मां, पिताजी व मैं -2
– दिवाकर मुक्तिबोध
थोड़ा बड़ा हुआ तो कुछ समझ भी बढी। लेकिन बचपना फिर भी था। पूरी बेफिक्री थी। मैं देखता था बाबू साहेब ‘ नया खून ‘ में और ज्यादा व्यस्त हो गए। सुबह उनकी थी पर बाकी पूरा दिन दफ्तर या दोस्तों के साथ। मां दिन भर काम में लगी रहतीं थीं। शाम होने के पूर्व जो समय बचता ,वह आसपड़ोस की स्त्रियों से बातचीत में निकल जाता। घनिष्ठता किसी से नहीं थीं अलबत्ता कभी कभार पिताजी अपने दोस्तों के घर ले जाया करते। नरेश मेहता जी व उनकी पत्नी महिमा जी तथा जीवन लाल वर्मा विद्रोही जी पत्नी से मां का दोस्ताना था। खासकर विद्रोही जी के परिवार का काफी आना जाना था। जो लोग प्रायः घर आया करते थे, और जो नाम मुझे याद है, वे हैं, चित्रकार भाऊ समर्थ , भीष्म आर्य, शैलेंद्र कुमार, स्वामी कृष्णानंद सोख्ता, प्रभाग चन्द्र शर्मा व पिताजी के छोटे भाई यानी हमारे काका, बबन काका व उनका परिवार।
मैं देखता था जब बबन काका घर आते थे तो पारिवारिक बातें कम साहित्यिक बहसें अधिक हुआ करती थीं। काका भी मराठी के कवि , आलोचक व उपन्यासकार थे इसलिए विभिन्न मुद्दों पर चर्चा स्वाभाविक थी। हमें उनकी बातों से कोई लेना देना नहीं था। उनका बडा बेटा राजीव हमउम्र था लिहाजा हम खेलने में मग्न रहते थे। हममें गाढी दोस्ती थी जो अभी भी बनी हुई है और हमारे जीवन के अंतिम क्षणों तक रहेगी।
मां व पिताजी ने अपने जीवन में दो तीन बच्चों को खोया। कब कौन किस उम्र में गया पता नहीं , हालांकि मां बीच बीच में हमारे सामने उन्हें याद करती थीं। द्रवित होती थी। सिर्फ सरोज मुझे याद है। मुझसे छोटी, मेरे बाद की। उसे बुखार आया। दवाइयाँ दी गई होंगी। एक दिन वह बिस्तर पर नहीं दिखी तो खोजबीन शुरू हुई , कहाँ गई ? कहाँ गई ? घर में इधर उधर ढूंढने के बाद वह बाथरूम में मिली। पानी की टंकी के पास । दोनों पैर पेट से चिपका कर गठरी जैसी पडी हुई थी। शायद उसे तेज बुखार था, सहन नहीं हो रहा होगा इसलिए वह पानी की टंकी के पास लेट गई। मुझे नहीं मालूम आगे क्या हुआ । जन्म व मृत्यु पर हर्ष या विषाद की कोई भावना छोटे बच्चों को उद्वेलित नहीं करती, जोर नहीं मारती। वह एक घटना बनकर रह जाती है। इसलिए सरोज के बारे इतनी ही स्मृति है कि पिताजी उसे गोद में उठाकर कमरे में ले आए। वह जीवित थी या नहीं, या कब गई यह भी पता नहीं लेकिन जब ये पंक्तियाँ लिखने बैठा हूँ तो सहज कल्पना कर सकता हूँ कि मां और पिताजी की क्या हालत हुई होगी। किस तरह उन्होंने इस सदमे को बर्दाश्त किया होगा । अपनी कहानी ‘ काठ का सपना ‘ के एक पात्र का नाम उन्होंने सरोज रखा। इस कहानी में बेटी की दीनहीन स्थिति पर एक मजबूर पिता की मर्मांतक पीडा का चित्रण है। उसका एक पैराग्राफ है –
” उसके पिता अपनी बालिका को देखकर प्रसन्न नहीं होते हैं । विक्षुब्ध हो जाता है उनका मन।नन्हीं बालिका सरोज का पीला चेहरा, तन में फटा हुआ सिर्फ एक ‘ फ्राक ‘ और उसके दुबले हाथ उन्हें बालिका के प्रति अपने कर्तव्य की याद दिलाते हैं, ऐसे कर्तव्य को जिसे वे पूरा नहीं कर सके, कर भी नहीं सकेंगे , नहीं कर सकते थे। अपनी अक्षमता के बोझ से वे चिढ जाते हैं । और वे उस नन्हीं बालिका को डांटकर पूछते हैं, यहां क्यों बैठी हो ? अंदर क्यों नहीं जाती ? ”
