November 23, 2024

अब हम निःशब्द एक दूसरे को ताकते हैं
आंखों के उजड़े अरण्य में हर तरफ बिखरी है जुगनुओं की मृत देहें

शब्द घुमड़कर कर रह जाते हैं कंठ में पर
बरसते नहीं
होंठ लरजते हैं पर चूमते नहीं
बाहें थरथराती हैं पर गले नहीं लगातीं
उंगलियां हवा में घूम सहमकर रह जाती हैं
छूती नहीं

सारी देह स्थिर है
सारी देह कांपती है
उतरे मुख पर मुस्कान बेमौसम बारिश-सी बरस कर रह जाती है

पिछला वक्त उतर आता है कमरे की खिड़की से उचककर
जो अब भी रहता है दो प्रेमियों के बीच बे-आवाज़
हम परे ठेलते हैं वक्त की बांह पकड़कर उसे
वह ढाई साल के बच्चे-सा पैर पटक शोर मचाता है
अब हम कुछ नहीं कहते उसे
वह ठीक बीच मे बैठा खेल रहा है हमारी स्मृतियों से

जैसे तैसे उधर से बस दो शब्द निकलते हैं
‘कैसी हो ‘
जैसे तैसे इधर से धीमा-सा उत्तर आता है
‘ ठीक हूँ ‘

अचानक कलेजा चीरकर एक तूफान मचल उठता है और गले में हूक बनकर अटक जाता है
आंखों में संसार भर के कंकड़ भर गए हैं

‘ मैं अभी आयी ‘

अब यही सबसे बेहतरीन तोहफा है जो हम एक दूसरे को देते हैं
चंद लम्हों का एकांत
एक दूसरे कोे एक दूसरे के सामने रोने की कमज़ोरी से बचाने के लिए

मजबूत दिखना अब हमारी सबसे बड़ी ज़रूरत है
“हम सम्भल चुके हैं ,सुना तुमने … अब कोई फर्क नहीं पड़ता ”
अब एक निरर्थक बहलाना ज़रूरी रस्म है
जिसे निभाते हैं हम दोनों ही शिद्दत से
हांलाकि हम अनाड़ी उसमें भी असफल हो जाते हैं

यूं भी
रोने की सहूलियत के लिए एक सीना और एक कंधा लाज़मी है
जो अब भी है पर अपना नहीं है

दो मिनिट बाद हवा में आखिरी दो शब्द घायल पंछी से फड़फड़ाते हैं
‘ चलूं ? ‘
‘ हम्म..’

अब जाते हुए कोई भींचकर गले नहीं लगेगा
कोई पांच मिनिट और ठहरने को नहीं कहेगा
कम वक्त देने की शिकायत नहीं करेगा
‘दोबारा कब मिलोगे ‘ नहीं पूछेगा

तब ‘साथ थे’ और अब ‘नहीं हैं ‘ के बीच सब कुछ बदल गया,
नहीं बदला तो सिर्फ प्रेम…
आह !

ना ना… प्रेम भी तो बदल गया
पहले सुख के सतरंगी आकाश में कबूतर-सा उड़ता था
अब पीड़ा की सख्त ज़मीन पर मार खाये बच्चे-सा पैर सिकोड़े सोता है

———पल्लवी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *