रियर्सन ने हिंदी को पूर्वी हिंदी और पश्चिमी हिंदी का विभाजन करके किया था, जो अवैज्ञानिक था। साहित्यिक और सामाजिक सिद्धांत के मामलों में भी नकलजीवी न सिर्फ पैदा हुए, बल्कि एकेडेमिक रूप से प्रतिष्ठित भी हुए। आज उधार की उनकी बौद्धिक राहों ने उन्हें बंद गलियों में पहुंचा दिया है।
उल्लेखनीय है कि सबसे बुरी दशा भाषा की है। हमारी भाषाओं को बिगाड़ने में राजनीति और मीडिया दोनों की बड़ी भूमिका है। फलतः हर तरफ निस्सहायता है। भाषा का बिगड़ना मूल्यों के उजड़ने का चिह्न है, यह मनुष्य की आत्मविस्मृति है।
आपकी मातृभाषा भोजपुरी, ब्रज, अवधी, राजस्थानी या मैथिली है, पर आपके बच्चे की मातृभाषा क्या है?
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एक जेनरल स्टोर्स में एक मां अपने ४ साल के बच्चे के साथ घुसी। वह बच्चे को अंग्रेजी में कुछ न कुछ हिदायत दिए जा रही थी। बच्चा एक चीज की ओर इशारा करके बार-बार हिंदी में बोले जा रहा था, ‘हमको यह खाना है’। मां चाहती थी कि वह अंग्रेजी में बोले और उसके एक शब्द भी अंग्रेजी में न बोलने पर वह बहुत अपमानित महसूस कर रही थी। बच्चे को अपने दिल की बात कहनी थी, वह काहे अंग्रेजी बोले! हां, धीरे-धीरे वह अंग्रेजी में धकेल दिया जाएगा!
सवाल है, हिंदी क्षेत्र के जो लेखक, शिक्षक और काफी शिक्षित लोग अपनी मातृभाषा हिंदी की जगह भोजपुरी, ब्रज, मैथिली आदि बताते नहीं अघाते, वे कृपा करके बताएं कि उनके बच्चे की मातृभाषा क्या है!
किसी भी संपन्न हिंदी भाषी का बच्चा आज हिंदी माध्यम के स्कूल में नहीं पढ़ता और जो ‘समझदार’ पैरेंट्स हैं, वे अपने बच्चे के हिंदी की जगह अंग्रेजी जानने पर ज्यादा ध्यान देते हैं। उनके घरों में हिंदी को आदर से नहीं देखा जाता। क्या अभिजात अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले किसी भी बच्चे की मातृभाषा अंततः हिंदी भी रह जाएगी?
इसलिए जरूरी यह है कि हिंदी भाषी लोग हिंदी को ही अपनी मातृभाषा समझें, जिस तरह बंगाल के लोग अपनी मातृभाषा बांग्ला या महाराष्ट्र के लोग मराठी बताते हैं। लक्षित किया जा सकता है कि हिंदी अपने घर में जितनी उजड़ी है, दूसरी कोई राष्ट्रीय भाषा अपने प्रदेश में उतनी नहीं उजड़ी। निश्चय ही संकटग्रस्त भाषाओं के दायरे को विस्तृत करते हुए हम इसके लिए जागरूक हों कि बाजार, तकनीक, कृत्रिम मेधा आदि के बल पर बढ़ते अंग्रेजी वर्चस्व के युग में खुद हिंदी भी एक संकटग्रस्त भाषा बनती जा रही है। नौजवान हिंदी गानों के दीवाने हों, पर उनका हिंदी से नाता खत्म होता जा रहा है। इसमें उनके ‘पैरेंट्स’ की अहम भूमिका है!
मैंने सदा कहा है, संस्कृत हिंदी की जननी नहीं है। वह तो ग्रांड-ग्रांड दादी अम्मा है! हिंदी की मांएँ हैं इस क्षेत्र की उर्दू सहित ४९ भाषाएं, उपभाषाएं और बोलियां! जैसे दैव शक्तियों ने दुर्गा की सृष्टि मिलकर की थी, हिंदी को भी इन सारी ४९ लोकभाषाओं, भाषाओं के लोगों ने मिलकर रचा है। फिर भी हिंदी को बचाना और इसे हर दृष्टि से संपन्न करना आज एक बड़ी समस्या है। लोग खराब हिंदी बोल और लिख रहे हैं, एक समय हिंदी महज एक ‘बोली’ तक सीमित न हो जाए!