पिताजी की इस कहानी का बेटी सरोज से भले ही कोई संबंध न हो पर उनके अचेतन मन में मेरी यह छोटी बहन बसी हुई थी , ऐसा मुझे महसूस होता है। वैसे भी परिवार के अजीवित सदस्य की छवियाँ मन में ताउम्र बनी रहती है। फिर वे तो बहुत संवेदनशील थे। पूरी जिंदगी में तरह तरह की तकलीफें झेलते रहे। सरोज का जाना व बाद में एक सडक दुर्घटना में स्वामी कृष्णानंद सोख्ता की मृत्यु बहुत विचलित करने वाली थी। यह जख्म गहरा था।
उनकी चिंता का सबसे बडा सबब मैं भी था। नागपुर की ही बात। सुबह की स्कूल थी। मैं घर आया। मैं और मां खाना खाने बैठे। अंगीठी पर दाल की पतेली चढी हुई थी। हमने दाल खाई। मैनें मां को कुछ और दाल परोसने कहा। इस बार उन्होंने बडे से चम्मच से जैसे ही दाल निकाली, उसके साथ उसमें एक फूली हुई छिपकली आ गई। पता नहीं वह कब बर्तन में गिरी व उबलती रही। उसे देखते ही मां को उबकाई आई और वह लगभग दौडते हुए बाथरूम की ओर भागी। उल्टियां करते हुए मुझे उसके गले से निकली आवाज़ें साफ सुनाई दे रही थी पर मैंने अपना हाथ नहीं रोका, खाना जारी रखा था। दाल में छिपकली देखकर मुझे अजीब सा कुछ भी महसूस नहीं हुआ और न ही उल्टी का सेंसेशन आया। उल्टियां करके मां आई , वह बदहवास थी, उसने मुझे पटिये से उठाया व बाथरूम ले गई। जब कोशिशों के बावजूद मुझे उल्टी नहीं हुई तो वह और भी घबरा गई। उसने घर को वैसे ही खुला छोड़ दिया व मुझे तुरंत ‘नया खून ‘ के दफ्तर ले आई। उन्होंने पिताजी को बाहर बुलाया और उन्हें पूरी कथा सुनाई।। पिताजी भी चिंतित हुए। फिर दोनों मुझे साथ लेकर मेयो हास्पीटल ले गए। मुझे भर्ती किया गया। मां को चूंकि उल्टियां हो गई थीं अतः उन पर विष का असर जाता रहा किंतु मेरा इलाज शुरू हुआ और शायद हफ्ते दस दिन मैं अस्पताल में में भर्ती रहा। कहना न होगा इस दौरान दोनों मेरी सेहत को लेकर बहुत व्याकुल रहे। विशेष रूप मां अधिक परेशान रहीं। उन्हें चैन तब आया जब मुझे अस्पताल से डिसचार्ज किया गया। हम घर आ गए। तब तो नहीं पर किशोरावस्था लांघने के बाद में दीवारों में छिपकली को देखकर घिन आने लगी। पर उसे मारने के बजाय भगाने का प्रयत्न करता हूं। दरअसल मैं उन्हें जिंदगी के हिस्से के रूप में देखता हूं। वे घटना की याद दिलाती हैं। यादें जो सुखद रहती हैं और त्रासद भी।
इस घटना का ज्योतिष से क्या संबंध हो सकता है ? कुछ भी नहीं। लेकिन आशंका मन में हो तो वह उपाय के बारे में सोचने लगता है। हालांकि मुझे बिल्कुल याद नहीं कि छिपकली वाली घटना पहले घटी या बाद में। बहरहाल जिस तरह फेरीवाले अपना सामान बेचने के लिए घर घर दस्तक देते हैं, उसी तरह भविष्य बताने वाले धंधेबाज भी मोहल्ले में मंडराते हैं। ऐसे ही एक दिन एक फेरीवाला भविष्य वक्ता घर के बाहर प्रगट हो गया। और आवाज देने लगा। मां बाहर आई और उसकी बातों में आकर अपना व मेरा भविष्य जानने उतावली हो गई। उसने मां को कितने रूपयों से उतारा, नहीं जानता पर मेरी उम्र ज्योतिषी ने 60 बरस बताई। साठ , सिर्फ साठ बरस सुनकर मां खुश नहीं हुई। वे सौ बरस चाहती होंगी। और पिताजी ! उन्हें इस बारे में कुछ मालूम न था। उस समय नहीं जानता था कि हमारे बाबू साहेब की ज्योतिष विद्या में रूचि थी अथवा नहीं। मैं लेकिन बाद में इसका ज्ञान राजनांदगांव में हुआ। राजनांदगांव में पिताजी को जब कभी वक्त मिलता, वे मेरी हथेली अपने हाथ में लेकर लकीरों का गणित समझने का प्रयत्न करते। वे छोटे भाई बहन का भी हाथ देखते थे लेकिन मेरी हथेली उनके लिए रहस्यमय थी। दरअसल मेरी हथेली पर उभरी हुई लकीरें आपस में इतनी कटी-पिटी थीं कि उसे बुझना किसी चुनौती से कम न था। और तब मैने जाना पिताजी को ज्योतिष विद्या का ज्ञान था। वे जब लकीरें पढते थे तो उनका चेहरा चमकता था, वह चिंतामग्न या गंभीर नजर नहीं आता था। महसूस होता था कि वे रेखाओं को समझकर अर्थ ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। मजे की बात यह है कि वे बताते कुछ नहीं थे। मुझे भी जानने की उत्सुकता नहीं रहती थी। मुझे तो इसीमें आनंद आता था कि उनके हाथ में मेरा हाथ है, सुकूनभरा। और वे मेरे पास बैठे हुए हैं।
