लोक-मंगल की कामना को आलोकित करती क्षणिकाओं का संग्रह है- “रोशनी के द्वार”
फगवाड़ा-पंजाब के सुप्रतिष्ठित साहित्यकार व समीक्षक श्री दिलीप कुमार पांडेय ने मेरी क्षणिका-संग्रह कृति ‘रोशनी के द्वार पर समग्र दृष्टि डाल कर विस्तृत समीक्षा लिखी है। मैं उनका तहेदिल से आभार व्यक्त करता हूँ।शुभकामनाएं।
डॉ० ज्ञान प्रकाश ‘पीयूष’ वरिष्ठ साहित्यकार,कवि, आलोचक एवं प्रख्यात चिंतक है। हाल में प्रकाशित क्षणिका-संग्रह “रोशनी के द्वार” हमें प्राप्त हुआ है। साहित्य की अन्य विधाओं के साथ ही साथ क्षणिकाएं भी बहुत पहले से लिखी जा रही हैं, जिसे लघु कविता,बीज कविता, क्षणिका इत्यादि नामों से सम्बोधित किया जाता रहा है, जिसका स्वरूप निश्चित नहीं था। मोटे तौर पर कविता ही स्वीकृत था, लेकिन सूचना क्रांति के व्यापक प्रसार से पाठक वर्ग ने मोटी-मोटी किताबों को पढ़ने में असमर्थता जताई। समय और परिवर्तन के दौर में साहित्य में भी वांछित परिवर्तन करना जरूरी होता गया, जिसके फलस्वरूप पाठकों के आस्वादन के अनुरूप लघुकथाएं, लघु कविताएं, लघु उपन्यास, क्षणिकाएं भी लिखी जाने लगीं,जो आज़ अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। इस विधा को प्रकाश में लाने में प्रो० रूप देवगुण, डॉ० ज्ञान प्रकाश ‘पीयूष’का विशेष योगदान है।
दरअसल क्षणिका साहित्य की एक ऐसी विधा है ,जो कुछ क्षण की अनुभूति को कम शब्दों में चुटीले तरीके से व्यंजित की जाती है। क्षणिका को प्रायः छोटी कविता भी कहा जाता रहा है। वस्तुत: क्षणिकाएं तुकांत और अतुकांत दोनों रूपों में प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अज्ञेय ने अपनी ‘सांप’ क्षणिका में सभ्यता को 6 पंक्तियों में उजागर किया था।
छह पंक्तियों को स्थिरता प्रदान करने में डाॅ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ इसी क्रम में आगे बढ़ते नज़र आते हैं।
उनका नवीनतम क्षणिका संग्रह ‘रोशनी के द्वार’ साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। इसमें 360 क्षणिकाएं संकलित हैं।
जीवन और जगत के विविध आयामों से गुज़रतीं हुई ये रचनाएं, विभिन्न पक्षों प्रतिनिधित्व करती हैं। इसमें विचार एवं संवाद संवेदनात्मक स्तर पर बड़ी सहजता से सुगुंफित हैं। प्रकृति, मनुष्य और पशु-पक्षी से लेकर संस्कृति, संस्कार, परंपरा, दर्शन, धर्म,समय, रिश्ते-नाते सभी विषयों पर कवि ने लेखनी चलाई है।
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ जीवन दर्शन के कवि हैं यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। मानवीय सरोकारों से उपजी ये क्षणिकाएँ मानव के सबल व दुर्बल भावों को समान रूप से उजागर करती हैं, श्रेष्ठ रास्ता सुझाती हैं, विवेकवान बनाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
इन क्षणिकाओं की सबसे बड़ी खासियत यह है कि ये संकेतात्मक ढंग से कानून व व्यवस्था के रवैये एवं
नैतिक क्षरण पर प्रहार करती हैं,और वह भी बिना किसी दबाव के।
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ की क्षणिकाओं का दूसरा पक्ष मनुष्य होने के अर्थ की सार्थकता को लेकर है। मानवता को हर कीमत पर बनाए रखने का है।
डॉ ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’की क्षणिकाएँ जीवन की सार्थकता को रेखांकित करती हुई उसके यथार्थ को कुछ इस प्रकार मुखरित करता है-
” पागल कहकर/करते थे जिसको/लोग परेशान/आज नाम है उसका/बुलदिंयों पर/समय होता बलवान।”
(पृष्ठ सं0101, क्षणिका सं 253 ‘समय बलवान ‘ शीर्षक से )
” जो उसूलों पर/नहीं चलते/अस्त -व्यस्त/जीवन जीते हैं /सन्तुष्ट नहीं वे/शिकायत करते रहते हैं।”
(पृष्ठ संख्या 66, क्षणिका स 149 ज़िन्दगी भर से)
” अच्छी तरह समझ ली/जिसने/जीवन की गीता/दुःख में भी उसका जीवन/आनन्द से बीता।”(पृष्ठ सं 64, क्षणिका सं 143 ‘आनन्द ‘ शीर्षक से)
” उपयोगी बातों पर/जो करता है/सदा अमल/उसका/खिला रहता/जीवन-कमल।”(पृष्ठ सं 64, क्षणिका सं 144 ‘जीवन कमल’ से)
जीवन जीने की कला यानी कथनी-करनी पर बल देते हुए कवि समय की अबाध गति के साथ चलने की प्रेरणा देता हुआ कहता है –
“समय/रुकता नहीं/चलता रहता/अबाध गति से/व्यतीत करना/सुमति से ।”(पृष्ठ सं 20, क्षणिका सं 11 ‘समय ‘ शीर्षक से)
जो समय की कद्र नहीं करते उनका जीवन छिन्न भिन्न होकर
बिखर जाता है –
“खेलने में/आनन्द आया/पढ़ने में/जी घबराया/सोते वक़्त पता नहीं चला/कब समय बीत चला।”(पृष्ठ सं 20, क्षणिका सं 12 ‘सच्चाई’ शीर्षक से)
जीवन अनाप-शनाप बोलने वाले,गप्प लगाने वाले,वाणी के संयम की अनिवार्यता को व्यंजित करते हुए कवि ने ‘मौन ‘ की असीम क्षमता पर गंभीरता से विचार किया है —
समझदार लोगों की/भाषा होती है मौन/पर/वाचालता के युग में/मौन की/ सुनता है कौन?”(पृष्ठ सं 22, क्षणिका सं 16 ‘मौन’ शीर्षक से)
“फूल/मौन रहकर/जीवन जीते हैं/मुस्कुराकर/सुगंध की/ सौगात बांटते हैं।”(पृष्ठ सं 72, क्षणिका सं 167 ‘फूल” से)
और अन्यत्र कुछ पंक्तियाँ देखें –
” मौन में/छुपा है/कोलाहल का सागर/खोलकर देखो/ह्रदय की/गागर।”(पृष्ठ सं 80, क्षणिका सं 190, ह्रदय -गागर से)
“रोशनी के द्वार” क्षणिका-संग्रह में, राजनीति, नेता और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कवि ने बेबाक कलम चलाई है। कुछ संग्रह से क्षणिकाएं यहाँ ध्यातव्य हैं —
“बरसात के आते ही/मेंढ़क टर्राने लगे/चुनाव के आते ही/नेता जी/भाषण झाड़ने लगे।”(पृष्ठ सं 22, क्षणिका सं 17, नेता जी शीर्षक से)
कवि ने यहाँ राजनीतिक नेताओं को मेंढ़क का प्रतीक माना है जहाँ भाषण व वादे महज़ सीट जीतने एवं कुर्सी पर काबिज होने के लिए है,बात यही ख़त्म नहीं होती सत्ता में आते ही वे कैसे कानून की धज्जियाँ उड़ाते नज़र आते हैं, द्रष्टव्य है-
