लतीफ़ घोंघी : हिंदी व्यंग्य का चमकता सितारा (२८ सितंबर-जन्म तिथि पर विशेष)
हिन्दी व्यंग्य के एक महत्वपूर्ण पुरोधा थे लतीफ घोंघी जिनका जन्म २८ सितंबर को हुआ और २४ मई २००५ को वे हिन्दी व्यंग्य संसार से विदा हुए थे. जिस सहजता से लतीफ घोंघी ने व्यंग्य लिखा, जीवन जिया उसी सहजता से वे हम सबको छोड़ गए। पेशे से नोटरी लतीफ साहब रोज की तरह अपने शहर महासमुन्द की जिला कचहरी में जाने की तैयारी कर रहे थे। इस दौरान एक हिचकी उन्हें आई और उन्होंने यकबायक हिन्दी व्यंग्य का दामन छोड़ दिया। उनकी पार्थिव काया के दर्शन करने वालों को चिरनिद्रा में लीन लतीफ भाई उसी तरह शांत्तचित लग रहे थे जिस तरह की शान्ति हरदम उनके हसीन चेहरे से टपका करती थी। वे अपने जीवन के सत्तरहवें वसंत पर थे। एक बेटे और बेटियों का उनका भरा पूरा परिवार है। उनकी बेटी रुबी के नाम पर उनके मकान का नाम था ‘रुबी-9’. यह मकान महासमुन्द में कॉलेज रोड पर स्थित है। अब उनका मुहल्ला लतीफ़ घोंघी वार्ड कहलाता है। उनके मकान के ठीक सामने बचपन से साथ गुजारने वाले ईश्वर शर्मा का मकान है। लतीफ घोंघी और ईश्वर शर्मा ने मिलकर एक किताब लिखी थी ‘जुगलबन्दी’। यह अपने किसम का एक नया लेखकीय प्रयोग था जिसका विमोचन करने छत्तीसगढ़ के एक कस्बाई प्रभाव वाले शहर महासमुन्द में शरद जोशी आए थे।
हिन्दी साहित्य में परसाई ने व्यंग्य को उसकी विपन्न स्थितियों से निकालकर उसे ऊंचा उठाने का जो दुष्कर कार्य किया उस परम्परा में वही कार्य लतीफ घोंघी ने हास्य के लिए किया। रवीन्द्रनाथ त्यागी, के.पी.सक्सेना और लतीफ घोंघी की एक नयी तिकड़ी ने हिन्दी साहित्य में व्यंग्य लिखने के बहाने हास्य को खूब समृद्ध किया। हिन्दी आलोचना का कृपण और संकीर्ण संसार जहॉ हास्य को एक दोयम और तीयम दर्जे की चीज मानता रहा और इस तरह के लेखन को मसखरी कहकर मुंह फेरता रहा वहॉ उनकी आलोचना को तवज्जो न देकर त्यागी, सक्सेना और घोंघी ने विपुल संख्या में हास्य-व्यंग्य और विशुद्ध हास्यरस की रचनाएं लिखीं पूरे साहस और दमखम के साथ।
हास्य जन्माने के लिए जिस निष्कपटता और सहृदयता की जरुरत होती है वह खूबी तो लतीफ भाई में कूट कूट कर भरी थी। उनके सुदर्शन चेहरे पर जो मौन व्याप्त था वह हरदम उनकी मन्द मुस्कान से प्रदीप्त होता रहता था। अपने व्यक्तित्व की इन्हीं विशेषताओं के साथ अपने लेखन में व्यंग्य की जो कथात्मक शैली लतीफ घोंघी ने विकसित की और अपने ‘विट’ से उसे जो सरस बनाया वह उनके लेखन की निजी शैली और बुनावट थी। हास्य और व्यंग्य के मिश्रित धरातल पर खड़ी उनकी रचनाएं हास्य और व्यंग्य के बीच खड़ी विभाजक रेखा को भी हटाती से प्रतीत होती हैं।
अपने चालीस वर्षों के अनवरत लेखन में लतीफ घोंघी ने लगभग चालीस किताबें लिखीं। उनकी सभी किताबें व्यंग्य संग्रह ही हैं। उन्होंने व्यंग्य, लघु व्यंग्य कथाएं और व्यंग्य नाटिकाएं लिखीं। हरदम व्यंग्य के कटघरे में खड़े रहने की चाहत वाले लतीफ भाई जैसे कसम खाकर कह रहे हों कि ‘मैं जब भी लिखूंगा व्यंग्य लिखूंगा और व्यंग्य के सिवा कुछ नहीं लिखूंगा।‘ संभव है कि हिन्दी गद्य की किसी एक विधा पर हिन्दी के किसी लेखक ने इतनी अधिक किताबें ना लिखीं हों।
