साॅंझ उतरती यादों की
तुम यादों के अतल गर्म में,मैं धरती पर रहती हूॅं।
मौन तुम्हारा मुखरित करने,मैं शब्दों से गहती हूॅं।
दुःख के करघे खूब चले थे ,
कथ्य शिल्प सब उलझ गए।
कर्त्तव्यों का बोध हुआ जब,
मर्म हृदय की समझ गए।
गीले नयनों की बगिया से,बूँद- बूँद सी बहती हूॅं।
तुम यादों के अतल गर्म में,मैं धरती पर रहती हूॅं।
जब बजती साॅंकल चौखट की,
नयन द्वार तक जातें हैं।
उमड़ -घुमड़ कर यादों के घन,
ऑंगन में बरसातें हैं।
जीवन के इस सांध्य काल में,दुख विरहन का सहती हूॅं।
तुम यादों के अतल गर्म में,मैं धरती पर रहती हूॅं।
साॅंझ उतरती धीरे -धीरे,
आस लिए मुरझाई सी।
देख उदासी घर ऑंगन की,
सहम रही परछाईं सी।
दुहरे दिखते लोग यहाॅं पर,बात यही अब कहतीं हूॅं।
तुम यादों के अतल गर्म में, मैं धरती पर रहती हूॅं।
संबंधों का डोर थाम कर,
स्वप्न अनमने आतें हैं।
अन्तर्मन में वही पुरानी,
व्यथा देख घबरातें हैं।
नींव रहीं मैं अनुबंधों की,भीत पुरानी ढहती हूॅं।
तुम यादों के अतल गर्म में,मैं धरती पर रहती हूॅं।
नवनीत कमल
जगदलपुर छत्तीसगढ़
चित्र गूगल से साभार