समीक्षा : आदमी के साहस को आगे लाने वाली पत्रिका ‘दोआबा’
‘दोआबा’ (पत्रिका) / संपादक : जाबिर हुसेन / प्रकाशक : दोआबा प्रकाशन / संपर्क : 247 एम आई जी, लोहियानगर, पटना-800020 / मूल्य : 225 रुपए / संपादकीय संपर्क : doabapatna@gmail.com, मोबाइल : 8409044236
■ शहंशाह आलम
समय हमारे आगे से कितनी तेज़ी से गुज़र चुका है, यह बात हमको तब मालूम पड़ती है, जब अतीत के पन्नों के उलट-पुलट के बाद हम अपने वर्तमान तक आकर ठहर जाते हैं। फिर यहीं से, हमारे अपने समय का भविष्य भी दिखाई देता है, एकदम साफ़-साफ़। जाबिर हुसेन के संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘दोआबा’ के पचासवें अंक को देखकर मेरे मन में यही ख़्याल आया। किसी पत्रिका का पहले से लेकर पचासवें अंक तक का सफ़र हमको इससे अच्छा ख़्याल और क्या दे सकता है, जिसमें आदमी का भूत भी, वर्तमान भी और भविष्य भी, सब संकलित-संगृहीत दिखाई दे। ‘दोआबा’ के पचास अंक तक के सफ़र का एक अर्थ और भी है, वह यह कि इस पत्रिका के विशाल पाठक-समूह का, समकालीन साहित्य के साहित्यकोश तक की अविरत यात्रा। ‘दोआबा’ के पचासो अंक को हम एक जिल्द में कर दें, तो एक साहित्यकोश ही तो तैयार हो जाएगा, वह भी, एक अनिवार्य साहित्यकोश।
या फिर, हम ‘दोआबा’ के पचासो अंक के संपादकीय को एक जिल्द में इकट्ठा करके देखें, तो निश्चित रूप से, एक अलग तरह का कोश तैयार हो जाएगा यानी एक अनिवार्य, अवश्यंभावी, अत्याज्य कोश। और हां, जाबिर हुसेन के लिखे संपादकीय का एक मतलब और भी है, वह है, आदमी की यानी आम आदमी की एक साहसपूर्ण दुनिया के चित्रों की प्रदर्शनी। जाबिर हुसेन अपने संपादकीय सरोकारों को लेकर कहते हैं, ‘दोआबा’ ने अपने नाम के साथ एक उप-नाम जोड़ रखा है : समय से संगत। अपने पचास अंक के इस साहित्यिक सफ़र में हमारी कोशिश रही है कि हम नित्य-नई चुनौतियों और आपदाजनित परिस्थितियों का ईमानदारी, दृढ़ता और तप के साथ सामना करते हुए आगे बढ़ें। हमने समझौतों की बारिश और ख़राब मौसमों में भी अपने क़दमों को स्थिर रखा, और अपने इरादों में कोई कमज़ोरी नहीं आने दी है।’ जाबिर हुसेन की ईमानदारी, दृढ़ता और तप के निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए उनकी इतनी उक्ति काफ़ी है, तब भी, जाबिर हुसेन के पचासवें अंक का संपादकीय और व्यापकता की मांग करता है। इसको पढ़ते हुए पाठक की तृष्णा, इच्छा और लालसा अधूरी रह जाने का आभास होता रहता है।
हम कह सकते हैं, ‘दोआबा’ के जितने अंक आए हैं, सभी अंकों ने अपने बीत रहे समय को प्रभावित किया है। पचासवें अंक को ही देख लीजिए, इस अंक में जाबिर हुसेन की अपनी बात, मीरा कांत का एकल नाटक ‘चल मछली’, शंभु गुप्त का आलेख ‘कहानी और समय (संदर्भ : समकाल)’। रामधारी सिंह दिवाकर का ‘ज़ख़्म औपन्यासिक जीवन की दुखांतिका’ और रुचि भल्ला का ‘अकथ कथा लिंब गांव की’ शीर्षक संस्मरण। पिलकेन्द्र