रामविलास शर्मा का लोकपक्ष : विष्णुचन्द्र शर्मा
डॉ रामविलास शर्मा हिंदी आलोचना के श्रेष्ठ मार्क्सवादी-लोकवादी आलोचक हैं।’लोक’ की चिंता और उसका जागरण उनकी आलोचना का केंद्रीय ध्येय है। उनके लिए आलोचना कर्म ‘विशुद्ध साहित्यिक लेखन’ नहीं है,न ही वे कहीं ‘अकादमिक लेखन’ के दबाव में दिखाई पड़ते हैं। उनके लिए आलोचना जन चेतना के परिष्कार का एक अंग है, इसलिए वह जन पक्षधर राजनीति से असंपृक्त नहीं होती। और इसलिए रामविलास जी पर लिखने वाले कई लेखक, जिनके लिए साहित्य वर्गीय चेतना से असंपृक्त होता है अथवा जिनके लिए लेखन पक्षधरता रहित केवल ‘तथ्यों’ की पड़ताल है, असुविधा महसूस करते हैं।
मगर जनपक्षधर लेखकों का ऐसा वर्ग है जो मानता है कि साहित्य सामाजिक बदलाव में मदद कर सकता है, ऐसे लेखक डॉ शर्मा के समानधर्मा हैं। विष्णु चन्द्र शर्मा ऐसे ही लेखक हैं। कवि-सम्पादक-आलोचक विष्णु जी का डॉ शर्मा से लंबे समय से परिचय रहा है, और वे उनसे मिलते भी रहें है। मगर इससे बड़ी बात यह है कि दोनों की मंज़िल एक है;एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए साहित्यिक-वैचारिक संघर्ष। और इस संघर्ष में डॉ शर्मा हमारे सबसे सशक्त वैचारिक योद्धाओं में है, इसलिए विष्णु जी उचित ही उन्हें सम्मान देते हैं।
कलावाद-कुलीनतावाद के विरुद्ध इस वैचारिक संघर्ष में ऐसा नहीं कि साहित्यिक मापदंडों की अवहेलना की गई, अपितु उसके सापेक्षिक स्वायत्तता का बराबर ध्यान रखा गया। साहित्य समाजशास्त्र नहीं है न ही यांत्रिक भौतिकवाद। इस बिंदु पर प्रगतिशील आलोचकों के बीच जितनी बहस होती रही है उतनी उनके विरोधियों के बीच कभी नहीं हुई। यदि डॉ शर्मा का ही उदाहरण ले तो उनकी शिवदान सिंह चौहान, रांगेय राघव, अमृत राय, राहुल सांस्कृत्यायन, यशपाल, नामवर सिंह,वीरभारत तलवार आदि से तीखी बहस हुई है। इन बहसों के बहुत से बिंदु रहे हैं मसलन परंपरा का मूल्यांकन, सामाजिकता बनाम स्थूल समाजशास्त्र, अश्लीलता बनाम कलात्मकता,नवजागरण की समस्या, भाषा के प्रश्न, तुलसी-कबीर-मुक्तिबोध का मूल्यांकन आदि।
प्रगतिशील आलोचना और उसकी पृष्टभूमि का यहां संक्षिप्त चित्रण इसलिए भी क्योंकि विष्णु चन्द्र जी ने इसे करीब से देखा है और रामविलास जी के मूल्यांकन में वे इसका जिक्र करते हैं। विष्णु जी का रामविलास से लंबे समय से सम्पर्क रहा। पत्रों के हवाले से कहें तो 1957 से। वे उन्हें अपनी पत्रिका ‘सर्वनाम’ भेजते रहे। रामविलास जी से मिलते रहे, उन्हें अपनी जिज्ञासा बताते रहें, उनकी किताबें पढ़ते रहे।’रामविलास शर्मा का लोकपक्ष’ पुस्तक में संग्रहित निबन्ध डॉ. शर्मा की किताबों पर लिखी समीक्षाएं हैं। कुछ स्वतंत्र निबन्ध भी हैं। ये निबन्ध अलग-अलग समयों में लिखें गये हैं, और बातें मुख्यतः पुस्तकों के बहाने की गई हैं, इसलिए यह व्यवस्थित आलोचना नहीं है, जिसमे डॉ शर्मा के रचनाकर्म उजागर हों, बावजूद इसके उनकी आलोचना की केंद्रीय चिंता को विष्णु जी ने रेखाँकित किया है,जो डॉ शर्मा की हर कृति में दिखाई देती है। इसलिए विष्णु जी ने पुस्तक का शीर्षक उचित ही ‘आलोचना का लोकपक्ष’ दिया है। लोकधर्मिता की डॉ शर्मा की आलोचना में केन्द्रीयता है।
