ठठेरी गली में भारतेन्दु को याद करते हुए
बनारस में दो रातें बीत चुकी थीं फिर भी बेचैनी भीतर थी. घाटों में पैदल से लेकर नाव तक मस्ती के साथ खूब-खूब घूमा था. दशाश्वमेध से लेकर अस्सीघाट तक. रिक्शे में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से लेकर काशी विश्वनाथ तक के आठ किलोमीटर की दूरी को अस्सी घाट की गंगा में डुबा डुबा कर निकाला था जहाँ तुलसी ने अपने प्राण तजे थे. पंडा-महराज कहते हैं दुर्गा माता ने शुंभ और निशुंभ को यहां मारा था… पर यह म्लेच्छ शरीर है कि शांत नहीं होता. रुका भी था गंगा के पास स्थित मुमुक्षु भवन में पर मोक्ष का भी कोई सम्यक मार्ग नहीं दिखा.
आखिरकार रमाकांत श्रीवास्तव की उक्ति काम आई कि “बनारस में जब भी तुम्हें कोई रास्ता न सूझे तुम काशीनाथ सिंह से जरुर बात कर लेना”… और मैंने उनका नंबर घुमा दिया. किसी नौजवान की आवाज थी “मैं उनका पुत्र बोल रहा हूँ. पिताजी को बुलाता हूँ.” थोडा अन्तराल आया और मेरे सामने उनके बड़े भाई नामवर सिंह पर लिखा उनका आख्यान ‘घर का जोगी जोगड़ा’ का आत्मीय संसार घूम गया. कितना जीवंत वातावरण रच लेते हैं काशीनाथ जी. पिछ्ले दिनों ‘हंस’ में उनका एक लम्बा कथा रिपोर्ताज छपा था ‘लंका बांके बारि दुआरा’. बनारस के घटनाक्रमों पर लिखे गए इस रचना के छपने के बाद अगले अंक में पाठकों की इतनी उत्साह भरी प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं तब यह मालूम हुआ कि काशीनाथ जी का संसार कितना विराट है. ‘काशी का अस्सी’ उनकी प्रतिष्ठा को और भी बढ़ाने वाली उनकी कृति है. एक बार रायपुर में कहानी पर हुए कार्यक्रम में उन्हें देखा सुना था. संयोग से उसमें राजेन्द्र यादव भी आ गए थे.
“हाँ…विनोद.” एक सधी हुई आवाज मोबाइल पर सुनाई दी “रमाकांत ने तुम्हारे बारे में बताया था… मैंने कहा विनोद साव को मैं जानता हूँ.” फिर यह भी कहा कि “मैं तुम्हें मुझसे मिलने की औपचारिकता से मुक्त करता हूँ… परिवार सहित आए हो तो बनारस घूमो फिरो और ऐश करो. भेंट तो हमारी कहीं भी हो जाएगी.” एकदम ठेठ बनारसी रंग में उन्होंने कह दिया था.
बनारस में पूरी शांति न मिले तो आदमी और कहाँ जाएगा? बरसों से बनारस का इतना हल्ला सुनता आ रहा था पर आज यह पहला मौका मिला है इस शहर से रूबरू होने का. आखिर बेचैन मन उनसे यह पूछ ही बैठा ‘भारतेंदु जी का मकान कहाँ है सर?”
“ठठेरी गली में… काशी विश्वनाथ का जो मंदिर हैं ना उसके पीछे. पुराने बनारस का इलाका है यह. यहां संकरी गलियां बहुत हैं उसी में एक गली है ठठेरी गली.”
अपने भरे पूरे परिवार को मुमुक्षु भवन में सोता छोड़कर मैं तडके सबेरे ही बाहर आ गया था.
“भारतेंदु भवन कितना लेंगे?”
“दूर है साब… तीस रूपए लगेंगे.” रिक्शे वाले ने कहा.
“अरे चल भैया चल!” मेरे स्वर में आतुरता थी.