मैंने लगभग १५ साल पहले केंद्रीय हिंदी संस्थान में कोशिश की थी कि हिंदी क्षेत्र की सभी लोकभाषाओं का ४९ खंडों में शब्दकोश बने, ताकि इन भाषाओं के वे दुर्लभ शब्द बचें, जिनमें अद्भुत नाद सौंदर्य और अर्थ ध्वनियां हैं। इसके लिए मानव संसाधन और विकास मंत्रालय से लाखों की धनराशि मंजूर कराई थी।समांतर कोश के प्रसिद्ध निर्माता अरविंद कुमार को प्रधान संपादक बनाया था। यह परियोजना पूरी हो जाती, तो हिंदी की व्यापक समृद्धि दिखाई पड़ती। लेकिन मेरे वहां से अपने विश्वविद्यालय में लौटते ही अरविंद कुमार को हटा दिया गया। केवल एक खंड पूरा होकर छप सका।
धनराशि होने पर भी हिंदी लोक शब्दकोश की परियोजना का पूरा न होना हिंदी क्षेत्र के आलस्य और दायित्वबोध के अभाव का एक बड़ा उदाहरण है। इस तरह हिंदी जनता का जो स्वप्न मैंने भी देखा था, वह अधूरा रह गया। अब यह शायद ही कभी पूरा हो!
मेरी धारणा है कि हिंदी की रक्षा का अर्थ है ४९ भाषाओं, उपभाषाओं, बोलियों में फैली इसकी सांस्कृतिक जड़ों की भी रक्षा और लोकभाषाओं की शक्ति लेकर हिंदी को अंग्रेजी वर्चस्व के आगे किसी भी कीमत पर घुटने टेकने नहीं देना!
कितने लेखक किताबें खरीदते और दूसरों को पढ़ते हैं
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मुझे लगता है, यदि यही स्थिति रही तो विश्वविद्यालय के बाहर का हिंदी साहित्य पढ़ने वाले १० साल बाद बहुत कम रह जाएंगे। अच्छी मासिक और द्वै-मासिक साहित्यिक पत्रिकाएं (गैर-सरकारी) शायद ही रह जाएं।इसके अलावा सिर्फ उपन्यास या किसी एक विधा तक साहित्य को सीमित समझना अच्छा लक्षण नहीं है।
इधर सोशल मीडिया ने पुस्तकें पढ़ने की प्रवृत्ति पर एक बड़ी चोट की है और बौद्धिक सतहीकरण को बड़ी मात्रा प्रदान कर दी है। कई व्यक्ति हैं जो पुस्तकें खरीद जरूर लेते हैं, पर सोचते हैं- कभी पढ़ेंगे! इस तरह साहित्य की दुनिया सिकुड़ती जा रही है, हालांकि साहित्यकार का अहंकार बढ़ता जा रहा है।
पिछले दो दशकों की एक उल्लेखनीय घटना यह है कि हिंदी साहित्य का स्थानीयकरण बड़े पैमाने पर हुआ है। जो लेखक जिस महानगर में है, उसी महानगर के लेखकों के साहित्य को संपूर्ण हिंदी साहित्य समझता है। हिंदी साहित्य अब हिंदी के साहित्य से ज्यादा दिल्ली का साहित्य, पटना का साहित्य, भोपाल का साहित्य, कोलकाता का साहित्य, लखनऊ का साहित्य, छत्तीसगढ़ का साहित्य, दक्षिण का साहित्य – इन भावनाओं में संकुचित हुआ है। हिंदी लेखकों के बीच जातिवाद, समुदायवाद के साथ-साथ स्थानीयतावाद ब़ढ़ा है। दूसरी तरफ, विचारधारा जीवन से जोड़ने की चीज न होकर महज सत्ता की सीढ़ी बना दी गई है।
हिंदी के कुछ लेखक चेतन भगत की शैली में अपना आर्थिक भाव लगाते भी देखे गए हैं। उन्हें जरा आने वाले दिनों के संकट के बारे में सोचना चाहिए।मेरा खयाल है, आज का सबसे बड़ा हिंदी साहित्यकार भी स्वतंत्र रूप से सिर्फ लिखकर २५ हजार रुपए महीना भी शायद ही कमाता हो। आज हिंदी में लिखकर जीविका चलाना दूर की बात है, कोई सब्जी का खर्च भी नहीं निकाल सकता। यदि यही स्थिति रही, १० साल बाद साहित्य के हिंदी पाठक खोजने होंगे। निश्चय ही अंग्रेजी संसार में यह दशा नहीं है, क्योंकि वह डायनमिक है और दूसरी भाषाओं के पाठक तेजी से छीन रहा है। इस संकट के बारे में हिंदी लेखकों को अभी से विचार करना चाहिए।
अब लेखक यशपाल और अश्क की तरह अपना निजी प्रकाशन शुरू नहीं कर सकता। अपनी अच्छी नौकरी से बड़ा वेतन पाते हुए भविष्य में शायद ही दो-चार व्यक्ति बचें, जो अपनी गांठ से खर्च करके साहित्यिक पत्रिका निकालें या कोई साहित्यिक आयोजन करें।अधिकांश लोग हिंदी का सेवन करेंगे। जिन साहित्यकारों के सजग बेटे-बेटियां न होंगे, उनके मरने के बाद उनका नामलेवा नहीं होगा।
बड़े व्यापारी काफी पहले हिंदी और साहित्य से त्यागपत्र दे चुके हैं। किसी दूसरी भारतीय भाषा में व्यावसायिक पत्रिकाएं बंद नहीं हुईं। हिंदी में ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘दिनमान’, ‘पराग’ जैसी सारी पत्रिकाएं काफी पहले बंद हो गईं। यह साहित्य-विमुख व्यावसायिकता का चरम रूप है। सरकारी साहित्यिक संस्थाओं की हालत सामान्यतः खराब है। क्या तब यही होगा कि लेखक अपने पैसा से डेटा खरीदें, फेसबुक, ब्लॉग जैसी जगहों पर कुछ क्षणभंगुर लिखते रहें और इन्हीं पर ‘परम अभिव्यक्ति’ का सुख हासिल कर लें!
गौर कीजिए तो बहुत कम लेखक हैं जो किताबें या पत्रिकाएं खरीद कर पढ़ते हैं। कई की दृष्टि यह है कि यदि दूसरा लेखक मित्र नहीं है और दबाव नहीं हैं तो उसकी किताब पढ़ना अपना अपमान करना है! आखिर जब कोई खुद लेखक हो तो वह दूसरे लेखकों की किताबें क्यों पढ़े! बहुतों का आकाश उनके फ्लैट की छत से बड़ा नहीं होता। यह स्थिति है। यह भी यथार्थ है कि ऑनलाइन पर साहित्य पढ़ने की रुचि विकसित नहीं हो रही है।
हिंदी के २-४ बड़े प्रकाशकों को छोड़ दें, तो सामान्यतः हिंदी प्रकाशन कुटीर उद्योग की तरह हैं। ज्यादातर किताबें छलपूर्वक पैसे लेकर छापी जाती हैं। हिंदी में साल भर में किसी किताब की ५०० प्रतियां बिक गईं तो वह बेस्ट सेलर है! इस मामले में झूठा प्रचार ज्यादा है। यह सब चिंताजनक है।
इन सबके बावजूद क्या किसी भी युग में रचनाकार में लिखने की छटपटाहट कम हो सकेगी? क्या वह कभी चुप किया जा सकेगा? क्या किसी युग में उसे चुप करना संभव हुआ? लेकिन जब हिंदी साहित्य का बाजार सिकुड़ता जाएगा और पाठक पर मनोरंजन उद्योग और धार्मिक उद्योग हावी होते जाएंगे, तब लेखक क्या करेगा?
लेखक जी, लेखक से मिलिए
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कई आयोजनों, खासकर साहित्य-उत्सवों में ‘लेखक से मिलिए’ किनसे कहा जाता है, क्या लेखकों से? इसपर लेखकों को लिखना चाहिए कि उन्हें उत्सव में कैसे पाठक मिले, कितने पाठक मिले और जब वे अपरिचित लोगों से मिले तो उन्हें कैसा लगा और पाठक से क्या बात हुई-उनकी क्या जिज्ञासाएं थीं या वे ‘लेखक से मिलिए’ में सिर्फ अपने मित्र लेखकों से घिरे रहे-‘अहो रूपं-अहो ध्वनि’ कहते हुए! लेखक से लेखक ही पूछते रहे और लेखक लेखक को ही जवाब देते रहे!!
हमारे पाठक हमारे लिए एक विस्मय की तरह हैं। बहुत कुछ अदृश्य और समाज में खोए हुए, बिखरे हुए! वे हैं जरूर और हमें अच्छा लगता है, जब उनका फोन आता है। हम भौंचक उस अजनबी के बारे में सोचते हैं, जबकि वह हमें बहुत कुछ जान रहा होता है। हम उन्हें नहीं जानते, यह सोचकर थोड़ी बेचैनी होती है कि हम अपने पाठकों को कैसे जानें, उनसे रिश्ता कैसे बने! उत्सव ऐसे मौके होते हैं, जब हम सोचते हैं कि पाठक हमें खोजते हुए आएंगे। क्या वे आते हैं, क्या ऐसे पाठक हैं जो लेखक नहीं हों?
अज्ञेय से सांगली (महाराष्ट्र) में १९८१ में मैंने एक बार पूछा, ‘आप किन पाठकों को संबोधित करके लिखते हैं?’ वे थोड़ी देर रुके। फिर जवाब दिया, ‘मैं अज्ञात समाज के लिए लिखता हूं।’ उन्हें लगता रहा है कि वे भविष्य में समझे जाएंगे। लोग उनका महत्व भविष्य में समझेंगे, ऐसा आज भी कई लेखक सोचते हैं!
एकबार कोलकाता में मैं, केदारनाथ सिंह और नवारुण भट्टाचार्य टैक्सी में कहीं से लौट रहे थे। नवारुण ने एक घटना सुनाई- कवि शक्ति चट्टोपाध्याय एक दिन शराबटोला से ज्यादा पीकर हिलते-डुलते घर जा रहे थे, रात काफी हो चुकी थी। सवारी खोज रहे थे, पर सड़क पर सन्नाटा था। डिपो लौट रही एक खाली डबल डेकर बस के ड्राइवर ने उन्हें पहचान लिया। वह बस रोककर सड़क पर उतरा। उसने कवि को बस में बैठाकर पहले उनके घर पहुंचाया तब वह डिपो गया। यह है एक समय के बांग्ला कवि और पाठक का संबंध! यह है पाठक का विस्तार!!
पहले कई लेखक सामाजिक नहीं थे या संकोची थे तो अब ज्यादातर लेखक घरघुसरे हैं। आज अधिकांश लेखक, शिक्षक और बुद्धिजीवी सांस्कृतिक क्षय के दर्शक, एक न एक ‘नायक’ के पुजारी और अपने सिर पर अपनी ही मूर्ति लादकर चलने वाले लोग हैं।
पहले के पाठक व्यक्तित्व-संपन्न होते थे, वे पुस्तकों के बिना जी नहीं सकते थे। इन दिनों हिंदी लेखकों के ज्यादातर पाठक लेखक ही होते हैं। गनीमत है कि इस समय हिंदी में कवियों की संख्या बहुत बड़ी है!
इसपर भी गौर करना चाहिए कि अंग्रेजी लेखकों ने हिंदी, मराठी, बांग्ला, मलयालम आदि भाषाओं के पाठकों को छीना है, अंग्रेजी साहित्य का पाठक संसार यूरोप-अमेरिका से ज्यादा एशियाई-अफ्रीकी देशों में बढ़ा है। यह दुर्भाग्यजनक है कि हिंदी में ज्यादातर साहित्य प्रेमी ऐसे हैं जिनके लिए मंचीय परफॉरमर ही बड़े साहित्यकार हैं, चाहे वे हास्यास्पद कवि हों या वीर रस के योद्धा कवि! अधिकांश लोगों के लिए तुलसी से ज्यादा महत्वपूर्ण आज के मनोरंजक रामकथा वाचक हैं। जाहिर है, लोकरुचि में न बहना आज एक बड़ी चुनौती है।
यह कम विडंबनापूर्ण नहीं है कि लेखक में आकर्षण अब उसकी कृतियों के बल पर नहीं, उसके विवादास्पद होने से पैदा होता है। इसलिए लिखने से अधिक ‘विवादास्पद’ होना जरूरी है। इसके लिए ‘भिन्नता’ और अनोखी ‘सेक्सुअलिटी’ निर्मित करना सबसे आसान रास्ता है। कहना होगा, साहित्यकार किसी भी आधुनिक युग में इतना कम बौद्धिक न था। यह साहित्य के अलावा फिल्म और इतिहास के मामलों में भी देखा जा सकता है।
हिंदी लेखक से आखिर कौन मिलेगा, जो आह्वान है-लेखक से मिलिए! लोग मुरारी बापू से मिलेंगे, रविशंकर को सुनेंगे, मुंबई का नाच देखेंगे, म्युजिक कंसर्ट का आनंद लेंगे। लेखक से कौन मिलेगा?