डॉ शर्मा का लोकपक्ष क्या है? विष्णु जी के हवाले से देखें तो यह पक्षधरता से जुड़ा है। “डॉ रामविलास शर्मा की किसान पक्षधरता के दो सूत्र रहे हैं :एक किसान और दूसरा गरीबी। उनके पक्षधरता का दार्शनिक आधार मार्क्सवाद है”(पृ.09)
सामान्यतः डॉ शर्मा के कवि रूप की चर्चा नहीं होती मगर विष्णु जी इसे महत्वपूर्ण मानते हैं और उन्हें जनकवि कहते हैं “मूलतः डॉ शर्मा जनता के कवि हैं”(पृ.45)। डॉ शर्मा ने चालीस के दशक में छद्म नाम से सरल भाषा और छंद में राजनीतिक कविताएं लिखी थीं जो ‘सदियों के सोये जाग उठे’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इन कविताओं को विष्णु जी ने ‘पराजयवाद के विरुद्ध जनकवि की भूमिका’ कहा है।इस संदर्भ में वे डॉ शर्मा की ‘कय्युर के किसान पुत्रों की शहादत’ कविता उद्धरित करते हैं। वे मुक्तिबोध को डॉ शर्मा के ‘पड़ोसी जनवादी कविमित्र’ मानते हैं। इसी तरह “शमशेर शिल्पी जनकवि हैं। और केदारनाथ अग्रवाल सक्रिय जनवादी कवि हैं। जन-आंदोलन की चेतना डॉ रामविलास शर्मा में इन दोनों से अधिक तीखी है। वह श्रेष्ठ कविता की परंपरा में प्रतापनारायण मिश्र की आल्हा कविता की परंपरा को राजनीतिक स्तर पर सचेत रूप से विकसित करते हैं”(पृ.51)।विष्णु जी की शैली यह है कि वे एक ही निबन्ध में बहुत सी बातें कह जाते हैं और बहुत से कवियों/लेखकों का तुलनात्मक विवेचन करने लगते हैं।
कविता के विवेचन में ही वे लिखते हैं “गजाननमाधव मुक्तिबोध, नरेंद्र शर्मा और डॉ रामविलास शर्मा ऐसे कम्युनिस्ट हैं जिनका ‘विश्वविद्यालय की शिक्षा’ कुछ बिगाड़ नहीं सकी। न बिगाड़ने के तीन कारण हैं। एक, यह तीनों कवि मार्क्सवादी हैं। दूसरा, खतरा उठाकर तीनों कवियों ने राजनीतिक कविताएं लिखी। तीसरा, कारण है कि मूलतः यह जन-आंदोलन के कवि हैं”(पृ.45)। वे डॉ शर्मा की कविताओं की प्रशंसा करते हैं मगर उनकी भिन्नता को भी रेखांकित करते हैं “डॉ रामविलास शर्मा की कविताओं में शमशेर, मुक्तिबोध और नागार्जुन की कविता का आत्म-संघर्ष मूलक संस्मरण नहीं मिलता है”(पृ.45)।
सर्वविदित है कि डॉ शर्मा साठ के दशक के बाद समकालीन साहित्य(कविता, कहानी, उपन्यास) पर लिखना लगभग बंद कर देते हैं और उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हो जाती हैं, मुख्यतः भाषा विज्ञान, मार्क्सवाद, नवजागरण, हिंदी जाति का सांस्कृतिक विवेचन आदि। वे समकालीन साहित्य से जरूर दूर होते हैं मगर समकालीन राजनीतिक संकट और वैचारिक चुनौतियों से कभी दूर नहीं होते, बल्कि एक तरह से उसमे केन्द्रीयता आ जाती है। इसलिए जब विष्णु जी लिखते हैं “आज के जीवन मे फैली महाजनी सभ्यता की निराशा, घुटन, उदासीनता, प्रणय, स्नेह, सौंदर्य साहस, उत्साह, संघर्ष और विजय की भावनाओं का मुक्तिबोध अपनी कविताओं में मनोवैज्ञानिक चित्रण करते हैं। पराजयवादी कवि, और ‘मृत ज्वालामुखी’ आलोचक से उसकी आत्मबद्ध बुद्धि की आत्मग्रस्त मानसिकता पर मुक्तिबोध बहस करते हैं। इसलिए वे आज के युवक के अभिन्न जनवादी कवि और मित्र और आलोचक हैं।”(पृ.53) तो बात सही है, मगर जब वे आगे कहते हैं “इसके विपरीत डॉ. शर्मा का जनकवि और आलोचक धीरे-धीरे आज की वास्तविक जन्मदात्री पीढ़ी की जिंदगी से दूर होता जा रहा है।”(पृ.53) तो इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता।डॉ शर्मा ‘आज के साहित्य’ भले दूर हों, आज की समस्याओं से कभी दूर नहीं हुए।
डॉ शर्मा का मुक्तिबोध की कविताओं का मूल्यांकन विवादास्पद रहा है। मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष को बेहतर ढंग से रेखांकित करने के बावजूद उनके द्वारा मुक्तिबोध की कविताओं को अस्तित्ववादी घोषित किए जाने को साहित्य जगत में स्वीकार नहीं किया गया।लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे इसके लिए अपने सिद्धांतों से कोई समझौता करते हैं। इसलिए जब विष्णु जी लिखते हैं “मुक्तिबोध पर डॉ रामविलास शर्मा ‘धर्मयुग’ के सेठाश्रयी मंच से प्रहार कर रहे थे, उस समय भी मैंने मुक्तिबोध के मार्क्सवादी चिंतन और उनके जनवादी कवि की ईमानदारी पर जोर दिया था।” तो ‘धर्मयुग’ में लिखने भर से डॉ शर्मा की ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता। सेठाश्रयी पत्रिका में छपने को यदि मापदंड बनाया जाय तो स्वयं मुक्तिबोध जी भी ‘कल्पना’ ,’प्रतीक’ जैसी पत्रिकाओं में छपते रहें।
विष्णु जी मुक्तिबोध की तरह शमशेर की रामविलास जी द्वारा आलोचना से असहमति जताते हैं। डॉ शर्मा ने शमशेर पर उर्दू के रीतिवाद का प्रभाव होने की बात कही थी। इस संदर्भ में विष्णु जी विष्णु जी दिलचस्प बात लिखते हैं “मैंने पूछा था उनसे: “जिसे आप रीतिवाद कहते हैं, वह निराला की कविता में नहीं है क्या? वह जवाब में सिर्फ हँसे थे।” इसी तरह एक जगह और उन्होंने ऐसे प्रश्न पर हँसने की बात लिखी है। इस ‘चूक’ का कारण क्या है “वह शमशेर और मुक्तिबोध की कविता को भीतर से जानने की कोशिश नहीं करते।”(पृ.72) और भी “डॉ शर्मा की प्रगतिशील सूची में ‘सुमन’ और निराला और केदारनाथ अग्रवाल थे, जिनसे वह लगातार संवाद करते रहे।”(पृ.151) पता नहीं विष्णु जी इसमे नागार्जुन को क्यों नही रखें। वैसे उन्होंने इस बात को कई जगह याद दिलाया है कि डॉ शर्मा ने त्रिलोचन की महत्ता को बहुत बाद में रेखाँकित किया।