” जान पर खेलकर/पुलिस/आतंकियों को पकड़ती/ पर छुड़वा देती/नेता जी की/चुनावी रणनीति।”(पृष्ठ सं 34, क्षणिका सं 52, ‘चुनावी रणनीति ‘ से)
“चुनाव/ जीतने के लिए/आश्वासन जरूरी है/भाषण देना/ नेताओं की/मगरूरी है।”(पृष्ठ सं 37, क्षणिका सं 61, ‘जरूरी है’ शीर्षक से)
” लो! /फिर से/चुनाव आ गए/दल बदलू/राजनीति में/छा गए।”(पृष्ठ सं 52, क्षणिका सं 106, ‘चुनाव आ गए’ से)
” चुनाव की/ घोषणा/ हो गई/मानो/भ्रष्टाचारियों की/लाटरी लग गई।”(पृष्ठ सं 62, क्षणिका सं 136’लाटरी लग गई ‘ शीर्षक से)
“बिजली की/कटौती/बंद हो गई/जब से/चुनाव की/घोषणा हो गई।”(पृष्ठ सं 74, क्षणिका सं 174 से)
लेकिन कोई कितना भी प्रदर्शन,काले कारनामे कर ले,
प्रकृति के कहर से कैसे बच सकता है? जब- जब मानव ने प्रदूषण फैलाना और पेड़ पौधों को काटना शुरू किया है, तब-तब प्रकृति ने अपने रौद्र रूप को धारण करके विनाश किया।यहाँ कवि प्रकृति से खिलवाड़ करने के नतीजे पर कह रहा है —
” कभी बाढ़/कभी भूकंप/कभी सूखा/प्रकृति से/खिलवाड़ का/देखा नतीजा।” ( पृष्ठ सं 29, क्षणिका सं 37, ‘नतीजा’ शीर्षक से)
” प्रकृति ने/जी भर/सुंदरता का खजाना/लुटाया/पर मानव ने/उसे विद्रूप बनाया।”(पृष्ठ सं 41, क्षणिका सं 73, ‘मानव ‘ शीर्षक से)
“भयंकर गर्मी/जलस्रोत/सब सूख गए/बादल/मानव से रूठ गए।”(पृष्ठ सं 59, क्षणिका सं 127, ‘सूखा ‘ शीर्षक से)
” मानव ने/हरे पेड़ों को/उजाड़ कर/बस्तियां बसा ली/प्रकृति ने उसको/सूखे की सज़ा दी।”(पृष्ठ सं 130, क्षणिका सं 341, ‘सजा’ से)
कवि ने सच्चे मित्र को अपना हितैषी कहा है जो मुसीबत में खड़ा रहता है। इस दृष्टि में कुछ पंक्तियाँ देखने योग्य हैं —
” सच्चा मित्र/संकट में/पहले से दुगना/प्यार करता है/खतरे उठाकर भी/मित्र की सहायता करता है।”(पृष्ठ संख्या 21, क्षणिका सं 18, ‘सच्चा मित्र’ से)
” सच्ची मित्रता/सुग्रीव व राम-सी/होती है/कष्ट सारे/मित्र के/हर लेती है।”(पृष्ठ सं 59, क्षणिका सं 159, ‘सच्ची मित्रता ‘ शीर्षक से)
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष ‘ युगीन सत्य को सूक्ष्मता से अन्वेषण करते हैं।कवि ने साहित्य, पाठक और हिन्दी पर भी क्रमशः विचार व्यक्त किए हैं। कवि ने कहा है कि
आज पाठकों का अभाव है जबकि पुस्तकों का भंडार है-
” स्वरचित/पुस्तकों का/ अम्बार है/पर पाठकों का/नितांत/ अभाव है।”(पृष्ठ सं 23, क्षणिका सं 20 , अभाव शीर्षक से)
” अच्छी कविता में/ होते हैं/सामाजिक सरोकार/संवेदना/और/प्रकृतिजन्य उदगार।”(पृष्ठ सं 54, क्षणिका सं 112, ‘अच्छी कविता ‘ शीर्षक से)
” अच्छा साहित्य/पढ़ने से/तनाव दूर होता है/अवसाद/नहीं रहता/उत्साह बढ़ता है।”(पृष्ठ सं 60, क्षणिका सं 132, ‘फायदे ‘ शीर्षक से)
साहित्यकार के सम्बंध में क्षणिकाकार का मानना है-
” विकृतियों के भंजक/और मूल्यों के संरक्षक/होते हैं साहित्यकार/इस बात को/बिना संदेह/कर लो स्वीकार।”(पृष्ठ सं 82, क्षणिका सं 197 ‘साहित्यकार’ से)
जब साहित्य और रचना का सवाल उपस्थित हुआ तो फिर व्यापक जनसम्पर्क वाली अपनी मातृभाषा हिन्दी को कैसे भुलाया जा सकता हैं ? उसके बिना हम पंगु हैं। कवि कहता है- ” केवल एक दिन/हिन्दी दिवस/क्यों मनाएं?/ मनाने की औपचारिकता छोड़/हर दिन/उपयोग में हिन्दी लाएं।”(पृष्ठ सं 124, क्षणिका सं 323, ‘हर दिन हिंदी ‘ शीर्षक से)
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ घर, परिवार, रिश्ते व सम्बंधों को बहुत गहराई में उतरकर देखते हैं, वे व्यावहारिक जीवन में उनके क्रिया -कलापों को ज्यों का त्यों प्रस्तुत भी कर देते हैं, संग्रह में से कुछ क्षणिकाएं देखने, समझने योग्य हैं –
” पहले बहू/पर्दे में रहती थी/काम सारा करती थी/बीत गए वे ज़माने/अब पहनती है जीन्स/जाती है कमाने।”(पृष्ठ सं 102, क्षणिका सं 258, ‘बहू’ शीर्षक से)
पिता, माँ , बहिन, बेटा, बेटी सभी पर कवि की नजर गई है। क्रमशः इन्हीं संदर्भ के अन्तर्गत क्षणिकाएं देखी जा सकती हैं -” पिता ने खूब कमाया/संतान पर/सर्वस्व लुटाया/अंतिम दौर में/वृद्धाश्रम में/ स्थान पाया।”(पृष्ठ सं 32, क्षणिका सं 47 ‘पिता ‘ से)
अपना प्रांत छोड़कर विदेश जाने की होड़-सी लगी है इस संदर्भ में एक रचना देखें –
” माता- पिता से/ रूठकर/ बेटे ने/प्रेम विवाह रचाया/गया विदेश/लौटकर घर नहीं आया।”(पृष्ठ सं 99, क्षणिका सं 247, ‘कलयुगी बेटा ‘ शीर्षक से)
माँ,पिता,भाई,बहिन,बेटी के पावन रिश्तों को कवि ने बड़ी ही शिद्दत से संजोया है कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं —
“मां/ भगवान से भी/बड़ी है/संकट की घड़ी में/लगता है/पास खड़ी हैं।”(पृष्ठ सं 26, क्षणिका सं 30, ‘मां बड़ी है ‘ से)
” नारियल से/कठोर पिता/अंदर से/तरल हैं /पुष्टिकर रस से भरे/बड़े सरल है।”(पृष्ठ सं 27, क्षणिका सं 31 ‘पिता ‘से )” सगा भाई/है अपनी/दाईं भुजा /नहीं/उसके समान/कोई दूजा।”(पृष्ठ सं 27, क्षणिका सं 32, ‘भाई ‘ शीर्षक से)
” बहिन/ पवित्र प्यार की/डोरी है/रखती परिवार को/ जोड़ कर/गन्ने की मीठी पोरी है।”(पृष्ठ सं 27, क्षणिका सं 33, ‘बहिन ‘ शीर्षक से)
“बेटी है तो/सृष्टि है/और/जग में/खुशियों की/ वृष्टि है।”(पृष्ठ सं 28, क्षणिका सं 35, ‘सृष्टि ‘ शीर्षक से)
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’जी ने जहाँ पारिवारिक रिश्तों को पूर्ण मनोयोग से प्रस्तुत किया है। वहीं दूसरी तरफ उन्होंने परिवार व समाज के बदलते स्वरूप को भी दिखाने की कोशिश है। आधुनिक परिवेश में वेश भूषा,परिधान,फैशन को भी पर्याप्त अंतर के साथ दिखाया है। यह अंतर संस्कृति, परंपरा और बाजारवाद के मूलभूत ढाँचे के अनुरूप है।
” तन का कपड़ा/छोटा/होता गया/जमाना/आधुनिक/ होता गया।”(पृष्ठ सं 24, क्षणिका सं 22, ‘आधुनिक’ से)
” सभ्यता के/ विकास में/तन के कपड़े/फटे हुए/अंग उनसे/बाहर झांक रहे।”(पृष्ठ सं 53, क्षणिका सं 110, ‘अंग -प्रत्यंग’ शीर्षक से)
” नए फैशन ने/ लोगों को/अधनंग बनाया/ दिल और/ दिमाग से/ तंग बनाया।”(पृष्ठ सं 126, क्षणिका सं 328, ‘अधनंग ‘ शीर्षक से)
विज्ञापन में/सुंदर महिला को/अर्धनग्न हैं दिखाते/महिला सशक्तीकरण की/दिन दहाड़े/धज्जियां उड़ाते।”(पृष्ठ सं 107, क्षणिका सं 272, ‘धज्जियां उड़ाते ‘ शीर्षक से)
” मन की उज्जवलता का नहीं/तन की नग्नता का/करते प्रदर्शन/आज के युग का/बन गया/फैशन।”(पृष्ठ सं 50,, क्षणिका सं 101, ‘फैशन ‘ शीर्षक से)
“आदिम काल में/आदमी/जंगल में रहता था/ अपने तन को/पत्तों से ढककर/रखता था।”(पृष्ठ सं 53, क्षणिका सं 109, ‘आदमी ‘ शीर्षक से)
आधुनिक परिवेश में निरंतर संस्कार व संस्कृति में गिरावट आई है। आदमी नशाखोरी,दूषित खानपान व प्रदूषण की चपेट में है।
” नशाखोरों ने/छोड़ दिए/पकवान/भुजिया संग/करते हैं/मदिरापान।”(पृष्ठ सं 91, क्षणिका सं 225, ‘परिवर्तन’ शीर्षक से)
” जो/खेलता है/जुआ और ताश/उसका/शीघ्र ही/हो जाता है नाश।”(पृष्ठ सं 74, क्षणिका सं 172, ‘नाश ‘ शीर्षक से)
” जो करता है/दिन-रात/नशा/उसकी/हो जाती/दयनीय दशा।”(पृष्ठ सं 40, क्षणिका सं 72, ‘नशा’ शीर्षक से)
” नशे के/राक्षस से/दूर ही रहना/वरना/ उम्र भर/पड़ेगा दुःख सहना।”(पृष्ठ सं 123, क्षणिका सं 320, ‘दूर रहना ‘ शीर्षक से)
” फुलझंडियां चलाकर/दीपावली की/खुशियाँ मनाओ/बम-पटाखे फोड़कर/प्रदूषण मत फैलाओ।”(पृष्ठ सं 120, क्षणिका सं 311, ‘रोशनी का पर्व’ से)
” स्वच्छ नदी में/पूजन सामग्री डालकर/उसे गंदा किया। दुर्गा पूजा का/समापन/कुछ यूँ किया।”(पृष्ठ सं 120, क्षणिका सं 310, ‘समापन’ से)
डॉ० ज्ञान प्रकाश ‘पीयूष’ ने जीवन के विविध पक्षों मसलन पारिवारिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक पर विधिवत सम्यक विचार किया है। उनके पास अनुभव और ज्ञान का अद्भुत खजाना है। भाषा सहज,सरल और माधुर्य भाव लिए है।कोई पाठक आसानी से हृदयंगम हो उठता है।
सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों को लेकर रचनाकार
स्पष्ट है।कवि मानवता को कायम रखने के पक्षधर हैं।
धर्म और संस्कृति, संस्कार के बिना कोई भी राष्ट्र विकसित नहीं हो सकता है। इसीलिए कवि मानव मन की उलझी गुत्थियों को सुलझाने का पूर्ण प्रयास करता है और मानवीय गुण/दोषों को समग्रता से देखता भी है।
कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना आवश्यक हो जाता है इसके बिना ‘रोशनी के द्वार’ क्षणिका संग्रह का पूरा दर्शन समझा नहीं जा सकता है।