पिताजी के ‘नया खून ‘ में काम करते हुए उनकी पत्रकारीय प्रतिभा परवान चढ़ी। मै नहीं कहता कि वे खबरों पर काम न करते होंगे। पत्रकारिता की शुरुआत खबरों से होती है। और संपादक की नजरों से वे गुजरती ही हैं। वाम रूझान का ‘ नया खून ‘ मुख्यतः समाचार-विचार का साप्ताहिक पत्र था इसलिए रोजाना घटित घटनाओं से संपादक व संपादकीय सहयोगियों का , इतना ही सरोकार रहता होगा कि सप्ताह भर की खबरों में से अति महत्वपूर्ण खबरों का चयन कर पृष्ठ बनाए जाए। लिहाजा पिताजी की नजर उन पर रहती होगी। और इसी आधार पर संपादकीय टिप्पणी के साथ विचार पेज पर वे राजनीतिक व गैरराजनीतिक लेख वे लिखा करते थे। यदि वे ‘ नया खून ‘ में न रहते तो कहा नहीं जा सकता कि उनकी पत्रकारिता का तेजस्वी स्वरूप अन्य किस माध्यम से से सामने आता। यानि नया खून उनकी पत्रकारिता का आधार स्तंभ था हालांकि उस जमाने के ‘कर्मवीर’ व ‘सारथी ‘जैसे महत्वपूर्ण व वैचारिक पत्रों में कल्पित नामों से वे नियमित लेखन करते थे। उनकी राजनीतिक टिप्पणियां परिस्थितियों के सटीक आकलन के साथ भविष्य का भी संकेत देती थीं। हालांकि उनकी पत्रकारिता पर हिन्दी साहित्य जगत में अपेक्षाकृत कम चर्चा या पडताल हुई।
पिताजी के ‘ नया खून ‘ में रहते हुए उनके लिए उनके मित्र बेहतर नौकरी के लिए प्रयत्न कर रहे थे। राजनांदगांव से शरद कोठारी का नागपुर आना जाना शुरू हो गया था। वे मारेस कालेज के छात्र थे। घर आते थे। एकाधिक बार मैंने उन्हें अपने यहां देखा। अलबत्ता पिताजी से वे बाहर मिलते ही होंगे। उन्होंने राजनांदगांव में नये नये खुले दिग्विजय महाविद्यालय में लेक्चरर की नौकरी के लिए अपने प्रयत्न शुरू किए। वे तथा कन्हैया लाल अग्रवाल जी कालेज की मैनेजिंग कमेटी में थे। पिताजी को आवेदन भेजने कहा गया। और शायद उसी समय नयी दिल्ली में श्रीकांत वर्मा जी ने भी कोई प्रस्ताव भेजा। राजनांदगांव छोटा शहर था। अब दो शहरों में से किसी एक का चयन करना था। पिताजी ने दिल्ली का मोह छोडा व राजनांदगांव के निजी दिग्विजय महाविद्यालय को चुना। यकीनन यह बेहतरी की ओर एक कदम था। यहां उन्हें प्राध्यापक की नौकरी मिल गई और यहीं से परिवार के कुछ अच्छे दिनों, महीनों की शुरुआत हुई।
अलविदा नागपुर। राजनांदगांव जाने की तैयारी शुरू हो गई। पहले पिताजी व बडे भाई चले गए। कुछ दिनों बाद पिताजी हमें लेने आए। घर का साजोसामान पहले ही रवाना कर दिया गया था। दिन , तारीख या महीना याद नहीं। इतना याद है हम ट्रेन में बैठ गए थे और पिताजी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी देरी मां को बेचैन कर रही थी। ट्रेन रवाना होने के ठीक पहले पिताजी रेलवे ब्रिज की सीढी से नीचे उतरते नजर आए। मां की जान में जान आई। ट्रेन छूटी और इसके साथ ही यह दृश्य दिमाग में कुछ इस तरह कैद हुआ कि जब कभी मैं ट्रेन से नागपुर आता हूँ या नागपुर होकर गुजरता हूँ तो अनायास उस पुल पर कुछ पल के लिए नजर ठहर जाती है जहां पिताजी सीढी से नीचे उतरते मुझे दिखाई दिए थे। कभी न भूलने वाला नागपुर का अंतिम दृश्य।
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(क्रमशः)