कहते हैं ‘शबे मालवा, सुबहे बनारस और शामे अवध.’ यह बनारस की सुबह थी. बनारस की गर्वोक्तियों में से एक. हर पल अपनी प्रकृति बदलता शहर. पर जो भी आदमी जहाँ खड़ा है पूरे ठसन के साथ है. मोटर साइकिल किसी गली में पहले घुस गई तो ऑटो वाले को पीछे हो जाने की धमकी है. अब ऑटो के पीछे की ट्रैफिक कैसे पीछे हटे ये उसकी बला है. गलियों में खान-पान का नशा ऐसा है कि सुबह से ही कचौड़ी गली और इमरती गली में भीड़ है. मॉर्निंग वाक में जाओ और गरमागरम कचौड़ी खाकर आओ.
हिंदी के अतिरिक्त बांग्ला भाषा में भी तख्तियां और निर्देश पट्टियाँ कहीं-कहीं देखने को मिलती हैं. कलकत्ते से इस शहर का कई मायनों में साम्य भी है- अराजक भीड़, मंदिर, मिठाइयाँ, गंगा घाट, रसिक मिजाजी, वाचाल और उन्मुक्त जीवन शैली- कई ऐसी बातें हैं जो इन दोनों शहरों में कूट कूटकर भरी हैं. ‘हा…हा…भारत दुर्दशा देखि न जाई’. मुझे भारतेंदु जी के हास-परिहास-उपहास सब याद आते हैं.
गदौलिया (गोधूलिया) का वह भरा पूरा इलाका आ गया है. जहाँ की भीड़ व उसके बाजार देखते बनते हैं. तिगड्डे पर कम्युनिस्ट पार्टी का बहुत पुराना कार्यालय भी दिख गया. एक रास्ता जाता है दशाश्वमेध घाट की ओर जो इस शहर का सबसे बड़ा संस्कृति पुंज है. शाम को यहां गंगा पूजा का दृश्यमय कार्यक्रम देखने के लिए पूरे देशी विदेशी पर्यटक टूट पड़ते हैं. क्या ही नजारा होता है जब कार्यक्रम घाट पर हो रहे होते हैं तब दर्शक-दीर्घा नदी में नाव पर सवार होकर कार्यक्रम को देखते हैं. दो दिन पहले ऐसा ही कुछ चित्रकूट में देखा था पर बनारस का दृश्य उसका दीर्घ संस्करण है. नंग धडंग विदेशियों को यहां नागा बाबा बने और त्रिशूल गाड़कर धूनी रमाए हुए भी देखा जा सकता है. एकाएक मुझे भारतेन्दु जी के नाटक ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ के दृश्य याद आते हैं.
गदौलिया के तिगड्डे से दूसरा रास्ता सीधा है थोड़े चढ़ाव के साथ. रिक्शे वाले को कष्ट हो रहा है और उसे देखकर मुझे भी “यह ठठेरी बाजार है साब…” वह बोल पड़ता है “इसी में ठठेरी गली है. रिक्शा गली में नहीं घुसता.”
मैं उतरकर उस पूरे इलाके को देखता हूँ. शहर का एकदम पुराना इलाका. एक भरपूर बाजार और उसके चारों और निकलती संकरी गलियां. मैं एक गली में घुसता हूँ और थोड़ी देर में ही भान होता है कि यह ठठेरी गली नहीं है. मैं फिर पूछता हूँ.
“वो देखिए उस दुकान के सामने चार लोग बैठे हुए हैं गप्पे मारते हुए. उनमें बांए से जो दूसरे हैं वो ठठेरी गली के रहने वाले हैं. उनसे पूछिए, आपको जो पूछना है.” एक राहगीर ने इशारा किया.
मुझे एकदम से विश्वास नहीं होता कि इतने पुराने लेखक के मकान को मैं सहजता से पा लूँगा. क्योंकि हमारा जनमानस किसी राजनेता के मकान को तुरत-फुरत बता है लेकिन किसी लेखक का मकान पूछने से वह सिर खुजाने लगता है. फिर भी विश्वास तो है क्योंकि मैं जहाँ जाना चाहता हूँ वे केवल लेखक नहीं है एक क्रान्तिकारी लेखक और बहुयामी व्यक्तित्व के धनी हैं.