पढ़ने की संस्कृति का संरक्षण जरूरी है
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हिंदी क्षेत्र के पढ़े-लिखे स्मार्ट नौजवान बड़े पैमाने पर अंग्रेजी और तकनीक की दुनिया में चले गए हैं। आमतौर पर साहित्यकारों के खुद उनके अपने बच्चे ही उनकी किताबें नहीं पढ़ते, भले ऐसे भोले साहित्यकारों की गहरी इच्छा हो कि पूरी दुनिया उनकी किताब पढ़े!
बड़े हिंदी अखबार अपने पन्नों से साहित्य को दशकों पहले हटा चुके हैं। आम पाठक और साहित्य का संबंध टूट चुका है, जो संकीर्ण विचारों और रूढ़ियों के हित में है। मैं नहीं जानता, नई स्थितियों में पुस्तक प्रकाशक अपने को कितना बदलेंगे और ‘पाठक आंदोलन’ तैयार करेंगे। लेखक कितना बदलेंगे और पढ़ने की संस्कृति के प्रसार के लिए सक्रिय होंगे। इतना साफ है कि पढ़ने की संस्कृति को बचाना और फैलाना आज की एक बड़ी जरूरत है। यह सामूहिक प्रयास से ही होगा।
वस्तुतः साहित्य कर्म हर युग में अपने को लुटाने का काम रहा है, कम से कम हिंदी की दुनिया में साहित्य से कमाकर अंग्रेजी लेखकों की तरह अमीर बनने की संभावना नहीं है। लेखक समाज से क्या पाएगा, यह अब इसपर निर्भर करेगा कि वह अपनी रचनाओं और बड़े-बड़े विचारों के अलावा समाज को क्या दे रहा है।
इस मामले में अभी से सोचना चाहिए, बल्कि मिलजुलकर रास्ते खोजने चाहिए। दरअसल अंग्रेजी छोड़कर दूसरी किसी भाषा में अब साहित्य मुनाफे का काम नहीं है! कमाने के लिए जो साहित्यकार लेखन की दुनिया में आना चाहते हैं, वे कविता, कथा, नाटक, आलोचना छोड़कर मिथ्या प्रचार के वीडियो बनाएं- इधर इसकी मांग बढ़ी है!
साहित्यिक रचनात्मकता बाउंडरी तोड़ती है
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दुनिया का हर शास्त्र किसी न किसी घेरे या बाउंडरी को तोड़ कर आया है, फिर वह खुद बाउंडरी बन गया है।खासकर रचनात्मक लेखन किसी शास्त्र से प्रभावित हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। शास्त्र तालाब है, साहित्य नदी है। हम देख सकते हैं कि कुछ खास शार्टकट समाजवैज्ञानिक अध्ययनों ने पिछले चार दशकों से भारत में शत्रुतापूर्ण सामाजिक विभाजनों को हवा दी है, राष्ट्रीयता को खलनायक बना दिया, जबकि इसके समावेशी चरित्र पर जोर देने की जरूरत है। ‘राष्ट्र’ और हाशिया के बीच संवाद होना चाहिए, हाशिया और हाशिया के बीच संवाद होना चाहिए!