‘निराला की साहित्य साधना’ (भाग एक-जीवनी) को डॉ सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में माना जाता है। इसमे उन्होंने निराला के व्यक्तित्व के सभी आयामों को खोलने का प्रयास किया है। मगर विष्णु जी भिन्न मत रखते हैं ” ‘निराला की साहित्य साधना’ के जीवनी खंड में निराला का व्यक्तित्व उतना नहीं खुलता है, वह कहीं जीवनी-लेखक डॉ रामविलास शर्मा के भीतर ढका-छिपा रह जाता है। इस ढके-छिपे रूप में सामंती संस्कृति और आधुनिक संस्कृति का परस्पर विरोधी संस्कार आधार रूप में रहा है। कहीं डॉ रामविलास शर्मा और आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री में अर्धसामंती संस्कार आज भी दबा हुआ है।”(पृ.152) जिसका समस्त लेखन सामंतवाद के विरुद्ध है उन्हें ‘अर्धसामंती संस्कार’ से ग्रस्त कहना हमारी समझ से बाहर है। सम्भव है इसका कारण डॉ शर्मा द्वारा यौन चित्रण को महत्व न देने से,कई लेखकों की तरह विष्णु जी ने यह निष्कर्ष निकाला हो। मगर ‘निराला की साहित्य साधना’ में उन्होंने निराला के ‘पर स्त्री सम्बन्ध’ और उनके यौन सम्बन्धी कई भ्रान्त तर्कों का उल्लेख किया है। अवश्य वे इसे ‘ रोचक प्रसंग’ के रूप में चित्रित नही करते।
डॉ शर्मा को कई पुरस्कार मिले मगर वे पुरस्कार की राशि स्वीकार नहीं करते थे और उसे बहुधा साक्षरता के लिए उपयोग करने के लिए कह देते थे। मगर अपने अंतिम दिनों में उन्होंने एक पुरस्कार की ग्यारह लाख की राशि स्वीकार किया था। इस सम्बंध में विष्णु जी लिखते हैं “जब एक के बाद एक सभी पुरस्कार डॉ शर्मा लौटते गए तो वह जनतांत्रिक लेखन के प्रतिमान बन चुके थे। फिर क्यों ग्यारह लाख का पुरस्कार उन्होंने लिया, यह सवाल मैंने कामरेड मुंशी से पूछा था, जिसका जवाब नहीं मिला।” मगर इसका जवाब सम्भवतः डॉ शर्मा ने अपनी आत्मकथा ‘अपनी धरती अपने लोग में अथवा उनके पुत्र विजय शर्मा ने किसी लेख में दिया है। जिसके अनुसार डॉ शर्मा ने विजय शर्मा के इस आग्रह पर कि उक्त राशि उनके साहित्य को संरक्षित करने में उपयोग की जाएगी, पुरस्कार की राशि स्वीकार की।
प्रगतिशील आलोचना की आंतरिक बहस को विष्णु जी ने देखा है। इस बहस में रामविलास जी तीखी आलोचना चर्चित है और एक हद तक इसमे असंतुलन भी है। इस सबन्ध में विष्णु जी का विचार है “यहाँ निराला के प्रति सहानुभूति के कारण वह भीतर से उनकी साधना प्रक्रिया को सचेत होकर खोजते हैं। यह प्रक्रिया राहुल, शिवदान सिंह चौहान, यशपाल रांगेय राघव के प्रति उनने नहीं थी। वह प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री के नाते उनके भीतर झाँकना तक नहीं चाहते थे” राहुल जी के संदर्भ में वे आगे लिखते है “वह राहुल सांस्कृत्यायन का विरोध करने के बहाने बौद्ध दर्शन, उसकी उपलब्धि, उसकी क्रांतिकारी भूमिका को नकारते हैं।” विष्णु जी के अनुसार यह उनकी “गैर क्रांतिकारी समझ” थी जिसमे बाद में उन्होंने संसोधन किया।
