भगवानदास मोरवाल : नई रंगत, पुरानी संगत
हृदय का खिलना गुलाब खिलने से कहां कम है ! और, मित्र का मिलना क्या हृदय खिलने की क्रिया का ही पर्याय-रूप नहीं ?
31 मार्च, 2024. पालम में बाटा चौक के पास का इलाका. प्रसिद्ध कथाकार-साथी भगवानदास मोरवाल हमारे सामने खड़े मुस्कुरा रहे थे. स्वागत-भाव और प्रेम की आभा से भरे. मैं इस अलग ही गाढ़े अपानापे के आलोक में डूबने-सा लगा. अपने अंतस में प्रस्फुटन की ध्वनि, सुवासोच्छवास के झोंके, छंद छूती गति और लय की तलाश में बेचैन किसी हलचल का आवेग अनुभूत करता हुआ.
कहने को तो गली, पर रास्ता अच्छा-खासा. सड़क से जरा भी कम नहीं. भगवानदास जी के घर की सीढियां चढ़ते हुए एक पुराना दृश्य आंखों के सामने झुका चला आ रहा था, कोई ढाई दशक पुराना !
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मैं स्मृति-चित्र को मन ही मन जैसे पुनर्दृश्यांकित करने लगा : इंडिया गेट की भीड़. कोलाहल के बीच लेकिन शोर से बाहर हम तीन जने. प्रायः अंतिम छोर पर. सड़क से सटे, घास पर. परस्पर त्रिभुज-सम्मुख बैठे. ‘रेणु रचनावली’ के संपादक-कवि भारत यायावर, कथाकार भगवानदास मोरवाल और मैं. तीनों के तीनों अपनी ही धुन में डूबे, आपसी चर्चा में मशगूल. पीठ भारत जी की सड़क की ओर और फिलवक्त वे भगवानदास से किसी मुद्दे पर भिड़े हुए.
तभी मैंने देखा, एक कार आकर प्रायः चुपके से रुकी. आगे का गेट हौले-से खुला. चालक-सीट का व्यक्ति खुद तो नहीं हिला, सिर इधर-उधर लगातार करता रहा, उसके बगल वाले, उन्नत ललाट मध्यम कद सज्जन उतर गए. वे हमारी ओर लपके. कुछ ही डग में पास भी आ गए.
उन्होंने भारत जी के कंधे पर पीछे से हाथ धर दिया. औचक अदृश्य असूचित स्पर्श !
भारत चकचिहा उठे. जैसे बिजली ने छुआ हो. आलोड़ित- से वे जैसे ही पीछे मुड़े, गति-मुद्रा तत्क्षण विपरीत! स्वर में आश्चर्य से अधिक प्रसन्नता, ” श्रीलाल जी, आप ! ”
अब तो मुझे पहचानते देर नहीं लगी, श्रीलाल शुक्ल हैं ! कालजयी ‘राग दरबारी’ के रचनाकार !
मैं तो हाथ आए आनंद में लिपटा रह गया, भगवानदास जी ने बाजी मार ली, अभिवादन कर लिया !
श्रीलाल जी मुखातिब भारत जी से थे, दृष्टि हम पर भी डाल रहे थे, ” चलो, यार ! यहां कहां बैठे हो… पुरस्कार लेने जा रहा हूं, पता नहीं वहां हॉल में कोई दर्शक-श्रोता भी है या नहीं…”
भारत जी ने उन्हें मेरा परिचय दिया, ”…यह हैं श्याम बिहारी श्यामल! ”
श्रीलाल जी की दृष्टि आकर मेरे चेहरे पर टिक गई, ”..’धपेल’ वाले ? ”
” हां-हां! मैं तो यह बताने ही वाला था कि इनका यह उपन्यास चर्चित हुआ है…”
” जैसे, इन महाशय, भगवानदास मोरवाल का ‘काला पहाड़’ ! ” भारत जी ने उन्हें अब भगवानदास जी से मिलवाया.
” दोनों उपन्यास मैंने राजकमल से पहले ही मंगवा लिए थे, अब पढ़ भी लिए हैं… दोनों खास हैं, अपने-अपने क्षेत्र की भाषा और अपनी अलग ही कथा-भंगिमाएं लेकर आए हैं…”
हम आकर गाड़ी में बैठ गए. कुछ ही देर में आयोजन-स्थल पर. श्रीलाल जी को उनके उपन्यास ”विश्रामपुर के संत” के लिए 1999 का व्यास सम्मान प्रदान किए जाने का हम साक्षी बन रहे थे !
इसके कोई दो दशक बाद, एक दिन नेट पर मैं श्रीलाल जी से संबंधित कुछ सर्च कर रहा था. अचानक एक पन्ना खुल गया, श्रीलाल जी के साक्षात्कारों से संबंधित पुस्तक का, जो किताबघर से प्रकाशित है. सामने स्क्रीन पर अब वह अंश है, जिसमें किसी प्रश्न के उत्तर में श्रीलाल जी ने हिन्दी के नए लेखकों में मेरा और भगवानदास जी का नामोल्लेख किया है, भाषा और कथन की नव्यता को रेखांकित करते हुए ! …
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. पालम में भगवानदास जी ने तीन तल्ले का खूबसूरत मक़ान बनवाया है. इस संबंध में वे बताने लगे, ” नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद यह संभव हुआ ! ”
वह अब अपना लेखन कक्ष दिखाने भीतर ले गए. भिन्न-भिन्न काल/मुद्रा की तस्वीरें, सम्मान और पुरस्कारों से संबंधित स्मृति-चिह्न और चित्र. उन्होंने अपनी श्रीमती जी सुनीता को बताया, ” श्यामल जी मेरे युवा काल के साथी हैं ! ”
सविता जी ने सुनीता जी को बताया, ”…हमारे घर में तो होती ही रहती है इस दोस्ती की चर्चा, हमें ही मिलने का मौका आज जाकर मिला है ! ” दोनों की प्रसन्नता हंसी से व्यक्त होने लगी.
भगवानदास मोरवाल ने बात-बात में कई बार ”कंथा” का उल्लेख किया, तो अनुभूति हुई, यह है मित्र-प्रसन्नता ! जांतने (दबाने) नहीं, जताने वाली. अगांठ और अकुंठ.
इस बीच बूंदिल लिम्का से गोंदिल लड्डू और मिठासभरी कॉफी तक, बातें ही बातें. विषय एक से एक. विगत-आगत लेखन, प्रकाशन, देश, समाज, साहित्य, राजनीति, हरियाणा, बिहार, झारखंड, धनबाद-पलामू और बनारस ! भगवानदास के साथ की तस्वीर सविता जी ने क्लिक की जबकि हम चारों का साझा चित्र उनके सुपुत्र प्रवेश ने उतारा.
आते समय भगवानदास ने हमें गली के मोड़ पर रिसीव किया था, विदा करने मेट्रो स्टेशन पर चेक इन प्वाइंट तक आए.जैसे बहुत वर्षों के बाद संभव हुई यह जीवंत बैठकी, वैसे ही सालोंसाल तक याद रह जाने वाली निकली यह शाम !