अरोरा से दीप्ति गुप्ता की बातचीत। प्रेम कुमार, प्रफुल्ल प्रभाकर, रजनी शर्मा, रीना सोपम, श्यामल बिहारी महतो, राजनारायण बोहरे, मुकुल जोशी और महेश कुमार केशरी की कहानियां। पूर्णिमा सहारन, सत्य शुचि और नीरज जायसवाल की लघकथाएं। अरुण कमल, रति सक्सेना, किरण अग्रवाल, विनय कुमार, अवध बिहारी पाठक, कविता कृष्णपल्लवी, पुरु मालव, आंशी अग्निहोत्री, मनोज मोहन, सपना भट्ट, प्रेम रंजन अनिमेष, कुमार विजय गुप्त, अनामिका ‘शिव’, लालदीप, गुंजन उपाध्याय पाठक, सारिका भूषण और कस्तूरीलाल तागरा की कविताएं। ‘अक्क महादेवी’ (सुभाष राय) पुस्तक पर सुभाष राय, ‘अंतिम अध्याय’ (रामधारी सिंह दिवाकर) पुस्तक पर शहंशाह आलम, ‘उजाड़ लोकतंत्र में’ (पूनम सिंह) पुस्तक पर निवेदिता, ‘लौटा हुआ लिफाफा’ (कुमार विजय गुप्त) पुस्तक पर नीरज दइया, ‘अमृता शेरगिल : पेंटिंग में कविता’ (डॉ. नीलम वर्मा) पुस्तक पर सुरेन्द्र बांसल, ‘सांप’ (रत्नकुमार सांभरिया) की पुस्तक पर हरिनारायण ठाकुर, ‘छोटा-सा एक पुल’ (जाबिर हुसेन) पुस्तक पर चुनन कुमारी, अश्विनी कुमार आलोक और राबिया का ख़त (मेधा) पुस्तक पर शहंशाह आलम की समीक्षाएं। ‘दोआबा’ के उनचासवें अंक पर शहंशाह आलम, हरिराम मीणा, भास्कर चौधुरी, श्यामल बिहारी महतो और राजेश कुमार मिश्र की टिप्पणियां। इतनी सारी पठनीय सामग्री के साथ-साथ अपने समय की ख्यात चित्रकार अमृता शेरगिल का बहुचर्चित चित्र ‘सर्प वृक्ष’ को पत्रिका के आवरण का हिस्सा बनाया गया है। अन्य रचनाओं के साथ अनुप्रिया के रेखांकन भी दिए गए हैं। अंतिम कवर पृष्ठ पर अमृता शेरगिल के चित्र के साथ नीलम वर्मा के हाइकु भी छापे गए हैं।
260 पृष्ठ तक फैले-पसरे हुए ‘दोआबा’ के पचासवें अंक को जाबिर हुसेन के संपादन-कौशल का परिणाम कहा जा सकता है। इस अंक में प्रकाशित मीरा कांत का एकल नाटक ‘चल मछली’ पाठकों का ध्यान खींचने में सफल दिखाई देता है। इस नाटक को एकल नाटक कहने के पीछे का मतलब यह है कि इस नाटक में एक ही पात्र नाटक के सारे चरित्रों को सफलतापूर्वक निभाता है। यह समकालीन हिंदी नाटक में एक अनूठे प्रयोग का नाटक कहा जा सकता है। इस नाटक की मछली कथा-वस्तु की घटनाओं, क्रिया-कलाप और चरित्र को इतनी सफ़ाई से निभाती है कि पाठक विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते। शंभु गुप्त का आलेख ‘कहानी और समय (संदर्भ : समकाल)’ समयबद्ध होकर कहानी की समकालीनता को रेखांकित करता है। यह आलेख निश्चित रूप से इस अंक का बीज-आलेख स्वीकार किया जाएगा। मेरी नज़र में, शंभु गुप्त उन आलोचकों में से हैं, जिन्होंने जब जो कुछ भी लिखा है, अर्थवान ही लिखा है। शंभु गुप्त के इस आलेख को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, क्योंकि कहानी के समकाल पर यह एक शोधपूर्ण आलेख है। कहानी को लेकर ऐसे आलेख हिंदी आलोचना को विस्तारित करते रहे हैं। रामधारी सिंह दिवाकर