इन बिंदुओं पर काफी बहस हो चुकी है। मुख्यतः परंपरा के मूल्यांकन को लेकर। कुछ लोगों के लिए वाल्मिकी, व्यास, कालिदास से तुलसी तक के साहित्य में सामंती मूल्यों की रक्षा के अलावा कुछ भी नहीं है। इसके विपरीत डॉ शर्मा इनके अंतर्विरोधों को समझते हुए भी इनके साहित्य में उपलब्ध लोकवादी-लौकिक तथा सामंत विरोधी मूल्यों की पड़ताल करते हैं। वे सर्व नकारवादी राह पर नहीं चलते। राहुल जी से असहमति उनकी कई बिंदुओं पर रही है जिसमे भाषा का प्रश्न, मार्क्सवाद की व्याख्या,परम्परा का मूल्यांकन आदि। बौद्ध दर्शन अपने देशकालगत सीमाओं के बावजूद काफी आगे बढ़ा हुआ दर्शन है, लेकिन इसके अपने अंतर्विरोध हैं। दिक्कत यह है कि कुछ लोग इसे नजरअंदाज कर इसे मार्क्सवाद के समकक्ष अथवा उसके विकल्प की तरह प्रस्तुत करते हैं।डॉ शर्मा के अनुसार राहुल जी के लेखन में भी यह बात दिखाई पड़ती है, इसलिए उन्होंने इसका विरोध किया। अवश्य प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव होने के दौरान उनमें ‘पार्टी लाइन’ का प्रभाव रहा होगा। विष्णु जी इसे “गैर क्रांतिकारी समझ” कहें तो क्या कहा जा सकता है!
ऊपर असहमतियों का उल्लेख इसलिए भी किया गया है क्योंकि विष्णु जी द्वारा रामविलास जी के महत्व की पहचान आलोचनात्मक था। उनकी नज़र में एक समर्थ आलोचक से और भी अपेक्षाएं थीं।रामविलास जी की आत्मकथा ‘अपनी धरती अपने लोग’ पर चर्चा करते वे उसमे ‘अपनी धरती की राजनीतिक टकराहट’ और ‘सांस्कृतिक द्वंद्व’ का अभाव पाते हैं। आगे लिखते हैं “डॉ शर्मा की आलोचनात्मक भूलों का कोई पक्ष उनकी आत्मकथा ‘देर सबेर’ में नहीं उभरता।”(पृ.15) और भी ” डॉ शर्मा की आत्मकथा के दूसरे खंड ‘देर सबेर’ में न आजादी का संघर्ष आया है, न खतरा उठाने की छटपटाहट नज़र आती है”। यहां और अन्यत्र भी विष्णु जी की अपेक्षा डॉ शर्मा से ‘एक्टविस्ट’ होने की नज़र आती है जो वे उस ढंग के नहीं थे। वे मूलतः एक लेखक थे और उनका संघर्ष लेखकीय और वैचारिक ही था। चालीस के दशक में अवश्य वे कम्युनिष्ट पार्टी से सीधे जुड़े थे, उसके लिए लिखते थे। सीधे और छद्म नाम दोनो से। आजादी के बाद एक शासकीय कालेज में प्राध्यापक होकर भी वे ऐसे लेख और किताबे लिखते रहें जिससे सत्ता का सीधा टकराव था। इसलिए यह कहना की उनके जीवन मे ज़रा भी जोखिम नहीं था, गलत है।
