हम कुँअर बेचैन के चेले हैं, जिन्होंने कविता का ‘क’ और जीवन का ‘ज’ भी सिखाया
(डॉ. चेतन आनंद/Chetan Aanad)
बात उस समय की है जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ता था. तब कविता लिखने का जुनून हुआ करता था. मेरा परिचय तब किसी के मार्फत मुरादनगर के हिसाली गांव निवासी सुकवि श्री दयाशंकर अश्क से हुआ था. बातों-बातों में उन्होंने मुझे बताया कि गाजियाबाद में तो सुप्रसिद्ध कवि डॉ. कुँअर बेचैन रहते हैं. पता पूछकर मैं बेचैन जी के घर नेहरू नगर पहुंचा. वह घर पर ही मिले. उनसे मुलाकात हुई. उनसे मिलकर महसूस ही नहीं हुआ कि उनसे मेरी पहली मुलाकात है. मुझमें कविता लिखने के साथ उसे सुनाने का भी शौक था. मेरे निवेदन पर बेचैन जी ने मेरी कविता सुनी. कविता में तो कोई बात कविता जैसी नहीं थी लेकिन उन्होंने मेरा हौसला बहुत बढ़ाया. उन्होंने मेरी कविता की बहुत तारीफ की.
डॉ. कुँवर बेचैन मुझे पहली बात जो बताई वह यह थी कि प्रकृति में, या घर में, बाहर-अंदर जो भी वस्तुएं हैं उनको जिंदगी से जोड़ो. फिर कविता में उसे ढालो. मैं उनकी बात से इतना प्रभावित हुआ कि उनसे मिलने गाहे-बगाहे उनके घर जाने लगा. इस बीच मैं लाल क्वार्टर मोहल्ले में रहता था. वहां मैंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर ‘स्वर स्वामिनी तरुण समिति’ बना डाली. सभी ने तय किया कि लाल क्वार्टर मोहल्ले में एक कवि सम्मेलन करवाएंगे. इस सिलसिले में अश्क जी से बात हुई. उनके मार्फत ओज के सुप्रसिद्ध कवि वेद प्रकाश सुमन जी से मिलना हुआ. कवि सम्मेलन की बात बनी. तय हुआ कि कुँअर बेचैन जी का इस कवि सम्मेलन में अभिनंदन करेंगे.
मेरा बचपन का दोस्त और सहपाठी कवि चरण शंकर प्रसून और मैं बेचैन जी के घर पहुंचे. उनसे आग्रह किया. वह मान गये. मोहल्ले में घर-घर जाकर हमने चंदा एकत्र किया और कवि सम्मेलन करवा डाला. बेचैन जी का अभिनंदन किया. जैसा भी किया अपनी सामर्थ्य अनुसार किया. वेद प्रकाश सुमन जी ने संचालन कर कवि सम्मेलन में चार चांद लगाये. दो दिन बाद मैं फिर बेचैन जी से मिला. बात-बात में मैंने कहा कि समिति की ओर से एक स्मारिका निकालनी है. अपनी कोई कविता दे दो, इसे हम कवर पेज पर प्रकाशित करेंगे. बेचैन जी ने हमें जो कविता दी वह मां शारदे पर लिखा छंद था. जो इस प्रकार था- ‘नित ज्ञान गुमान के आंगन में कुछ भोर रहे, कुछ सांझ रहे। मुस्कान की गोद भरी ही रहे पर पीर भी मेरी न बांझ रहे। मन में कुछ और रहे न रहे, मन मानव का मन मांझ रहे। वरदान दे मां मन मंदिर में बजती नवगीत की झांझ रहे।’
मेरे मुंह से निकल गया कि हम इसे तीन महीने में प्रकाशित कर देंगे. उस समय पद्मभूषण गीत ऋषि गोपाल दास नीरज, राजेन्द्र राजन और उर्मिलेश जी ने डाक से अपनी रचनाएं हमें भेजीं. हमने भी साहस करके पैसे जुटाये और एक स्मारिका प्रकाशित कर ही दी. तीन महीने बाद मैं बेचैन जी के पास स्मारिका लेकर गया. उनके घर के गेट पर बाहर ही खड़ा था. बाहर बेचैन जी आए. दरवाज़ा खोला. मैंने स्मारिका उनके हाथ पर रख दी. यह देखकर वह इतना खुश हुए कि मेरा हाथ पकड़कर घर के अंदर ले गये. अपनी पत्नी यानी हमारी मम्मी जी, उन्हें मैं मम्मी जी बुलाता हूं, के पास ले जाकर मेरी ओर इशारा करते हुए बोले- यह होता है लागू. जो कहा, वह किया. उन्होंने मुझे खूब-खूब आशीर्वाद दिये. इसके बाद तो उनसे मिलने का सिलसिला ही चल निकला.
कुँवर बेचैन अब मेरे काव्य गुरु ही नहीं मेरे मार्गदर्शक-पिता भी बन चुके थे. मैं उन्हें गुरुजी कहकर बुलाने लगा. जो भी कविता मैं उनके पास लिखकर ले जाता, वह उसमें थोड़ा-बहुत संशोधन कर दिया करते. मेरे जैसे दो-तीन और कविता लिखने वाले उनके पास आते थे. जैसे अनिल असीम, नित्यानंद तुषार, गोविन्द गुलशन, पवन खत्री, अमिताभ मासूम आदि. गुरुजी ने हम सबको कहा कि तुम सब अलग-अलग दिनों में आते हो. मेरे भी कवि सम्मेलन होते हैं. मैं बाहर भी रहता हूं. इसलिए एक दिन कोई ऐसा हो जिसमें सब अपनी-अपनी कविताएं लेकर आएं. तय हुआ कि गुरुवार की शाम सब आया करेंगे. बस फिर क्या था, गुरुजी के ड्राइंग रूम में हम गुरुवार को तय समय पर पहुंचने लगे. शर्त थी कि सब अपनी नई कविताएं लेकर आएंगे. उसी पर चर्चा हुआ करेगी. पहले गुरुवार आने वाले कवियों की संख्या तीन-चार ही थी. लेकिन धीरे-धीरे संख्या चार से छह, छह से दस, दस से बीस, बीस से तीस और फिर 35-36 तक पहुंच गई. वह दौर हमारा गोल्डन पीरियड था. उस दौरान हमने कविता की बहुत सारी बारीकियां सीखीं. किसी के द्वारा कविता में कमी बता देने का हम लोग बुरा भी नहीं माना करते थे. बड़ी स्वस्थ आलोचना हुआ करती थी. क्या गीत, क्या ग़ज़ल, क्या मुक्तक, क्या छंद, सभी विधाओं की व्याकरणिक जानकारियां हमें होने लगीं थीं.
एक रोज कुँवर बेचैन जी को तेज बुखार आ गया. ड्राइंग रूम में वह पलंग पर लेटे थे. मैं और पवन खत्री, जो अब हमारे बीच नहीं है, को गुरुजी ने कहा कि मुझे अपनी ‘ग़ज़ल का व्याकरण’ नामक किताब प्रकाशक को देनी है, दो दिनों में ही. लेकिन बुखार की वजह से मैं रफ पांडुलिपि को फेयर नहीं कर पा रहा हूं. गुरुजी के आदेश पर मैं और पवन वहीं उनके घर पर ग़ज़ल के व्याकरण पर लिखी गुरुजी की किताब की पांडुलिपि फेयर करने लगे. हम दोनों देर रात तक उनकी पांडुलिपि को हाथ से लिखने लगे. इसका लाभ यह हुआ कि जो भी ग़ज़ल का व्याकरण था वह आसानी से हमें याद हो गया. इससे हमारी ग़ज़ल कहने की रुचि में बहुत इजाफा हुआ. उस दौरान हमने बहुत ग़ज़ल कहीं. यहां तक कि ग़ज़ल के व्याकरण पर पवन और मेरी बड़े-बड़े शायरों से ठन भी जाती थी.
अब बताता हूं एक मजेदार किस्सा. काव्य कक्षाओं में जो कवि अच्छा शेर कहता था, कुँवर बेचैन जी उसे पांच रुपये प्रोत्साहन स्वरूप दिया करते थे. इस प्रोत्साहन से हम सबमें ऐसी होड़ लगी कि हम एक से एक बढ़िया शेर कहने लगे. हमने उनसे खूब पांच-पांच रुपये बटोरे. आखिरकार एक दिन कुँवर बेचैन जी ने रुपये देने से साफ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि अब तुम लोग पूरी-पूरी ग़ज़ल अच्छी कहने लगे हो, मैं अब कितने रुपये तुम लोगों को दूंगा. लेकिन गुरुजी से पांच रुपये लेने को सिलसिला बहुत दिनों तक चला. यह गुरुजी की सूझ-बूझ ही थी कि उन्होंने हमें निखारने के लिए इस प्रकार की प्रोत्साहन राशि इनाम में देने की योजना बनाई.