प्रेमचंद का ‘सेवासदन’ से ‘गोदान’ या ‘पंच परमेश्वर’ से ‘कफन’ तक पहुंचना या निराला का ‘जुही की कली’ से ‘कुकुरमुत्ता’ तक आना क्या है? यह उनका अपने को तोड़ते हुए विकसित होना है, यथार्थ की एक नई जमीन पर आना है। नया युग आने पर छायावादी कवि पंत ने १९३८ में अपनी पत्रिका ‘रूपाभ’ के पहले अंक में लिखा था, ‘इस युग की कविता स्वप्नों में नहीं पल सकती। उसकी जड़ों को अपनी पोषण-सामग्री ग्रहण करने के लिए कठोर धरती का आश्रय लेना पड़ रहा है।…
यदि सत्य के प्रति वास्तविक उत्साह है तो हम अपने महान उत्तरदायित्व की अवहेलना नहीं कर सकते।’ पंत अंततः स्वच्छंदतावादी अनुभूति से एक कृत्रिम दार्शनिक लोक में चले गए, पर उन्होंने एक समय अपने छायावादी बोध की सीमाओं को समझा था। इसी तरह हर युग में अपने चिंतन और लक्ष्य की सीमाओं को तोड़ने की जरूरत होती है।
इस विडंबना की ओर भी दृष्टि जानी चाहिए कि साहित्यिक विधाओं के बीच दूरियां बढ़ी हैं। सामान्यतः कवि उपन्यास-कहानियां नहीं पढ़ेंगे। उपन्यासकार कविताएं नहीं पढ़ेंगे। आलोचना सामान्यतः कोई लेखक नहीं पढ़ेगा, यदि उस पर चर्चा नहीं है या कोई आत्मीय बाध्यता नहीं है। इस तरह ज्यादातर लेखक अपनी एक विधागत विशिष्ट बाउंडरी तैयार कर लेते हैं, जो उन्हें बौद्धिक और संवेदनात्मक रूप से सीमित करती है। हिंदी के विश्व के खंडित होने के ऐसे कई रूप हैं।
हिंदी शोधार्थियों के संदर्भ में चंद बातें
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कई सालों से हिंदी शोधार्थियों का यह चित्र खींचा जाने लगा है कि बड़ा क्षय हो गया है हिंदी शोध की दुनिया में, बड़े चालाक हो गए हैं शोधार्थी। मानो ऐसी चिंता व्यक्त कर रहे लोगों की दुनियाओं में महानता हो! हिंदी शोधार्थी उसी सार्वजनिक संसार में रहते हैं जिसमें हम-आप हैं, जिसमें पेगासस का आदर्श है, कम मेहनत में फटाफट सब पा जाने और दौड़ में आगे निकलने की होड़ है और आमतौर पर जवाबदेही से तलाक है। भीड़तंत्र जिस तरह इंदौर में एक चूड़ी बेचने वालने को पकड़ता और लिंचिंग करता है, फेसबुक पर कुछ उसी तरह एक शोधार्थी फंसा था और कई शिक्षा प्रेमियों की नैतिकता का ज्वालामुखी धधक गया था, जैसे मास हिस्टिरिया हो।
हिंदी शोधकार्य में क्वालिटी नहीं है, तो किस जगह क्वालिटी है, कहां दायित्व ज्ञान है? कुछ व्यक्ति विश्वविद्यालय का जिक्र आते ही ऐसे टूट पड़ते हैं, जैसे यह उनका पुराना शिकार हो। जिस समाज में बिना जाति, बिना राजनीतिक पासपोर्ट और बिना सोर्स की ताकत के नौकरी नहीं मिलने वाली हो, बल्कि कुछ भी नहीं मिलने वाला हो, जब पीएच.डी. का संबंध नौकरी की बुनियादी योग्यता से जोड़ दिया गया हो- वहां शोध फास्ट फूड से ज्यादा क्या हो सकता है? अब बात है शोधार्थियों की तमीज की। जरा सोचें, आज बड़े-बड़े मंत्री उनके सामने कौन-से आदर्श रख रहे हैं। आज कौन सिर्फ अपने और सिर्फ अपने लिए परेशान नहीं है? हिंदी शोधार्थी का पूरा चरित्र उस समाज का प्रतिबिंब है, जिसे हमलोग बना रहे हैं।
अभी भी हिंदी के विद्यार्थी बीए-एमए में हजारों की संख्या में होते हैं। वे भविष्यहीनता के अंधकार में होते हैं। उनमें अधिकांश ऐसे हैं, जो अपने परिवार में उच्च शिक्षा पाने वाली पहली पीढ़ी के लोग हैं। दूसरी-तीसरी पीढ़ी से अब बहुत कम विद्यार्थी हिंदी में हैं। अधिकांश हिंदी विद्यार्थी गरीब होते हैं। वे कुछ और पढ़ नहीं पाते। ऐसे गरीब हिंदी विद्यार्थियों का नए भारत में क्या भविष्य है?
विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग की हालत खराब होती जा रही है। एक बार प्रोफेसर बन जाने के बाद पाठ्यक्रम के बाहर पढ़ने-लिखने का झुकाव प्रायः खत्म हो जाता है। हिंदी पाठ्यक्रम अभी भी म्यूजियम से कम नहीं हैं, जबकि नए युग में पाठ्यक्रम को लेकर शिक्षकों की सोच में एक बड़े परिवर्तन की जरूरत है। यह भी आम मामला है कि हर हिंदी विभाग में १० प्रोफेसर १२ कोने में होते हैं। एक प्रोफेसर का शिष्य दूसरे प्रोफेसर से बात नहीं कर सकता, इतना क्रूर विभाजन है। हिंदी शिक्षण की दुनिया में हजारों अभागे शिक्षक हैं, जो साहित्य पढ़ाते हुए भी साहित्य के आनंद से दूर हैं और मांसल यंत्र बना दिए गए हैं। सोचना पड़ता है, इस तरह के विभाग को ‘मानविकी विभाग’ (ह्यूमैनिटीज) क्यों कहा जाए, जब बहुत कुछ अमानवीय है!
उसी जड़ हिंदी विभाग में जब हमें प्रधान वक्ता के रूप में आमंत्रित किया जाता है या हमारी कोई कृति लग जाती है, या हम पर हो रहे शोध की सूचना मिलती है, हम यह लोगों को गौरव से बताते हैं! शोधार्थियों पर कुढ़ने, उनकी निम्नता बताने की जगह वस्तुतः सार्विक आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। अन्यथा परंपरागत विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की दो-तीन दशकों के बाद वही दशा हो जाएगी, जो कुछ दशकों से सिनेमा हाल की है!
हिंदी शोधाार्थियों को निश्चय ही बदलते युग की मांगों को समझना होगा और शोध कर्म को खुद प्रयत्न करके ज्ञान के नए-नए विस्तार से जोड़ना होगा, अन्यथा दूसरे नहीं वे खुद पिछड़ जाएंगे।
आज की सभ्यता का ‘मंकी सिंड्रोम’
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एक पौराणिक कथा है, एक बार संन्यासी हो चुके नारद के मन में लक्ष्मी से विवाह की इच्छा जगती है। वे चाहते हैं कि लक्ष्मी स्वयंवर में उन्हें ही चुने। वे विष्णु के पास जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि उनके जैसा ही सुंदर रूप उन्हें मिल जाए तो लक्ष्मी उन्हें अपने दूल्हे के रूप में चुन लेगी।
विष्णु कहते हैं, तुम ‘हरि’ जैसा हो जाओ! हरि का एक अर्थ बंदर है। नारद बंदर-सा मुँह लेकर स्वयंवर में अन्य लोगों के साथ कतार में खड़े हो जाते हैं। लक्ष्मी मुस्करा कर आगे बढ़ जाती है। नारद को लगता है, उसने ठीक से देखा नहीं है। वे आगे बढ़कर दुबारा मुखातिब होते हैं। लक्ष्मी फिर मुस्करा कर आगे बढ़ जाती है। ऐसा कई बार होता है। अंततः नारद देखते हैं कि उसने विष्णु के गले में माला डाल दी है। उन्हें धोखे का अहसास होता है। वे दर्पण में अपना मुँह देखते हैं और उन्हें वास्तविकता का पता चलता है। इसके बाद की कथा में विष्णु पर क्रोध और एक जलाशय में आत्मसाक्षात्कार के बाद उनके मानव-रूप में वापसी के प्रसंग हैं।
उपर्युक्त कथा से आज के सभ्य लोगों के अनोखे बौद्धिक-सांस्कृतिक कायाकल्प को समझा जा सकता है। वे लोभ और भोग की लिप्सा में कितने विचित्र होते जा रहे हैं, कितने विवेकहीन, नकलची और अराजक! यह वर्तमान भौतिक सभ्यता का ‘मंकी-सिंड्रोम’ है! लोगों की ऐसी दशा आज की बाजारवादी और राजनीतिक दुनियाओं के कारण हुई है। इस वक्त जरूरी है कि हम अपना चेहरा खोजें और अपने को फिर से जानें!
शंभुनाथ