विष्णु जी यह भी लिखते हैं कि राहुल, नागार्जुन और मुक्तिबोध क्रांति के कवि हैं। “मुक्तिबोध, नागार्जुन खतरा उठाकर क्रांति के हिस्सेदार थे। रामविलास शर्मा और दूसरे लोग दोस्त थे।”(पृ.156) दोस्त होना भी कम बात नहीं है।राहुल जी और नागार्जुन तो आंदोलनों में भी भाग लेते रहे। मगर हमारी समझ भी मुक्तिबोध जी जितना कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे उतना तो डॉ शर्मा भी जुड़े थे। एक पत्र में उन्होंने विष्णु जी को लिखा भी था कि प्रेमचंद के समय कुछ किसान आंदोलन हुए लेकिन उन्होंने उसमे भाग नहीं लिया फिर भी वह किसान जीवन के बहुत बड़े चित्रकार थे। और आज भी सब उनके लेखन से प्रेरणा लेते हैं। वस्तुतः एक्टिविस्ट का अतिरिक्त महत्व हमेशा रहेगा मगर विचारक के महत्व को भी कम नहीं आका जा सकता।
पुस्तक में संकलित डॉ शर्मा के निधन पर लिखा गया आलेख ‘चुप है यों, बेजुबान है गोया :रामविलास शर्मा’ मार्मिक है।उनके दाहकर्म के प्रसंग में लिखते हैं “मैं वहां रुका नहीं। हर आदमी अपने निराले रामविलास को देख रहा था। उनमें थे- कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी…। नामवर सिंह भी आँखों से जो कह रहे थे, उनका कण्ठ उसे ही दुहरा रहा था: ‘इत्तिहाद है हमको’।”(पृ.22) इस आलेख में (और अन्यत्र भी)उन्होंने उन लोगो की भी खबर ली है जो डॉ शर्मा बहिष्कार किये हुए थे।शिवदान चौहान जी की उनसे बहुत से वैचारिक असहमतियां रहीं, मगर डॉ शर्मा के निधन पर उनका व्यक्तव्य उनके महत्व को दिखाता है “हम साठ साल से एक दूसरे के साथ रहे, सहयोग किया और लड़े भी हैं। सब कुछ हुआ। मतभेद की परंपरा रही है। मैं भी उसी अवस्था मे हूँ। मैंने इतना संघर्ष साथ किया है। इस दुनिया से रुखसत होने से पहले हाथ मिलाना चाहिए। हाथ मिलाने की हसरत पूरी नहीं हुई। वे अपना काम ज़िंदगी में पूरा कर चुके। बहुत बड़ा काम किया उन्होंने। शताब्दी पुरस्कार, साहित्य के बड़े पुरस्कार मिले। उनका सदुपयोग किया। स्वार्थ के लिए नही, पुरस्कार के लिए नही, सत्य के लिए निर्भीकता से लड़े। निर्भीक राय देते रहे।”(पृ.29)
डॉ शर्मा की कृति ‘लोक जागरण और हिंदी साहित्य’ का विवेचन करते विष्णु जी ‘शुक्ल द्विवेदी जी विवाद’ और उसमे डॉ शर्मा और नामवर जी की भूमिका को रेखांकित करते हैं। इस कृति में डॉ शर्मा ने द्विवेदी जी की तीखी आलोचना की है जो कहीं कहीं अतिवाद में चली गई है। कहा जाता है कि डॉ शर्मा ने इसे ‘दूसरी परंपरा की खोज ‘ के जवाब में लिखा था। द्विवेदी जी को ‘गहरे सामंती मूल्यों ‘से प्रभावित कहने वाले डॉ शर्मा कभी उनके लिए लिखा था। “वैष्णव कवियों ने शास्त्र सम्मत समाज व्यवस्था को धक्का देकर मनुष्य मात्र की महत्ता की घोषणा की थी। द्विवेदी जी ने इस तथ्य का यथेष्ट निर्लिप्त भाव से विवेचन किया है। उनके चिंतन को देखते हुए यह मानना पड़ता है कि उनका मानसिक विकास शास्त्र और प्राचीन रूढ़ियों की चहारदीवारी तोड़ता हुआ नवीन समाज हितकर लक्ष्य की ओर बढ़ता गया।”(विराम चिन्ह पृ.339) विष्णु जी ने इस विवाद को एक संतुलित दृष्टि से देखा है और सभी के सकारात्मक कार्य आगे बढ़ाने की बात की है।
‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ की विवेचना करते विष्णु जी लिखते हैं “ऋग्वेद से कालिदास तक डॉ रामविलास शर्मा की यात्रा वास्तव में जन और गण के यथार्थ से आधुनिक हिंदी प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान या एकता का सूत्र खोजने का एक प्रयास है।”(पृ.34) इस कृति में डॉ शर्मा ने ऋग्वेद से निराला तक भारतीय परंपरा में श्रम की महत्ता की पड़ताल की है जिसका विष्णु जी प्रशंसा करते हैं। डॉ शर्मा की यह पड़ताल उनके मन मे हिंदी प्रदेश(हिंदी जाति) की एकता की चाह से जुड़ी हुई है। विष्णु जी इसे मार्क्स और एंगेल्स के जर्मनी की एकता के स्वप्न से जोड़ते हैं। मगर क्या इसके लिए अपेक्षित तैयारी है “हिंदी प्रदेशों की एकता का सूत्र क्या लोकमानस में बसी क्रांति का प्रेरक सूत्र है? क्या मार्क्स और एंगेल्स की तरह हिंदी प्रदेश में डॉ शर्मा और राहुल जी ने क्रांति की तैयारी की है? या डॉ शर्मा का आज भी यह एक रोमैंटिक स्वप्न है।”(पृ.35)इस आलेख में विष्णु जी महत्वपूर्ण बात कहते हैं “डॉ शर्मा उपनिषद तक आते हैं। क्यों उसके बाद भौतिकवाद या लोकायत दर्शन का भारत मे लोप हुआ-विशेष तौर से हिंदी प्रदेश में, यह वह बात नहीं बताते।”(पृ.42) अवश्य उन्होंने यहां इस बात की पड़ताल नहीं की है मगर अन्यत्र उनके साहित्य में इस बात का जवाब है, यहां डॉ शर्मा का मुख्य उद्देश्य यह दिखाना रहा है कि “ऋग्वेद की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि यहां शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम का भेद मिट गया है। यह हमारा अतीत है और जिस भविष्य की ओर हमे जाना है, वह भी यही है।”(पृ.40)
‘मित्र संवाद’ का विवेचन करते विष्णु जी डॉ शर्मा के गद्य को ‘अच्छा गद्य’ कहते हैं। डॉ शर्मा ने इस पुस्तक की भूमिका में केदारनाथ अग्रवाल के गद्य की तारीफ़ किया है। विष्णु जी को यहां शमशेर याद आते हैं। डॉ शर्मा ने शमशेर के गद्य को ‘अच्छे गद्य की पहचान’ कहा है। विष्णु जी मानो इन सब को जोड़ते हुए लिखते हैं “राम विलास शर्मा यही बात केदारनाथ अग्रवाल को लिखे पत्रों में बताते हैं और केदार बाबू उन उस्तादों के साथ अपनी रंगत का जीवंत प्रयोग मिलाते चलते हैं। यह कला या श्रेष्ठ कविता के पढ़ने, उसे ग्रहण करने की अनूठी शैली है। इसी अंदाज में ग़ालिब मीर से जुड़ते हैं शमशेर ग़ालिब के पास निराला, मुक्तिबोध और त्रिलोचन की काव्य-शिल्प की जीवंत प्रयोग शाला है और वह उसे ग्रहण करना सिखाते हैं। आलोचक डॉ रामविलास शर्मा जब कीट्स के इन्द्रियबोध को केदार की कविता के आंतरिक शिल्प में देखते हैं, तो वह भी कीट्स से केदार के बीच की समय-सीमा को लांघकर काव्य शिल्प की यथार्थवादी दृष्टि का सौंदर्य पहचानते हैं।”(पृ.55)