मुझे कुँवर बेचैन जी से पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि मैंने बी.कॉम करने के बाद उनके संरक्षण में महानंद मिशन डिग्री कॉलेज से एम.ए. हिन्दी किया और वर्ष 1989 में ज़िले भर में टॉप किया. मुझे प्रथम श्रेणी प्राप्त करने पर स्वर्ण पदक हासिल हुआ. बेचैन जी हमें कॉलेज में आधुनिक हिन्दी साहित्य पढ़ाया करते थे. कवि सम्मेलनों में अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद उन्हांने कभी किसी छात्र का नुकसान नहीं किया. वह पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए अतिरिक्त कक्षाएं भी लिया करते थे. एक बार उन्होंने हमारे पूछने पर हमें बताया कि मैं रोज़ाना आप लोगों को बड़े-बड़े कवियों की कविताओं को पढ़ाता हूं. इसी बहाने मेरा रोजाना पहाड़ सरीखे इन बड़े कवियों के नीचे से होकर गुज़रने का मौका मिलता है. यही कारण है कि मुझमें घमंड नहीं आता.
ऐसे थे हमारे कुँवर बेचैन, जिन्होंने मुझे कविता का ‘क’ ही नहीं जीवन का ‘ज’ भी सिखाया. उन्होंने मुझे सिखाया कि कभी किसी की लकीर मत काटो. शॉर्ट कट मत अपनाओ. मंच के महत्वाकांक्षी मत बनो. अपनी लकीर खींचते जाओ. देखना दूसरे की लकीर अपने आप छोटी हो जाएगी. उन्होंने सिखाया कि कोई मेरी निन्दा करे या प्रशंसा करे, मुझे अपनी कर्तव्य मार्ग पर अडिग होकर चलना है. उन्होंने सिखाया कि कभी घमंड मत करना. घमंड इंसान के भीतर बैठे कलाकार और संवेदना को खा जाता है.
उन्होंने एक बार मुझे बताया कि चेतन बड़े काम करने से ही इंसान बड़ा नहीं बनता, छोटे-छोटे अच्छे कामों से भी इंसान बड़ा बनता है. जैसे तुम मेरे साथ होते हो तो मेरा बैग पकड़ लेते हो. मेरा कोई सामान होता है, उसे उठा लेते हो. यह तुम्हारी नजर में छोटी बात होगी लेकिन मेरी नजर में यह बड़ी बात है.
सच में अगर समय पर कुँवर बेचैन जी न मिलते तो हमें सही राह दिखाने वाला कोई नहीं मिलता. मैं आज जिस भी मुकाम पर हूं वह सब गुरुदेव महाकवि डॉ. कुँअर बेचैन की दी हुई शिक्षा और नसीहतों का ही नतीजा है. गुरुजी की अनेक कविताओं की पंक्तियां मुझे सदैव ऊर्जा देती रहती हैं।
जैसे-
सूखी मिट्टी से कोई भी मूरत न कभी बन पाएगी,
जब हवा चलेगी यह मिट्टी खुद अपनी धूल उड़ाएगी,
इसलिए सजल बादल बनकर बौछार के छींटे देता चल,
यह दुनिया सूखी मिट्टी है तू प्यार के छींटे देता चल।
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होके मायूस न यूं शाम से ढलते रहिये
ज़िन्दगी भोर है सूरज से निकलते रहिये
एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जाएंगे
धीर-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये।
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क्या ऐ सूरज तेरी औकात है इस दुनिया में
रात के बाद भी इक रात है इस दुनिया में
शाख से तोड़े गये फूल ने हंसकर ये कहा
अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में।
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दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कोई उलझन ही रही होगी जो वो भूल गया
मेरे हिस्से में कोई शाम सुहानी लिखना।
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वक्त की सियासत के क्या अजब झमेले हैं
आईने तो ग़ायब हैं, चेहरे अकेले हैं
इन रगों में बसते हैं गीत, नज़्म, कविताएँ
क्या सिखाओगे हमको, हम कुँअर के चेले हैं।