ओळूं
देर-सबेर आया फाग
आत्मा ने देह का,
अपना पहला-पहला अवलंब तज दिया था
अव नये अवलंब के लिए लालायित थी
कदाचित इसी हेतु
विचरती रही भ्रमलोक में
चैत की दुपहरियाँ भी बुरी न थी,
भरी दुपारी बुनती थी स्त्रियाँ हथ-पंखी
न हाथीदांत,न रेशम
और न ही विदेशी फूलों के चित्र बने थे
विक्टोरियन युग की कोई फैशन पंखी भी न थी,
और न ही किमोनो पहनी जापानी सुंदरी के हाथ में सजी थी,
शिल्पी होती तो उकेरती,
एक चिया,
पर कटी उस पंखी पर,
गर्म तासीर वाले खजूर पर्ण से बुनी पंखी,
मोर-पंख वाले की बाट जोहती,
आग्रह कर-करके
परोसती तुम्हैं कलेवा
कोरी मटकी का पालर पानी
ओक से पिलाती तुम्हैं
लोभवश न मोहवश
और किसी सहानुभूति वश भी न भरा प्रेम
निश्छल सोते का पानी
तोङकर पिया मैने
निर्जन प्याऊ का पानी
ओकभर पिया मैने
जितना भर सकी मै हलक में
उतने से जी उठूंगी
ऐसे लगेगा जैसे बैठी हूँ
वैशाख के घने वट की छांह में
तुम आ जाते कन्हाई
मेरा हाथ,मेरी उँगलियाँ,
मारे ओळूं के बिसराई हुई है
तरस रही एक हाथ पंखी हिलोरने को
तुम आते वल्लभ तो
मैं उस पंखी पर
मेरी ही देह से छूटा
एक कटा पंख उकेरती
(ओळूं-स्मृति)
प्रतिभा वल्लभ