‘भारतीय साहित्य की भूमिका’ पर लिखते हुए विष्णु जी कहते हैं “यह भारत की आजादी के पचास साल पूरा होने पर डॉ शर्मा की यथार्थवादी भूमिका है।” डॉ शर्मा ने ‘वेदांत की प्रगतिशील भूमिका’ की बात की है। इस पर विष्णु जी लिखते हैं “क्या मनुस्मृति के बाद के भारतीय समाज के अंतर्विरोधों का सामना डॉ. शर्मा ”वेदांत की प्रगतिशीलता” से कर सकते हैं?” इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने वेदांत की देशकाल बद्ध सीमित प्रगतिशीलता की बात की है। वेदांत जीव और ब्रम्ह में भेद नहीं मानता। जीव ही ब्रम्ह है तो किसी सामन्त अथवा पुरोहित से क्या डरना। इसलिए भक्तिकाल से निराला तक इसका सकारात्मक पक्ष देखा जा सकता है।
इसी तरह ‘ऋग्वेद और पश्चिम एशिया’, ‘भारतीय सौंदर्यबोध और तुलसीदास’, तथा उनके शुक्ल जी और प्रेमचंद सम्बन्धी उनके मूल्यांकनों की चर्चा करते हुए विष्णु जी उनके लोकपक्ष, उनजे मार्क्सवादी दृष्टिकोण, लोकजागरण, भारतीय संस्कृति की सकारात्मक योगदान की सराहना करते हैं और जहां असहमत हो उसे भी रेखांकित करते हैं।पूरी पुस्तक में उनकी असहमति मुख्यतः डॉ शर्मा के मुक्तिबोध, राहुल जी, रांगेय राघव, शिवदान जी, शमशेर सम्बन्धी मूल्यांकन को लेकर है अन्यथा वे डॉ शर्मा को प्रगतिशील आलोचना के शिखर पुरूष मानते दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने उन लेखकों, विश्विद्यालयों, पत्रिकाओं के संपादकों की भी ख़बर ली है जो प्रगतिशील खेमे के होकर भी डॉ शर्मा की एकांगी आलोचना करते रहे हैं।
इस तरह इस पुस्तक में डॉ शर्मा के लोकपक्ष की पहचान तो है, उनके ‘भूलों’ को भी रेखांकित किया गया है। मगर जैसा कि हमने पहले कहा है यह आलोचना की व्यवस्थित पुस्तक नही है। विष्णु जी ने किसी भी आलेख में किसी एक बिंदु पर स्थिर रहकर डॉ शर्मा के उस पक्ष का विस्तृत विवेचन ननहीं किया है,बल्कि वे एक साथ कई पहलुओं बात करते चलते हैं, इसलिए बहुत जगह बातें अधूरी भी रह जाती है। शायद विष्णु जी के पास इसके लिए उतना अवकाश नहीं था अथवा यह उनका उद्देश्य भी नहीं था। बावजूद इसके यह पुस्तक डॉ शर्मा के आलोचनात्मक संघर्ष और उनके युग को समझने में पर्याप्त मदद करती है।
(सर्वनाम के विष्णु चन्द्र शर्मा पर केंद्रित अंक 124 में प्रकाशित)
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पुस्तक- रामविलास शर्मा का लोकपक्ष
लेखक- विष्णु चन्द्र शर्मा
प्रकाशन- वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली(2010)
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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320