November 21, 2024

“स्त्री विमर्श के काव्य मूल्य ” (भाग 1)

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समकालीन कविता में गहरी दिलचस्पी रखनेवाले श्रीनारायण समीर एक प्रबुद्ध आलोचक हैं। उन्होंने नक्सल बाड़ी आंदोलन और आठवें दशक की कविता पर काम किया है। पिछले दिनों उन्होंने स्त्री कविता पर एक लंबा लेख लिखा है। हम चार किश्तों में उनका लेख दे रहे हैं।

———- – श्रीनारायण समीर

स्त्री विमर्श, स्त्री अस्मिता को केंद्र में रखकर उसकी आकांक्षा और अपेक्षा के अनुरूप साहित्य लेखन का एक सर्जनात्मक आंदोलन है । हाशिए के समाजों ( सबॉल्टर्न ) के अस्मितावादी विमर्श, जैसे दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श के समान स्त्री विमर्श भी हमारे समय का एक प्रमुख साहित्यिक आंदोलन है । लिंग एवं रंग के आधार पर भेदभाव का विरोध, पितृसत्तात्मक समाज – व्यवस्था पर पुनर्विचार, अवसर की समानता, न्यायपूर्ण और बराबरी का व्यवहार तथा देह और दैहिक तुष्टि एवं प्रजनन का अधिकार आदि की मांग इस विमर्श के विविध आयाम और सरोकार हैं। स्त्री विमर्श का साहित्य इन्हीं सरोकारों की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है । स्त्री विमर्श की हिंदी कविता भी, स्त्री अस्मिता के बहाने स्त्री की भावनाओं, समस्याओं और सवालों तथा मान – मूल्यों को पूरी मुखरता के साथ अभिव्यक्त करनेवाली कविता है । अकारण नहीं स्त्री विमर्श की हिंदी कविता का मतलब स्त्री अस्मिता की आवाज बुलंद करने वाली कविता से लिया जाता है ।

हिंदी सहित अन्यान्य भारतीय भाषाओं के साहित्य – लेखन में स्त्री विमर्श की अवधारणा यूरोप के ‘फेमिनिज़्म’ या कहें कि ‘फेमिनिस्ट डिस्कोर्स’ से प्रभावित और आयातित है । वैसे, अवधारणा के स्तर पर इस विमर्श के मूल्य पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के शोषण, दमन, यातना और कारुणिक जीवन की दारुण सच्चाइयों से इस कदर बँधे हुए हैं कि यदि यह हमारे यहाँ आयातित न होता , तब भी स्त्री शिक्षा के प्रसार के साथ – साथ विकसित, प्रसरित तथा मुखर होता । तब शायद भारतीय समाज के तकाजों एवं आंतरिक जरूरतों के चलते विकसित इस विमर्श का स्वरूप वैसा नहीं होता, जैसा कि आज है । भारतीय परिवेश में विकसित स्त्री अस्मिता की चेतना तब कदाचित मर्दवादी चिंतन और व्यवहार के प्रतिकार में एकांतिक होने के बजाय समावेशी, तलस्पर्शी और परिवर्तनकामी होती । महादेवी वर्मा के साहित्य, खासकर उनके रेखाचित्र और ‘शृंखला की कड़ियाँ’ जैसे स्त्री विषयक निबंध संग्रह से इसे समझा जा सकता है ।