” कुछ क्षण बीते/भोजन के चिंतन में /कुछ बीते अर्जन में/ .कुछ भोग-विलास में/शेष जो बचे/बीते आत्मसंयम में।”(पृष्ठ सं 19, क्षणिका सं 8, ‘आत्मसंयम ‘ शीर्षक से)
” बोध है शाश्वत/सनातन/कालातीत/सार्वभौमिक/अनश्वर/और अमिट।”(पृष्ठ सं 20, क्षणिका सं,10, ‘बोध ‘ शीर्षक से)
सुमरण से/लाभ/अधिक है होता/इहलोक/और परलोक/दोनों सुधरता।”(पृष्ठ सं 25, क्षणिका सं 26 ‘लाभ ‘ शीर्षक से) आगे कवि ने खिड़की के माध्यम से मानव मन के आन्तरिक द्वार को खोलने की बात कही है, देखिए —
” खिड़की/भीतर का/बाहर से/संबंध जोड़ती है/कमरे की/जड़ता को तोड़ती है।”(पृष्ठ सं 25, क्षणिका सं 25 ‘खिड़की ‘ शीर्षक से)
कवि ने ‘सेवा ‘ को सर्वोपरि और आलस्य को जीवन-पथ का बाधक तत्त्व बताया है। नीचे की पंक्तियाँ इसी आलोक में पढ़ी जा सकती हैं –
“आलस्य त्याग/सेवा करने का/लिया संकल्प/विचार कर देखना/सेवा का/नहीं है कोई विकल्प।”(पृष्ठ सं 30, क्षणिका सं 40, ‘संकल्प ‘ से)
” सेवा में/छुपा है/खुशियों का खज़ाना/करके देखो/मिलेगा तुम्हें/ रोजाना।”(पृष्ठ सं 111, क्षणिका सं 284, ‘खज़ाना’ शीर्षक से)
कवि ने दान की महत्ता को प्रतिपादित किया है, दान से बढ़कर मनुष्य का कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता।
“ईश्वर को/पाना है तो/मोह -माया से दूर रहो/धन -दौलत का/गरीबों को/दान करो।”(पृष्ठ सं 31, क्षणिका सं 43, ‘दान करो’ शीर्षक से)
” असहाय की/मदद करने से/होता है/ऊर्जा का विस्फोट/मिट जाते/अपने सारे खोट।”(पृष्ठ सं 47, क्षणिका सं 92 ‘मदद ‘ शीर्षक से)
” जो करता है/हर दिन/परोपकार/उस पर/ बरसता है/प्रभु का प्यार।”(पृष्ठ सं 77, क्षणिका सं 183’ प्रभु का प्यार ‘से)
कवि ने काम, क्रोध,लोभ,मोह की जमकर भर्त्सना की है।
” काम/क्रोध/और लोभ/ये हैं नरक के द्वार/भूलकर भी/मत करना इनसे प्यार।”(पृष्ठ सं 45, क्षणिका सं 85, ‘नरक के द्वार ‘ शीर्षक से)
माया मोह में/ज़िदगी/गुजार दी/मिली थी/ चंद साँस/उधार की।”(पृष्ठ सं 117 क्षणिका सं 302,’ गिनती की साँस ‘ से)
कवि मनुष्य के कुछ दायित्व की बात करता है ।यह भी तभी संभव है जब उसका तन, मन पवित्र हो चुका होगा।
यह तभी संभव होगा जब वह अपने दायित्व को निष्पक्ष और निष्ठापूर्वक करेगा। नियम और संयम को अंगीकार करेगा।देखिए इसी संदर्भ में कुछ क्षणिकाएं –
“अपना दायित्व/निष्ठापूर्वक/निभाना/दुःख चाहे/कितना ही आए/हिम्मत रखना।”(पृष्ठ सं 63, क्षणिका सं 46, ‘हिम्मत रखना ‘ शीर्षक से)
” मन / यदि साफ़ है/तो मानव /भगवान है/नहीं तो/शैतान है।”(पृष्ठ सं 67, क्षणिका सं 151 ‘मानव’ से)
” सत्संग से मिलता/आत्मबल/भरपूर/पड़ती जब स्वाति बूंद/केले पर/बनती कपूर।”(पृष्ठ सं 99, क्षणिका सं 249, ‘स्वाति बूंद ‘ शीर्षक से)
