एक पंक्ति में कहूँ तो
चमकीला मेरे जेहन पर वैसा प्रभाव नहीं छोड़ पायी जैसा मैंने सोचा था या उम्मीद की थी। शायद इम्तियाज़ अली का नाम जुड़ने से मेरी उम्मीदें कुछ ज्यादा थीं। अमरसिंह चमकीला को मैं नहीं जानती थी। फ़िल्म देखने से पहले तक कोई कोशिश भी नहीं की क्योंकि मुझे इम्तियाज़ के चमकीले से मिलने की उत्कंठा थी। बॉयोपिक के साथ हमेशा एक दिक्कत होती है। इसमें आप वो देखते हो जितना भर डायरेक्टर आपको दिखाना चाहता है। इस चाहने के भी कई पक्ष है पहला पक्ष तो ये कि ढाई तीन घण्टे की फ़िल्म में किसी की पूरी उम्र को फिल्माने में क्या दिखाया जाएगा और क्या छूट जाएगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
दूसरी बात ये कि क्योंकि डायरेक्टर को पॉलिटिकली सोशली मोरली करेक्ट भी होना होता है, फ़िल्म की कमर्शियल वैल्यू का भी ख़याल रखना है, इस क्रम में वह दर्शक को मनवा देना चाहता है कि जो वह खुद मान चुका है कि उसका नायक या नायिका एक असाधारण व्यक्तित्व है जो कोई गलती कभी कर ही नहीं सकता। दिलजीत दोसांझ और परिणीति चोपड़ा की ‘चमकीला’ देखते हुए लग रहा था कि हम चमकीला पर बनी कोई डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं या चमकीला पर लिखा कोई निबंध पढ़ रहे हैं जिसमें उसकी गलतियों या कमजोरियों को भी उसकी खूबी बनाकर पेश किया गया हो। जैसे चमकीला का अपनी साथी गायिका से अपनी पहली शादी और दो बच्चों (असल में चार पर दो बच्चे रहे नहीं) की बात छुपाकर दूसरी शादी कर लेना, पंचायत में सरपंच की तौहीन कर गवाह खरीदकर मामला अपने पक्ष में कर लेना। अपनी पहली पत्नी को नोट की गड्डी थमाकर मुँह फेरकर चले जाना। चमकीला और अमरजोत के संवाद में चमकीला के मुँह से डायरेक्टर इसे भी जस्टिफाई कर रहा है और वो काफी वाहियात सीन लगा। दरअसल डायरेक्टर की भी मजबूरी है। जिस पत्नी से चार बच्चे पैदा किये उसे स्टार बनने के बाद चमकीला ने छोड़ दिया, ये दिखाने भर से हीरोइज़्म की चमक कुछ फीकी पड़ती है। गायक युगल की प्रेम कहानी फिर प्रेम कहानी सी नहीं लगती। विवाहेत्तर संबंध की बू आती है।
इसी तरह चमकीला का अपने संघर्ष के साथी को छोड़कर आगे बढ़ जाने के पीछे नैरेटर द्वारा दी गई दलील भी फ़िज़ूल सी लगी। चमकीला कोई भगवान नहीं था। इंसान था और गलतियाँ भी इंसान ही करता है और चालाकियाँ भी। पर बॉयोपिक में गलतियों नहीं खूबियों के लिये जगह होती है। यहाँ भी थी। मूल कहानी को भूल जाएं तो भी फ़िल्म में ये सवाल मन को कचोट लगाते हैं। फ़िल्म में चमकीले की जाति पर कोई ख़ास दृश्य नहीं फिल्माए गए। एक ग्रामीण दलित व्यक्ति के संघर्ष यहाँ पूरी तरह मिसिंग लगे।
फ़िल्म में बार बार, लगातार अनावश्यक पुनरावृत्ति की तरह चमकीला के अश्लील, गंदे या द्विअर्थी गानों की बात तो दिखाई जाती है किंतु उनके दहेज, घरेलू हिंसा और शराबखोरी पर बने गानों की बात गायब है। ठीक इसी तरह ऊँची जाति की जाट लड़की से एक दलित होते हुए दूसरे विवाह को लेकर कोई प्रतिक्रिया फ़िल्म में नहीं दिखाई गई जबकि ऐसा संभव ही नहीं कि ये उनकी हत्या का एक कारण न हो। तीसरी बात ये कि उनकी हत्या में एक एंगल व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता का भी रहा होगा जिस पर स्पष्ट तौर पर कुछ दिखाया नहीं गया जबकि सच तो ये है कि उनकी हत्या कोई ऐसा रहस्य नहीं थी जिस पर से पर्दा उठाया न जा सके। लेकिन फिर वही बात कि प्रोड्यूसर डायरेक्टर की अपनी मजबूरियाँ होती हैं वे इतना ही दिखाते हैं जितने से वे किसी मुश्किल में न पड़ें।
बाकी एक दलित ग्रामीण लड़के के गायकी के शिखर तक पहुँचने की ये कहानी किसी परिकथा सरीखी लगती है। अगर उसके स्टेज तक पहुंचने के संघर्षों को थोड़ा सा और विस्तार दिया जाता तो और अच्छा लगता। हाँ ये सवाल बार बार मन में उठता रहा कि कला हो या प्रॉस्टिट्यूशन कोई धार्मिक या सामाजिक ठेकेदार उन रास्तों पर सवाल नहीं उठाता जो उनकी ओर जाते हैं। उन लोगों को सवाल के दायरे में नहीं लाता जो इन्हें बनाते हैं। नसीहतें, धमकियाँ, गोलियाँ और मौत चमकीला और अमरजोत को मिलते हैं उन लोगों को क्यों नहीं जो उन्हें स्टार बनाते हैं और फिर बने रहने पर मजबूर करते हैं। दुनिया दरअसल जैसी भी है अपनी बुराइयों को दबे ढके छुपे रहने में ही यकीन करती है। सार्वजनिक रूप से बुराई को कोसते और अच्छाई का झंडा बुलंद करते हुए हर व्यक्ति अपने भीतर के बुरे आदमी की ओर से आँख मूंद लेता है उससे नज़र मिलाने में झंडे पर पकड़ कमजोर हो जाती है।
इस सबके बावजूद मैं रिकमेंड करना चाहूँगी कि #नेटफ्लिक्स पर है ही तो एक बार चमकीला जरूर देखिये। कम से कम इसलिये जरूर कि देख सकें कि अमरसिंह चमकीला और बीबी अमरजोत को दिलजीत दोसांझ और परिणीति चोपड़ा ने कैसे स्क्रीन पर जीवंत कर दिया। सवालों को दरकिनार कर दें तो फ़िल्म अच्छी बनी है। परिवेश, बॉडी लैंग्वेज, अभिनय, संगीत और सिनेमेटोग्राफी सब कुछ लाज़वाब है।
—अंजू शर्मा