बहरहाल, यूरोप में यह विमर्श 20 वीं शताब्दी में वर्जीनिया वुल्फ, सिमोन द वोउआ तथा मैरी एलमन के लेखन से प्रेरित होकर शुरू हुआ । वर्जीनिया वुल्फ की पुस्तक ‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’ 1929 में प्रकाशित हुई और इसने औरत के जीवन से जुड़ी समस्याओं, नारी अस्मिता के वेधक सवालों एवं अपने खुले विचारों से पश्चिम के वैचारिक जगत में तहलका मचा दिया । इसके बाद 1949 में सिमोन द वोउआ की किताब ‘द सेकंड सेक्स’ आई । इस किताब के विमर्श एवं स्थापना से स्त्री अस्मिता के सवालों को व्यापकता और गहराई मिली । इसने एक तरह से यूरोप के सामाजिक जीवन में पुरुष वर्चस्व की चूलें हिला कर रख दीं । तत्पश्चात 1968 में मैरी एलमन की पुस्तक ‘थिंकिंग अबाउट वीमिन’ आई । इन सब का नतीजा हुआ कि स्त्री अस्मितावादी विमर्श विचार एवं वैचारिक प्रतिवाद की दुनिया में हमेशा के लिए स्थापित हो गया ।

एक सशक्त स्त्रीवादी विचारधारा के तौर पर दुनियाभर की महिलाओं का प्रिय विषय, स्त्री विमर्श का मानना है कि स्त्रियों के मूल्य पुरुषों द्वारा स्थापित मूल्य से भिन्न होते हैं । फिर भी पुरुषों के मूल्य ही प्रचलित होते हैं और स्त्रियों के मूल्य उपेक्षित कर दिए जाते हैं । ठीक वैसे ही, जैसे क्रिकेट और फुटबॉल के खेल महत्त्वपूर्ण समझे जाते हैं, जबकि फैशन करना और कपड़े खरीदना महत्त्वहीन मान लिए जाते हैं । वर्चस्व के यही मूल्य जीवन से ले जाकर साहित्य में जड़ दिए जाते हैं । स्त्री की अनुभूतियों और भावनाओं का उद्घाटन करती किताब की तुलना में सामाजिक समस्याओं को उकेरता कथा साहित्य महत्त्वपूर्ण मान लिया जाता है । स्त्री विमर्श, मूल्यों की इस भिन्नता का तथा लैंगिक भेदभाव की समस्या, स्वभाव एवं कारणों का विश्लेषण करता है । यह घर – परिवार और समाज में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव, हिंसा, यौन उत्पीड़न, शोषण एवं दमन को उजागर करता है । साथ ही यह प्रजनन संबंधी अधिकार, मातृत्व अवकाश, समान अवसर और समान अधिकार एवं समान वेतन जैसे सवालों पर जोर देते हुए बराबरी और न्याय पर आधारित समाज बनाने की वकालत करता है । कहना न होगा कि स्त्री विमर्श इन दिनों नारीवादी आंदोलन बन चुका है और इसे दुनियाभर की सरकारें भी महत्त्व देने लगी हैं । हिंदी में स्त्री विमर्श से प्रभावित और प्रेरित लेखन को शुरू में और काफी दिनों बाद तक, नारीवादी विमर्श या मातृसत्तात्मक विमर्श का साहित्य कहा जाता रहा । किंतु अब स्त्री अस्मिता और स्त्री सवालों को अभिव्यक्त करने वाली रचनाओं के लिए ‘स्त्री विमर्श का साहित्य’ नाम स्थिर और प्रचलित हो गया है ।

यद्यपि अस्मितावादी विमर्श की अपनी सीमाएँ हैं । वह अपनी दमित भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति में इस कदर मुग्ध रहता है एवं उसका उल्लास मनाता है कि व्यापक समाज की समस्याओं तथा चिंताओं से विरत हो जाता है । फलस्वरूप सांस्कृतिक एकांगिता का शिकार हो जाता है और किसी वैचारिक संघर्ष तथा सामाजिक बदलाव में भागीदार नहीं बन पाता । तथापि हिंदी में स्त्री विमर्श का साहित्य समाज के हाशिए पर रखी जाती रही आधी दुनिया की जीवनानुभूति और जद्दोजहद की अभिव्यक्ति होकर भी हाशिए का साहित्य मात्र नहीं है । स्त्री विमर्श का साहित्य अपनी सघन संवेदना, आकुल आकांक्षा, विरल अनुभूति एवं चेतना की साहसपूर्ण अभिव्यक्ति के बल पर हमारी भाषा की व्यापक सर्जना की सच्चाई और यथार्थ है । हमारे साहित्य का अभिन्न अंग है । उसका अपना विशिष्ट स्वर और तेवर है तथा वह मुख्य धारा के साहित्य के अंतर्गत अपनी पहचान बनाने में सफल है ।