का संस्मरण ‘ज़ख़्म : औपन्यासिक जीवन की दुखांतिका’ एक आत्मकथात्मक संस्मरण है। यह संस्मरण प्रो. शाकिर ख़लीक याह्या और उनकी पत्नी प्रो. ज़ीनत फ़ातमा के जीवन के आरोह-अवरोह को पूरे मनोयोग से चित्रित करता है। रामधारी सिंह दिवाकर लिखते हैं, ‘शाकिर साहब के संपर्क के कारण ही मैंने जाना कि मुसलमानों में भी जाति-भेद कम नहीं है। सिर्फ़ बाहर से धार्मिक समानता दिखती है, भीतरी सचाई हम हिंदुओं वाली है। इसमें भी ‘ऊंच-नीच’ है, अंसारी, पसमांदा वग़ैरह हैं, जैसे हम लोगों में अत्यंत पिछड़े, दलित वग़ैरह हैं।’ यहां पर संस्मरणकार से मेरा मतभेद यह है कि मुसलमानों के यहां सिर्फ़ बाहर से समानता दिखती है। संस्मरणकार इस बात को सिरे से छिपा लेते हैं कि हिंदुओं की तरह मुसलमान लोग किसी मुस्लिम दलित पर पेशाब नहीं किया करते। मुस्लिम दलित को मस्जिद जाने से नहीं रोकते, जिस तरह किसी हिंदू दलित को मंदिर जाने से रोका जाता है या उसके साथ भेदभाव किया जाता है। इस बात को भी संस्मरणकार छिपा लेते हैं कि भारत में मुसलमान दलित को हिंदू दलित को दी जाने वाली सुविधाओं से आज भी वंचित रखा गया है। वहीं, इस अंक में व्यंग्यकार पिलकेन्द्र अरोरा से प्रो. दीप्ति गुप्ता का लिया साक्षात्कार पिलकेन्द्र अरोरा के निजी जीवन की बहुत सारी बातों को प्रकट करता है। यह बातचीत और व्यापक हो सकती थी। प्रेम कुमार की कहानी ‘डरों के बीच दिखती रोशनी’ महामारी के समय की चिंताओं-आशंकाओं को यथार्थ रूप में दिखाती है। प्रफुल्ल प्रभाकर की कहानी ‘दहकते बुरांस’ में फैंटेसी और रियलिटी, दोनों का समावेश है। रजनी शर्मा की कहानी ‘कोबरा इफ़ेक्ट’ इस अर्थ में मुझे नई लगी कि इसकी कथावस्तु दिल को छू लेती है। रीना सोपम की कहानी ‘कुंती’ एक स्त्री की संघर्ष-कथा है। श्यामल बिहारी महतो के भीतर का कथाकार हमेशा एक नए शिल्प के साथ प्रकट होता रहा है। उनकी कहानी ‘दूसरी औरत’ के साथ भी ऐसा ही है। राजनारायण बोहरे की ‘ठेके पर नींद’ पढ़ने के बाद यह कहानी हमारे भीतर देर तक टिकी रह जाती है। मुकुल जोशी और महेश कुमार की कहानियां भी अपनी जीवंतता के लिए याद रखी जाएंगी। कविता-खंड में अरुण कमल, रति सक्सेना, किरण अग्रवाल, विनय कुमार, मनोज मोहन, सपना भट्ट, प्रेम रंजन अनिमेष, कुमार विजय गुप्त और अनामिका शिव की कविताएं मानवीय प्रतिबद्धता के लिए याद रखी जाएंगी। अरुण कमल और विनय कुमार की कविताएं इस अंक की उपलब्धि हैं। ये कविताएं हमारे समय के धुंधलके को अपनी रोशनी से जगमग करती हैं। इस तरह से, ‘दोआबा’ का पचासवां अंक, जाबिर हुसेन के एक सचेतन और सचेतक संपादक होने के दावे को पूर्णता देता है।
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● संपर्क : हुसैन कॉलोनी, नोहसा बाग़ीचा, नोहसा रोड, पूरब वाले पेट्रोल पाइप लेन के नज़दीक, फुलवारीशरीफ़, पटना-801505, बिहार।
मोबाइल : 9835417537, 9199518755