वर्ष १९९१ में जब शरद जोशी का अवसान हुआ तब उनकी स्मृति में दुर्ग में शरदजोशी स्मृति प्रसंग का पहला कार्यक्रम रखा गया था। तब से निरंतर चौदह वर्षों से यह कार्यक्रम प्रत्येक वर्ष दुर्ग में किया जाता रहा। मानस भवन, दुर्ग में आयोजित उस पहले कार्यक्रम में व्यंग्यशिल्पी लतीफ घोंघी को ‘सृजनश्री’ सम्मान से अलंकृत किया गया था। शंकर पुणतांबेकर ने उन्हें सम्मानित करते हुए यह बताया था कि दुर्ग में आयोजित यह कार्यक्रम गद्य व्यंग्य पर केन्द्रित देश का सबसे बड़ा आयोजन है। इस प्रथम सार्वजनिक सम्मान के बाद लतीफजी के लिए पुरस्कारों की झड़ी लग गई फिर उन्हें अट्टहास सम्मान, म.प्र.साहित्य परिषद का शरद जोशी सम्मान, दिल्ली का अक्षर आदित्य तथा राजस्थान, तमिलनाडु अनेक जगहों में उन्हें पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हुए थे।
उस दिन तारीख थी 24 मई 2005 की। दोपहर एक बजे थे कि दफ्तर का फोन घनघनाया। आवाज आई ‘ईश्वर शर्मा बोल रहा हूं.. विनोद भाई ख्रबर मिली क्या!?’ फिर आगे यही सुनने को मिला था कि ‘लतीफ़ घोंघी नहीं रहे।‘
एक पल में ही वह चेहरा अपनी भरपूर मौजूदगी दे गया जिसमें सूट-बूट और टाई से लकदक व्यक्तित्व सामने आ बैठा। खामोश लेकिन हसीन चेहरा जो हर मिलने वाले से नफासत के साथ बोल उठता था क्या बात है.. क्या बात है।“ और उसके साथ ही पूरी गर्मजोशी के साथ वक्त बिताता वह शख्स होता था जिन्हें हिन्दी साहित्य जगत व्यंग्यकार लतीफ घोंघी के नाम से जानता है।
इस बार भी दुर्ग-भिलाई से हम वही चार लोग थे जो लगभग साल भर पहले एक ऐसे ही गमी के कार्यक्रम में महासमुन्द जा पहुंचे थे। तब वहॉ फुरसत पाकर हम लोगों ने लतीफ घोंघी के साथ एक ज्रिन्दादिल समय बिताया था। ईश्वर शर्मा के घर खाना खाया था।
हम चार यानी मैं, व्यंग्यकार रवि श्रीवास्तव और गीतकार बसंत देशमुख व अशोक शर्मा। हम सब रवि श्रीवास्तव की कार में निकल चले। दुर्ग से महासमुन्द जाते समय रायपुर से गिरीश पंकज भी हमारे साथ हो लिए थे। वे प्रेम जनमेजय द्वारा संपादित ‘व्यंग्य यात्रा’ का दूसरा अंक अपने साथ लाए थे। अब हमारी यात्रा सचमुच व्यंग्य यात्रा में तब्दील हो गई थी क्योंकि हम जा रहे थे एक ऐसे व्यंग्ययात्री के महाप्रयाण पर जिसने व्यंग्य के शिखर तक पहुंचकर अपनी हाजिरी दर्ज की थी।
महासमुन्द महानदी के करीब बसा है। यह देश की सबसे चौड़ी नदी है। इसके चौड़े पाट पर हिन्दी के कई व्यंग्यकारों ने अपने उस्तरे को धार किया है..और लतीफ घोंघी ने तो यहॉ खूब जमकर धार किया था अपने उस्तरे को।
नदी पार करने के बाद टोल टैक्स नाका हमारे सामने था। श्रीवास्तव जी ने नाका मुंशी को बताया कि ‘हम लोग लतीफ घोंघी साहब की मैयत में जा रहे हैं।“ यह सुनकर मुंशीजी भावुक हो उठे और हमारे दुख में अपने दुख को शामिल करते हुए उन्होंने अपना हाथ उठा दिया और साथ ही नाका भी बिना कोई शुल्क लिए। यह अपने शहर के हर आम आदमी से लतीफ साहब के जुड़ाव का एक बड़ा प्रमाण था। वरना आज का लेखक अपनी जमीन और अपने आदमी से कितना जुड़ा है?