दुकानें खुल रही हैं लेकिन शटर उठाने से पहले अपनी दुकान की सीढ़ियों पर बैठकर गपियाने का दुकानदारों का अपना सुख है. मैं चार के समूह में बैठे बांए से दूसरे नंबर के सज्जन के पास पहुँच जाता हूँ. उनसे सटकर उन्हें धीरे से पूछता हूँ “ठठेरी गली?” वे एक ओर इशारा करते हैं.
“एक बहुत पुराने साहित्यकार हुए हैं भारतेंदु हरिश्चंद्र… उनका मकान?”
“आप इस गली में दस मिनट तक चलते जाइए. बस सामने ही मिलेगा आपको भारतेंदु भवन.” जल्दी जानकारी मिल जाने पर मन को थोडा संतोष हुआ.
इस लम्बी संकरी गली पर मैं चलता हूँ. किसी तपे हुए साधक के उद्गम स्रोतों को तलाशते समय मैं थोड़े आवेश में होता हूँ. मेरे भीतर भावनाओं का लावा है. मुझे किसी जहाज के मस्तूल की तरह एक प्राचीन दो मंजिला भवन दीख पड़ता है. अब मैं एकटक उस भवन को देखता हुआ चलता हूँ. अब मुझे गली में कुछ भी दिखाई नहीं देता. न दुकाने…न लोग. मैं चलता जाता हूँ फ़ौज के उस जवान की तरह जिसे सौ गज दूर देखते हुए तनकर सीधा चलने का आदेश हुआ है. ऐसा लग रहा है जैसे मैं चल नहीं रहा हूँ इस गली का रास्ता मेरे पैरों के नीचे से पीछे की और खिसकता जा रहा है एस्केलेटर की तरह.
मेरे सामने भारतेन्दु भवन है. गली यहां से मुड़कर आगे जाती है इसलिए भवन के सामने थोड़ी जगह है. दो मंजिला अपेक्षाकृत ऊँचा और आकर्षक भवन है. यह अपने समय की खूबसूरत इमारतों में से एक रही होगी. ऊपर की मंजिल पर कोई कम्पूटर केंद्र चलता है जिसकी तख्ती लगी हुई है. नीचे मुख्य प्रवेश द्वार वैसा ही है जैसे जमींदारों की हवेलियों के हुआ करते थे. दरवाजे की दांयी ओर एक गोल स्तम्भ है उसके बाजू में सफ़ेद शिला पर काले अक्षरों से लिखा हुआ है ‘भारतेन्दु भवन’.
मकान से लगकर एक आमरस वाले का ठेला लगा है. मैं उसका आमरस खरीदता हूँ और उससे बातें करता हूँ “इस मकान के मालिक लोग रहते हैं?”
“काहे नहीं रहेंगे.” उसका ठेठ जवाब आया. उसके बताए अनुसार मैं अन्दर चला जाता हूँ. मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही भीतर बांयीं ओर घुमावदार सीढ़ी है जिसमें कम्पूटर प्रशिक्षण के लिए आने जाने वाले बच्चे हैं. मैं उनमें से एक से भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बारे में पूछता हूँ पर वह अनभिज्ञ है. नीचे पुराने फर्नीचरों का कबाड़ पड़ा हुआ जिनसे कभी यहां शानो-शौकत हुआ करती रही होगी. दांयी ओर एक दरवाजा बंद है पर भीतर झाँकने के लिए कांच लगा हुआ है. भीतर का हिस्सा नवनिर्मित और थोड़ी चमक-दमक वाला है. मैं दरवाजा खटखटाता हूँ इस उमीद से कि भारतेंदु के वंशज में से कोई दिख जाए. एक कम उम्र नौकर निकलता है जैसा कि यू.पी में रखने का चलन है. वह ठीक से मकान में रहने वालों के बारे में बता नहीं पाता और उनके मिलने का समय बारह बजे कहता है जबकि इसी वक्त मेरी ट्रेन है. मैं आश्वस्त नहीं हो पाता हूँ… और एक आवेग के साथ बाहर आ जाता हूँ.
