बारिश के रौद्र रूप पर एक गीत प्रस्तुत है
चार दिनों से सूरज बंदी है
बादल के गांव में
सुख-सुपास के दिवस खो गए
छेद हुए हैं छांव में ।
दरक रहे पर्वत- गिरि- पत्थर
ढरक रहे अनहोने से
ऊंचे ऊंचे भवन धराशायी
हैं बिछे बिछौने से
बादल फटे फटी सी आंखें
भूमि रही ना पावों में ।
नदियां पांवों को फैलातीं
बांधों में ना अमा रहीं
जलामयी खलिहान ,खेत, घर
समन मौत का थमा रहीं
चारों ओर समुद्र भरा है
ठांव रही ना ठांव में।
चीख रहीं दौड़तीं हवाएं
कोलाहल कोहराम मचा
घर बाहर क्या किसे संभालें
क्या बांधें क्या शेष बचा
अपने अपनों की चिंताएं
सांस लगी है दांव में । वीरेंद्र निर्झर