तुम जानते हो पुरूष ..!
कविता को धैर्य पूर्वक पढ़ सकने का समय दे सकें तो पढ़े। कविता विस्तारित है किंतु , स्त्री मन की परत खोलती जान पड़ेगी।
वर्षों बाद भी जब तुमने बात की तो कहा
तुम मुझसे घृणा नहीं कर सकती हो
मैं कहती रही मुझे तुमसे घृणा है
तुमने मुझसे विश्वासघात किया
प्रेम मुझसे और
विवाह किसी और से किया।
तुम हंसकर कहते
एक बार मुझसे एकांत में मिलो ,
तुम्हारी सारी घृणा दूर हो जाएगी.
सुनो पुरूष ..!
मैं इस बात पर तुमसे
और अधिक घृणा करने लगी
यह तुम्हारा अपराध ही नहीं
अपितु भूल भी थी
तुम्हारे उस एकांत में पुनः मिलने के
आमंत्रण का अर्थ
मैं भली-भांति जानती थी,
मैं समझ पा रही थी कि ,
तुमने प्रेमिका बनाकर
मेरे साथ तो कपट किया ही ,
अब किसी को अर्धांगिनी बनाकर
तुम उसे भी छल का विष
दे देने को आतुर थे
और हाँ एक क्षण रुको ..!
तुम्हारे उस एकांत में मिलने के आमंत्रण
के साथ तुम्हारे स्वर का वो दंभ
वो अभिमान भी मुझे स्मरण है
जो तुम्हारे अनकहे शब्दों में समाहित था
तुम्हारी मंशा ,
एकांत में पुनः
मेरे भीतर की स्त्री को संतुष्ट करके
कदाचित मुझ पर ,
वही पूर्व सा अधिकार
पा लेने की थी ।
तुम्हारे उस आत्मविश्वास
और उसमें छुपे तुम्हारे
पुरुष प्रयास को मैं ,
पहचान गयी थी
और सच मानो
मेरे मन में तुम्हारे प्रति घृणा
पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी थी
वह तुम्हारी एक और असिद्धि थी
तुम्हारे जाने के बाद
कुछ और पुरूष मिले मुझे
कुछ एक
जाने किस-किस तरह से
प्रभावित करते रहे मुझे
किंतु सभी ने मुझे निराश किया
कि , मैं उनमें भी
एक पुरूष के अतिरिक्त कुछ और
खोज न सकी
वे मुझे अपने पुरूषत्व के किस्से
सहजता ओढ़कर सुनाते
वे शिष्ट बनकर
नितांत सहज संकेतों में कह डालते कि
विवाह के बाद
कैसे उनकी पत्नी उनसे आनंदित रहती थी
वे संकेतों में बताते कि कैसे वे
अपनी नव विवाहिता पत्नी को
अलग-अलग तरह से
पुरूष सुख देकर धन्य करते थे
कैसे उनकी पत्नी उनके जैसे
पुरूष को पाकर
रति में रूचि लेने लगी थी
मैं मौन होकर उनको सुनती
मैं उन्हें डपट कर चुप करा सकती थी
पर मैं पुरूष के , पुरुष मन का
अंतिम पड़ाव देख लेना चाहती थी
अपनी स्त्री के साथ बिताए
व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करता पुरुष मुझे ,
दूसरी स्त्री को आकर्षित करता और
लालच देता दिखाई पड़ा
स्वयं के पुरुषत्व पर इतराता ,
उसके किस्से साझा करता पुरुष
निस्संदेह मुझे कातर
विकल्पहीन दिखाई दिया
मैं अचंभित थी कि ..पुरूष ,
देह से ऊपर उठकर
स्त्री को देख क्यूँ न सका
स्त्री का भोग बन जाने को
आतुर पुरूष मुझे ,
धरती पर पड़े कीट की भांति
छटपटाता दिख पड़ा
तो सुनो पुरूष..!
तुमने जब -जब स्त्री को
पुरुष बनकर
प्रभावित करना चाहा
तब-तब तुम स्त्री को मात्र
आनंद दे सकने वाले
यंत्र की तरह स्मरण रहे
तुमने तब-तब
सखा होने के अवसरों को खोया
तुमने स्त्री की स्मृतियों में
पुरुष बनकर ठहरने का प्रयास किया
इस संसार में
यही तुम्हारी
सबसे बड़ी चूक थी…
तुम जानते हो पुरूष ..!
तुम्हारे जाने के बाद
मुझे सबसे अधिक दुःख
इस बात का सताता रहा कि
तुम किसी और के साथ सो रहे होगे
हाँ ,
मैं स्त्री आदर्शवादिता का ढोंग किये बिना
तुमसे इस सत्य को स्वीकारती हूँ कि
मैंने सबसे अधिक तुम्हें रात्रि में स्मरण किया
या तुम मेरी स्मृतियों में अधिकतर
रोमांचित करने वाले
उन क्षणों के साथ आये
जो नितांत एकांत में हमने
स्त्री पुरूष की तरह साथ बिताए थे ….
और जानते हो तुम ….
……यही तुम्हारी सबसे बड़ी पराजय थी
–निधि नित्या
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