ठहाकों के शहंशाह- “स्मृति शेष संत, कवि पवन दीवान”
वीरेन्द्र ‘ सरल ‘
ठहाकों के शहंशाह लेख का यह शीर्षक पढ़ने से शायद आपको यह लगे कि किसी कॉमेडी शो के कॉमेडियन , मिमक्री आर्टिस्ट या किसी चुटकुले बाज हास्य कवि की चर्चा आगे की जाएगी? लेकिन मैं इस लेख के माध्यम से एक ऐसे विराट व्यक्तित्व को आदरांजलि अर्पित करते हुए धन्यता का अनुभव कर रहा हूँ। जिसने जीवन भर अपने आंसू छिपाकर न केवल मुस्कुराते रहे बल्कि ठहाका लगाते हुए सबको ठहाका लगवाते रहे। निच्छल मुस्कान और उन्मुक्त हँसी जिनके व्यक्तित्व का ऐसा आभूषण था, जिसके सामने करोड़ों की दौलत से खरीदा गया हर आभूषण फीका लगता था। बाल, वृद्ध, युवा, नर और नारी सबके श्रधेय, लोकप्रियता के सिंहासन पर विराजित सन्त, कवि ,पवन दिवान जी भले ही अब स्मृति शेष हो गए हैं। पर उनका नाम और काम आज भी हर जुबान पर है।
” तुलसी इस संसार में भांति-भांति के लोग ” । यह दुनिया आश्चर्यों से भरी हुई है । कुछ लोग अपनी आदत से मजबूर होकर किसी हँसते हुए को रुलाने का पाप करते हैं तो वहीं कुछ लोग रोते हुए को हंसाने का पुण्य कमाते हैं। ” कबीरा जब हम पैदा हुए , जग हँसे हम रोय, ऐसी करनी कर चलो हम हँसे जग रोय ” दीवान जी का यही जीवन मंत्र था। हँसना और हँसना कोई साधारण काम नहीं है। इसे तो वही कर सकता है जिसके पास एक संवेदनशील हृदय हो, सचेत मस्तिष्क हो और दुनिया को देखने और समझने के लिए खुली आंखे हों। जो आदमी समाज की पीड़ा को महसूस करके, खुद फकीरों जैसे जीवन यापन करके किसी रोते हुए को हँसा दे । उससे बड़ा व्यक्तित्व दूसरा कोई और हो ही नहीं सकता ।
संत कवि पवन दीवान एक ऐसे ही शख्सियत थे जिनका जीवन फकीरों का था मगर शहंशाह की तरह जीते थे। फकीर होकर भी शहंशाह की तरह ठहाके लगाते थे। उन्हें ठहाके लगाते देखकर यह तय करना मुश्किल होता था कि यह किसी फकीर के ठहाके हैं या वे स्वयं ठहाकों के शहंशाह हैं।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्वेट मार्डन ने कहा है कि. “प्रसन्नता में ही यौवन के प्रसून खिलते हैं ” । एक ग़ज़लकार ने लिखा है कि ” घर से मस्जिद है दूर चलों यूं कर लें , किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए ” । स्मृति शेष संत कवि पवन दीवान एक ऐसे ही चुम्बकीय व्यक्तित्व के धनी थे जिनकी स्नेह छाया में न जाने कितने जीवन को आशा की किरण दिखाई देती थी। जीवन से उदास और निराश व्यक्ति उम्मीद की एक किरण लेकर फिर से जीवन पथ पर आगे बढ़ते थे और आनंद की प्राप्ति करते थे । जब लोग गहन आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचारों को सहसा आत्मसात नहीं कर पाते थे, ऐसे समय में छत्तीसगढ़ के प्रयागराज राजिम के निकटस्थ ग्राम किरवई में एक जनवरी सन उन्नीस सौ पैतालीस को एक संत अवतरित हुए। जिन्हें भगवान राजीवलोचन की ऐसी भक्ति और शक्ति मिली कि राजिम ही उनकी कर्म स्थली बन गई। भगवान राम के अनन्य सेवक और माता कौशल्या के आराधक दीवान जी जब छत्तीसगढ़ महतारी की गौरव गरिमा से परिचित हुए तो अभिभूत हो उठे। इतनी पावन भूमि जहां स्वयं भगवान राम को जन्म देने वाली माता कौशल्या ने जन्म लिया हो। अहा! कितना बड़ा सौभाग्य है हमारा? जहां न जाने कितने जन्मों के पुण्योदय से हमारा जन्म हुआ है।
फिर दीवान जी भगवान राजीव लोचन का आशीर्वाद जन- जन में भक्ति की धारा बहाने और छत्तीसगढ़ की अस्मिता और स्वाभिमान को जगाने चल पड़े। अपनी वाणी से भागवत कथा के मंचों पर ऐसा समां बांधने लगे कि ना तो वहां संगीत की आवश्यकता पड़ती थी और ना ही किसी साज-श्रृंगार या झांकी की। अपनी ओजस्वी वाणी , अपने अनूठे अंदाज , अपनी चुटीली शैली और मधुर कंठ के जादू से जनमानस को घंटा रोक करके रखना और अध्यात्म और दर्शन की गहरी से गहरी बात को लोक भाषा में समझा कर सहज रूप से आत्मसात कर देना पवन दीवान जी जैसे किसी तपस्वी के बलबूते की बात ही हो सकती है।
दीवान जी का वैसे तो आध्यात्मिक नाम स्वामी अमृतानन्द था पर लोग उन्हें श्रद्धा से पवन दीवान जी के नाम से ही जानते और पहचानते थे। एक समय ऐसा भी था जब लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते थे कि कब और कहां दीवान जी का भागवत कार्यक्रम हो तो वहां पर उनके दर्शन और उनके श्री मुख से भागवत कथा सुनकर धन्यता का अनुभव करें । जहां-जहां दीवान जी के भागवत कथा का आयोजन होता था वहां पर जन सैलाब उमड़ पड़ता था। जैसे ही संत दीवान जी व्यास पीठ पर आसीन होते थे और अपनी काव्यात्मक शैली में भगवान राजीवलोचन की वंदना करते हुए कहते कि —-
” जहां घण्टियों का सरगम, जहां वंदना की वाणी। महानदी की लहर लहर में गाती कविता कल्याणी।
अमर सभ्यताएं सोई है महानदी की घाटी में।
मेरे भी पावन जन्मों का पुण्योदय इस माटी में ।
कण-कण आतुर हो जाता है लेने जिसका पावन नाम ।
अखिल विश्व के शांति प्रदायक राजीव लोचन तुम्हें प्रणाम। ”
यह सुनते ही पूरा पंडाल तालियों से गूंज उठता था और श्रोता गण भगवान राजीव लोचन के श्री चरणों में नतमस्तक हो जाते थे। फिर निर्बाध रूप से भागवत की कथा और जीवन की व्यथा साथ- साथ दीवान जी के श्रीमुख से मुखरित होती थी। श्रोता के मिजाज और समझ के अनुरूप रस परिवर्तन कर फिर से मुख्य विषय पर ध्यान केंद्रित कर देना दीवान जी को खूब आता था और इसके लिए उनका सबसे बड़ा हथियार था हास्य। जहां भी दीवान जी को यह लगता कि बहुत गहन आध्यात्मिक बातों से श्रोता उबने लगे हैं , आध्यात्मिक बातें उनके सिर के ऊपर से गुजरने लगी है। तो वे हास्य के हथियार का प्रयोग करते हुए तुरंत हास्य की धारा बहाने लगते। जिनमें कुछ छोटी हास्य कहानियां होती, कुछ चुटकुले होते या रोजमर्रा की कुछ रोचक घटनाएं होती और उनकी तुरन्त रची हुई कविताएं तो होती ही थी। दीवान जी आशू कवि थे। तुरंत कविता रच देने में उन्हें महारत हासिल थी। वैसे भी दीवान जी तीन भाषा संस्कृत, अंग्रेजी और हिंदी के प्रकांड विद्वान थे और छत्तीसगढ़ी तो उनकी मातृभाषा ही थी। दीवान जी जानते थे मातृभाषा में कही गई बातों का असर जनमानस पर ज्यादा होता है। वह अवसर एवं प्रसंग के अनुकूल अपनी कविता रखते थे। उनके पास शब्दों का अक्षय भंडार था और भावों की अथाह गहराई थी। इन दोनों के मेल से सोने में सुहागा की स्थिति बनती थी और एक खास बात यह भी कि उनकी उनकी आवाज ही ऐसी थी जो चाहे तो पत्थर में फूल खिला दे और पानी में आग लगा दे । वे श्रृंगार और अंगार को एक साथ जीते थे। मौसम ठंड का हो तो उनकी यह कविता लोगों के सिर चढ़कर बोलती थी कि———-
” ये पईत अड़बड़ लाहो लेवत हावे जाड़ हे।
दाँत किनकिनावत हे, कान सनसनावत हे।
नरम – नरम खटिया और गरम-गरम गोरसी।
अइसन म को जही किरवई अउ बोरसी।
देख तो शहरिया मन पहिरे कनटोप।
दाई कहे ये टुरी लइका ल तोप। ” ——
यह एक लंबी कविता है जिसमें ठंड ऋतु का लोक भाषा के माध्यम से दीवान जी ऐसा चित्रण करते थे कि श्रोता घण्टो ठहाके लगाते रहते।