हम उस शहर में आ गए थे जो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से फकत पचपन किलोमीटर दूर है। यह शहर लतीफ घोंघी का है जहॉ अपनी पैदाइश से सुपुर्द-ए-ख़ाक होने तक उन्होंने इतना कुछ लिखा कि बकौल रवीन्द्रनाथ त्यागी ’लतीफ घोंघी हिन्दी व्यंग्य के पांच पाण्डवों में से एक हो गए थे।’
हमारे सामने ‘रुबी-9’ नाम का वह मकान था जो लतीफ घोंघी के पते में लिखा होता था – लतीफ घोंघी ‘रुबी-9’ कॉलेज रोड, महासमुन्द। ‘रुबी’ लतीफ साहब की छोटी बिटिया का नाम है। उनका एक ही बेटा है अब्दुल करीम जो महाविद्यालयों में प्राध्यापक रहे। संतानों में सबसे बड़े करीम ने हुबहू पिता की शक्ल पाई है। सभी बच्चों की जिम्मेदारियॉ पूरी कर चुके थे लतीफ साहब और चिरनिद्रा में वैसे ही लीन हो गए थे जैसे अपनी जिम्मेदारियॉ पूरी करने के बाद कोई पिता शांतचित्त होता है।
हम जिस समय उनके पार्थिव शरीर के पास खड़े थे। छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी और कद्दावर नेता विद्याचरण शुक्ल की शोक संवेदनाएं फोन पर आई। संत कवि व राज्य गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष पवन दीवान और संसदीय सचिव पूनम चन्द्राकर खुद पहुंचे थे। छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष ललित सुरजन और महासचिव व्यंग्यकार प्रभाकर चौबे थे.. और उमड़ आया था उस दिन पूरा कस्बा घोंघी जी के जनाजे में शामिल होने के लिए उनके पार्थिव शरीर को अपना कंधा देने के लिए। उन्हें मालूम था कि बड़े राजनीतिज्ञों और मालगुजारों वाले इस कस्बे में भी उनके लिए अगर महासमुन्द का कोई प्रथम नागरिक था तो वह लतीफ घोंघी था।
उस डूबती शाम को, जनाजे में शामिल भीड़ सड़क पर खामोशी से चली जा रही थी। इस सड़क पर उस दिन मैं दूसरी बार पैदल चल रहा था। पहली बार तब चला था जब पन्द्रह साल पहले लतीफ जी से मिलने आया था। पहली बार लतीफ साहब के साथ चला था और दूसरी बार आज उन्हें कंधा देते हुए उसी सड़क पर। कहॉ एक वह हसीन शाम थी और कहॉ आज दारुण दुख से भरी यह दूसरी संध्या।
कब्रिस्तान में किसी हर दिल अजीज को दफन होते देखने का यह पहला मौका था। याद आ गई लतीफ घोंघी की रचना ‘मेरी मौत के बाद’। जिसमें लतीफ साहब ने अपने जनाजे का ख़ाका बरसों पहले खींच दिया था। ऐसा कर वे उन चुनिन्दा लेखकों में आ गए थे जिनमें अपनी मौत पर लिख लेने या बात कह देने का जज़्बा होता है। उसमें लिखी हुईं बहुत सी बातें हमारे सामने घट रही थीं।
कब्र में मिट्टी देने वालों में एक उत्तेजनाभरी आपाधापी थी। अपने अब्बाजान के बाजुओं के करीब ही जा समाए थे लतीफ घोंघी सबको बिलखता छोड़कर। यह उनके पुत्र करीम और मित्र ईश्वर शर्मा जैसे अजीजों के न थमने वाले ऑसुओं को देखकर भी जाना जा सकता था।
जाते जाते भी लतीफ घोंघी एक इतिहास गढ़ गए थे अपने शहर में जब उस शहर के कब्रिस्तान में ही पहली बार कोई शोकसभा रखी गई थी जिनमें उनकी यादों के चन्द सतरें पेश किए गए। हिन्दी व्यंग्य का एक चमकता सितारा हमने खो दिया था। वहॉ से बाहर निकलते समय हमारे साथ हमारी पदचापों के सिवा कुछ नहीं था।
०००
विनोद साव (प्रकाशनाधीन संस्मरण संग्रह ‘सिरजनहार’ से)
चित्र वर्ष ११९३ लतीफ़ साहब के साथ.