अपना कैमरा निकालकर और आसपास के मकानों की सीढियों का सहारा लेकर कुछ चित्र बाहर से भारतेंदु भवन का खींच लेता हूँ. यह अब बिजली के खम्भे से निकलने वाले तारों से घिर गया है. मकान के बाहर एक खास किस्म का व्यंजन बिकना शुरु हो गया है. यह कड़ाह में भरा हुआ है. इसे कुल्हड़ में भर भरकर लोग लकड़ी के चम्मच से खा रहे हैं.
बेचने वाला चिरपरिचित बनारसी गर्वोक्ति के साथ बताता है “यी मलैया है बनारस का खास आइटम. जाड़ा काल में बनता है. दूध को रात भर छत में रखा जाता है जिस पर ओस गिरने के बाद सबेरे उसे मेवा डालकर मथा जाता है.” सबेरे ही इसे खाने के लिए कॉलेज के लड़के लड़कियों का हुजुम दौड़ा चला आया है. मैं काशीनाथ जी को मोबाइल करता हूँ “हाँ सर… मैं ठठेरी गली भारतेंदु निवास से विनोद बोल रहा हूँ.”
“अच्छा हाँ… क्या कर रहे हो भई अभी वहां.” उनका आत्मीय स्वर गूंजता है.
“मलैया खा रहा हूँ.”
“वाह!” ठीक ऐसा ही स्वर ‘अहा’ का गूंजा करता है भारतेन्दु बाबू के रचना संसार में जगह-जगह कभी अल्हादयुक्त तो कभी विषादयुक्त.
मैं खड़ा हूँ उस जमीन पर जहाँ डेढ़ सौ वर्षों पूर्व भारतेन्दु का किलकता बचपन और उद्दाम यौवन बीता था. मैं उन गणिकाओं को भी याद करता हूँ जो भारतेन्दु जी के गीतों को गाया और खेला करती थीं. उस सुन्दर प्रेयसी ‘मल्लिका’ का मुखड़ा भी उभरता है जिनके साथ उनका चित्र कभी देखा था… और उभरते हैं भारतेन्दु बाबू के तीखे नाक, नक्श, उनके घुंघराले बाल और दांयी ओर लटकती बालों की एक लट. इस काशी पर उनके कितने ही आलेख भरे पड़े हैं. घाटों और मंदिरों पर पड़े कितने ही खंडित शिलालेखों और मूर्तियों को धरकर वे इसी घर में ले आया करते थे और फिर उनका विश्लेषण कर इसी घर से अपनी अनमोल रचनाएँ लिखा करते थे. वे न केवल एक लेखक बल्कि इतिहासकार और पुरात्वेत्ता जैसी दृष्टि भी रखते थे. यहीं हिंदी का सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य नाटक ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ लिखा गया था जो सवा सौ सालों से आज तक निर्बाध गति से मंचों और नुक्कड़ों पर खेला जा रहा है. इसीलिए इतिहासकार ग्रियर्सन ने भारतेंदु को तब भी उत्तर भारत का सबसे ‘सेलिब्रिटेड राइटर’ बताते हुए उन्हें एक प्रखर सामाजिक आलोचक के रूप में मान्यता दी थी. वे हमारी आधुनिकता के प्रथम शिल्पी थे.
यह यात्रावृत्त छपने के बाद देशबन्धु अवकाश अंक की प्रति को भारतेन्दु भवन के पते पर भेजता हूँ. तब वहां से भारतेन्दु जी के चौथी पीढ़ी के वंशज प्रो.गिरीश जी का फोन आता है वे आत्मीय शिकायती लहजे में कहते हैं कि “विनोद जी मेरे पूर्वजों पर आपने इतना सुन्दर आलेख लिखा है तो आपसे नहीं मिल पाने का मलाल हो रहा है.”
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विनोद साव (देशबन्धु अवकाश अंक फ़रवरी २००६ में प्रकाशित यात्रावृत्तांत- आज भारतेन्दु जी की पुण्यतिथि पर स्मरण)