अस्मितावादी लेखन से हिंदी साहित्य में निश्चय ही विषय – वैविध्य आया है और वह समृद्ध हुआ है । चाहे स्त्री अस्मिता का लेखन हो या दलित अस्मिता का लेखन अथवा आदिवासी अस्मिता का लेखन; इनसे हिंदी साहित्य के सृजन, विचार तथा आयाम में व्यापकता एवं विस्तार आया है । कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, मनु भण्डारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, मंजरी श्रीवास्तव, सुशीला टाकभौरे, राजी सेठ, कात्यायनी, अनामिका, निर्मला पुतुल, सविता सिंह, मोनिका कुमार , अलका सरावगी, मधु काँकरिया , अनिता भारती आदि की रचनाएँ इसके प्रमाण हैं । जाहिर है, इसी पृष्ठभूमि में स्त्री विमर्श की हिंदी कविता के स्वर, आयाम, संवेदना और मूल्य का अध्ययन एवं विश्लेषण हमारा अभिप्रेत होना चाहिए ।

हिंदी में स्त्री विमर्श की कविता का स्वर साहसिक और संघर्षशील रहा है तथा आयाम व्यापक एवं विविधतामूलक । यह कविता अंतर्वस्तु तथा प्रभाव के मामले में अपने उद्भव के समय से ही आकर्षण का केंद्र बनती रही है । तथापि हिंदी में स्त्री विमर्श की शुरुआत का जिक्र आते ही ‘यशोधरा’ की ये ख्यातिलब्ध पंक्तियाँ स्मृति में कौंध जाती हैं –

अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी ,
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।

इस संदर्भ में ‘कामायनी’ की वे प्रसिद्ध पंक्तियाँ भी अक्सर ध्यान आकर्षित कर लेती हैं, जिनमें नारी से रूपसी होने तथा विश्वास एवं श्रद्धा की प्रतिमूर्ति होने की कामना की गई है –

नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास – रजत – नग पगतल में
पीयूष – स्रोत – सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में ।

स्त्री विमर्श की अवधारणा के मद्देनजर ये बहुचर्चित काव्य – पंक्तियाँ अपने – अपने कविता – समय के मिजाज और प्रवृत्तियों के अनुरूप हैं । मसलन ‘यशोधरा’ की पंक्तियों में यथार्थ का इतिवृत्तात्मक, आख्यानपरक और ठेठ वर्णन है । ऐसे ही ‘कामायनी’ की पंक्तियों में स्त्री की पारंपरिक छवि और नारी से पुरुष की अपेक्षा का भावुक चित्रण है । इसी कड़ी में महादेवी वर्मा की कविता – “जो तुम आ जाते एक बार” की भी बरबस याद आती है , जिसमें विमुख काव्य – नायक के आने को लेकर भावुक आकांक्षा व्यक्त की गई है । कविता की ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं – “जो तुम आ जाते एक बार / कितनी करुणा कितने संदेश / पथ में बिछ जाते बन पराग /
गाता प्राणों का तार – तार / अनुराग भरा उन्माद राग / आँसू लेते वे पद पखार / जो तुम आ जाते एक बार”

आम तौर पर छायावादी काव्य की स्त्री अतिशय भावुक, कोमलांगी और आँसू से विगलित नारी है । किंतु वह परंपरा की जकड़बंदी को चुनौती देती विवेकशील नारी भी है । हालांकि उसे कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व हासिल नहीं है । छायावादी महाकाव्य ‘कामायनी’ की ही पंक्तियाँ हैं – आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधि पत्र लिखना होगा ।