कवि ने मन के साथ ही साथ श्रद्धा और विश्वास पर अत्यधिक बल दिया है विश्वास के बिना आगे बढ़ पाना मुश्किल है। कवि का मानना है कि मन के स्तर पर जब तक श्रद्धा चढ़ती रहेगी, संवेदनाओं का स्तर भी उसी अनुपात में उच्च होता जाएगा। देखिए —
” श्रद्धा का गंगा जल/मन की भूमि पर/जब तक बहेगा/जीवन का आँगन/संवेदनाओं की शुचिता से/सरोबार रहेगा।”(पृष्ठ सं 117, क्षणिका सं 301, ‘आंगन ‘ शीर्षक से)
अंत तक पहुंचते हुए कवि अध्यात्म की शरण में प्रभु की भक्ति और ध्यान की शक्ति की ओर उन्मुख होता हुआ दिखाई देता है कवि कहता है —-
” उतरता है/मन का मैल/प्रभु की भक्ति से/चमकता है/चेहरे पर नूर/ध्यान की शक्ति से।”(पृष्ठ सं 116, क्षणिका सं 299 ‘करने से होता ‘ शीर्षक से)
कवि का मानना है जीवन उत्सव है। जो अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर रहता है और अवसर को किसी भी कीमत पर गँवाता नहीं है वह अपने लक्ष्य तक देर-सबेर पहुँच ही जाता है, देखिए —
“भूलकर भूत को/वर्तमान में/जो है जीता/भविष्य की नहीं करता चिंता/अमृत/वही है पीता।”(पृष्ठ सं 133, क्षणिका सं 349, (‘अमृत वही पीता’ से)
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ समकालीन हिंदी साहित्य के ऐसे कवि व चिंतक के रूप में उपस्थित हैं जो समय और समाज के अंतर्सम्बंध के बनती -बिगड़ती परिस्थितियों को परिवर्तन का हिस्सा मानते हुए, मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए, बिना किसी दुराग्रह/पूर्वाग्रह से आगे बढ़ते हैं। पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में संप्रेषित कर देते हैं।
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ ने नीति-अनीति को ,उसके अभीष्ट सिद्धि की ओर ले जाते हैं। मानव चाहे जिस दशा और दिशा में हो ,उसे संभलने व सोचने का पूरा अवसर प्रदान करते हैं। जो इस क्षणिका संग्रह में औषधि/चिंतन-मनन के रूप में विद्यमान है।
डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ की क्षणिकाएँ मन पर अमिट छाप छोड़ती हैं। मनुष्य होने का बोध कराती हैं, मनुष्य के कर्तव्य बोध को जागृत करती हैं।जैसे कोई सत्संग-प्रवचन का सार अंश हो। भौतिक और आध्यात्मिक पक्ष की उपयोगिता और सार्थकता को रेखांकित करती है।एक सचेत रचनाकार के रूप में डॉ० ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’ की क्षणिकाएँ, अंधेरे से निकाल कर रोशनी के द्वार’ को खोल पाने में पूर्णतया सफल हुई हैं। कृति की सभी 360 क्षणिकाएँ जीवन के हर कोने पर दस्तक देती नज़र आती हैं। इस अनमोल कृति को पाठक वर्ग पढ़कर अपने जीवन में अभीष्ट मंगल को प्राप्त कर सकते हैं। अगले रचना कर्म हेतु ढेर सारी मंगलकामनाएँ।
रचनाकार – डॉ ज्ञानप्रकाश ‘पीयूष’
क्षणिका संग्रह -रोशनी के द्वार
प्रकाशक —साहित्यागार
मूल्य —250
संस्करण -2024
*दिलीप कुमार पाण्डेय,
फगवाड़ा- पंजाब *
मो०-9316260734.