November 21, 2024

आज उसे रोटी की सुगंध नहीं आयी और न ही सब्ज़ी बघारते वक़्त जी ललचाया। आज उसे भरपेट खाना मिला था।
बू अच्छी लगती है उसे सिर्फ़ उस एक बदन की, अन्य में उबकाई आती है।
कोरोना होने पर मोंगरे और घास एक जैसे प्रतीत हुए थे उसे।
लहू जब भी जला, किसी का भी, किसी भी स्थिति, बदबुआया ही।
“क्यों न सोंधी मिट्टी की महक ही हो सर्वत्र।तुम्हारी साँसों से होती हुई आये मेरी साँसों तक भी।”
वह उटपटांग सोचता है न शायद।

शुचि ‘भवि’
भिलाई, छत्तीसगढ़

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