सापेक्ष्य-संवेदन
बम फटने का
दु:ख तो होता है पर
उतना ज़्यादा नहीं,चाय के —
ठंडे होने के दु:ख जितना।
कहीं देखकर बलात्कार की कोई घटना
उतनी देर तड़पती नहीं रहतीं धमनियां
जितनी उस क्षण —
जब दो परिचित -सी आकृतियां
नीची आंखें किए,परस्पर
बिना कहे कुछ —
पास-पास से गुजर गई हों।
दु:ख होता है अगर किसी की
मिली नौकरी छूट गई हो
लेकिन उतना नहीं
कि जितना —
बार-बार सुनने पर भी फटकार
आदमी,लौट काम पर
फिर आया हो —
कालर फटी कमीज़ पहनकर।
वह दु:ख सभी सहन कर
लेते हैं जो अरथी के उठने पर
उग आता है —
लेकिन यह असह्य संवेदन
मन को तोड़ -तोड़ जाता है —
यात्राओं की अंतिम गाड़ी
एक छोर पर रुकी हुई हो
पंगुल बच्चों की कतार जब
सड़क पार करने की आतुर मुद्राओं में
बैशाखी पर झुकी हुई हो।
— सुदामा पांडेय धूमिल 🌼
तस्वीर: काशीनाथ सिंह जी के साथ धूमिल
कविता साभार: चंद्रेश्वर जी