परंतु उसी छायावाद में निराला भी हैं, जिनके यहाँ स्त्री मात्र कांतासम्मित उपदेश देने वाली असूर्यम्पश्या कोमलांगी कतई नहीं है । वह कर्मशील है, पत्थर तोड़ने वाली है और अपने मजबूत इरादों से असमानता की अट्टालिका पर हथौड़े चलाने वाली है । निराला की एक प्रतिनिधि कविता है ‌ ‘वह तोड़ती पत्थर’ । इस कविता की नायिका एक मेहनतकश स्त्री है और वह किसी गलदश्रु भावुकता में नहीं जीती । वह स्त्री यथार्थ की ठोस एवं ‘रूई ज्यों जलती हुई भू’ पर जेठ की चिलचिलाती दोपहरी में सड़क किनारे बैठकर पत्थर तोड़ने का काम करती है । वह श्रम – सीकर से लथपथ रहते हुए भी हथौड़े चलाने में कोई कोताही नहीं करती । उसके हथौड़े का प्रहार केवल पत्थर पर ही नहीं पड़ता, तमाम तरह की सामाजिक विषमताओं और शोषण – उत्पीड़न पर भी पड़ता है । “गुरु हथौड़ा हाथ करती बार – बार प्रहार / सामने तरु मालिका अट्टालिका प्राकार” । निराला द्वारा सृजित दमदार स्त्री – छवि का विस्तार नये जमाने के रूपक में आलोकधन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियाँ’ और ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ में हुआ है । इस प्रसंग में गोरख पांडेय की कविता ‘कैथल कला की औरतें’ को भी भुलाया नहीं जा सकता ।

किंतु , अस्मिताओं के विमर्श में ऐसी रचनाओं को प्रायः ‘दूर बैठे का दर्द’ कह कर नजरअंदाज कर दिया जाता है । ऐसी रचनाओं के बारे में कहा जाता है कि ये भोगे हुए यथार्थ की उपज नहीं ; बल्कि यथार्थ का कल्पना – प्रसूत सृजन हैं और कल्पना में अनुभव की प्रामाणिकता नहीं होती । वैसे यह सच है कि अस्मितावादी लेखन में प्रामाणिक अनुभव के बिना कथ्य की दृष्टि में सच्चाई का ताप, चित्रण में चमक और भाषा में आवेग न के बराबर रहता है । प्रसिद्ध आलोचक डॉ मैनेजर पांडेय भी भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति को काल्पनिक अभिव्यक्ति की तुलना में वरेण्य मानते हैं । उन्होंने दलित साहित्य पर बातें करते हुए एक साक्षात्कार में ज्योतिबा फुले के एक कथन का उल्लेख करते हुए कहा है कि “ ‘जो सहता है वही जानता है’ और जो जानता है , वही पूरा सच कह सकता है । सचमुच राख ही जानती है जलने का अनुभव, कोई और नहीं ।” – अनभै साँचा , पूर्वोदय प्रकाशन , नई दिल्ली , प्रथम संस्करण : 2002, पृष्ठ – 275 ।

परिचय –
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श्रीनारायण समीर।
बेंगलूर विश्वविद्यालय से पीएचडी।

राँची विश्वविद्यालय के पी के रॉय मेमोरियल पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में 7 वर्षों तक अध्यापन ।

8 वें एवं 9 वें दशक की चर्चित पत्रिका ‘कतार’ के आरंभिक दस अंकों का संपादन।

केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, भारत सरकार, नई दिल्ली में 9 वर्षों तक निदेशक रहे ।

अनुवाद विमर्श पर 6 पुस्तकें राजकमल प्रकाशन समूह के लोकभारती से प्रकाशित । ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धांत’ के प्रस्तोता ।

शोधालोचना में गहरी रुचि।
इन दिनों 8 वें दशक की कविता के मूल्यांकन में संलग्न ।
ईमेल : snsamir1@gmail.com स्त्री दर्पण से साभार

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