इसी प्रकार जब जीवन की नश्वरता की बात आती थी तो राख कविता का वाचन करने लगते । राख के माध्यम से जीवन के अंतिम पड़ाव मृत्यु की सच्चाई का समझाते हुए दीवान जी अपनी कविता में राख को दो अर्थ में प्रयोग में लाते थे। एक राख का आशय छतीसगढ़ी में रखने से है और वही राख का दूसरा आशय हिन्दी ख़ाक से है। मनुष्य जीवन भर मोह से बंधा होता है । इसीलिए तो रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने मोह को सभी व्याधियों का जड़ कहा है ” मोह सकल व्याधि के मूला ” और इसी भाव को बहुत सरलता और सहजता के साथ दीवान जी अपनी राख कविता के माध्यम से जनमानस को समझाते थे ।
जब भी भ्रष्टाचार और महंगाई की बात आती तो दीवान जी किसानों की पीड़ा को अभिव्यक्ति करते हुए इस कविता को जरूर सुनाते कि ——-
” करलई हे भगवान, अब कईसे करें किसान।
महंगाई ह टोनही होगे भ्रष्टाचार मसान ।
करलइ हे भगवान अब कईसे करें किसान।
दू-दू दाना गहुँ मिलत हे, थोथना म चटकालव।
हमर कमई म पेटला मन सब चारेच दिन मटका लेव। ”
इसी तरह जब उन्हें राजनीतिक भ्र्ष्टाचार के बारे में व्यंग्य करना होता तब यह कहते कि ———-
शक्कर ल सब चांटा खादिस, तेल ल पिदिस मुसुवा
जनता होगे रिंगि-चिंगी , नेता मन सब कुशवा”
दीवान जी की यह खास विशेषता थी कि कथा में जैसे-जैसे प्रसंग आते जाते वैसे – वैसे उनके अनुकूल शब्दावली के साथ अपनी कविता सुनाते चलते थे और उसी कविता का आनंद लेते हुए श्रोतागण घण्टो ठहाका लगाते रहते। दीवान जी की यही विशेषता उन्हें अन्य भगवताचारियों से अलग करती थी। श्रोताओं के मिजाज और समझ के अनुसार अपनी बात कहने की कला दीवान जी को खूब आती थी। दीवान जी ठहाकों के शहंशाह थे। खुद भी हँसते थे और औरों को भी हँसाते रहते थे।
मंच चाहे भागवत कथा का हो, राजनीतिक हो, कविसम्मेलन का हो या अपनों के साथ कहीं भी जमी हुई महफ़िल हो। ठहाके दीवान जी के होठों पर ऐसे चिपके होते जैसे फूल के साथ सुगन्ध। हास्य उनके जीवन का ऐसा अभिन्न अंग था जिससे अलग होकर दीवान जी जीं नहीं पाते थे। जीवन के कडुवे अनुभवों को भीतर दबा कर हास्य की निर्मल धारा बहाना ही उन्हें प्रिय था। आज दीवान जी भले ही स्थूल शरीर से हमारे बीच नहीं हैं पर उनके ठहाकों कि गूंज उनके हर चाहने वालों के कानों में रस घोलती है।
” किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द ले सको तो उधार , जीना इसी का नाम है ” या “जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना ” पूरी मस्ती और फक्कड़ता से यह गीत गाते हुए जीना दीवान जी हम सबको सिखा कर गए हैं।
तोर धरती तोर माटी रे भैया, तोर धरती तोर माटी।
धरती बर हे सबो बरोबर का हाथी का चांटी। रे भैया—-
अपने इस गीत के माध्यम से आपसी प्रेम, भाईचारा, सहिष्णुता, सौहाद्रता जैसे मानवीय मूल्यों का हर हृदय में बीजारोपण करने का स्तुत्य और अभिनन्दनीय प्रयास करते हुए दीवान जी पंचतत्व में विलीन हुए हैं। उनके प्रेरक विचारों एवं उनके आदर्शों को हम यदि अपने जीवन में उतार कर एक समतामूलक समाज, सुदृढ राष्ट का निर्माण कर सके तो यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
आइए हम दीवान जी के कविता की इन पंक्तियों को दोहराते हुए राष्ट निर्माण में अपनी महती भूमिका सुनिचित करें कि———
” तुझमे जन्में गौतम, गाँधी, राम-कृष्ण बलराम।
मेरे देश की माटी , तुझको सौ-सौ बार प्रणाम। ”
वीरेन्द्र सरल
ग्राम-बोडरा ( मगरलोड )
पोस्ट-भोथीडीह
व्हाया-मगरलोड
जिला- धमतरी ( छत्तीसगढ़)
पिन-493662
मो-7828243377