कृष्ण चूड़ा का वृक्ष
इंसानों की बात की जाए तो दुनिया में कितने ही ऐसे इंसान होते हैं जो बेहद संवेदनशील होते हैं और उनके आस-पास घटित घटनाओं का भी उन पर बेहद गहरा असर होता है। भले ही उसने खुद वैसा जीवन नहीं जीया हो लेकिन किसी को जीता देखकर भी मन उस पर विचार करने को व्यग्र हो उठता है। और फिर वो इंसान ही क्या जो कुछ देख कर, सुन कर या पढ़ कर कुछ पल उस बारे में न सोच सके।
अभी ऐसा ही मैंने भी महसूस किया जब अपनी प्रिय लेखिका #आशापूर्णा_देवी जी की एक और अद्वितीय औपन्यासिक कृति “कृष्ण चुड़ा का वृक्ष” पढ़ी। इसका हिन्दी अनुवाद इंदिरा चटर्जी ने किया है। पढ़ते हुए इस कहानी के कितने ही भाव ऐसे लगे मानो यही तो चल रहा है हम सबके जीवन में। रिश्तों में भी ऐसे ही तो लोग मिलते आए हैं अब तक। इन्हें पढ़कर ही यह स्पष्ट होता है है कि #ज्ञानपीठ_पुरस्कार का हकदार कोई ऐसे ही नहीं हो जाता। कितनी ही ज़िंदगियों के मर्म को समझना पड़ता है, या यूँ कहें कि बंद कमरे में भी कितने ही तरह के जीवन को जीना पड़ता है।
इस पुस्तक को हाथ में लेकर पहले निहारा और विचार किया तब यही लगा था कि नाम के अनुकूल यह पुस्तक जरूर ही प्रेम कहानी होगी जिसमें कृष्ण चूड़ा के वृक्ष और उसके फूलों की खूबसूरती का बखान किया गया होगा। लेकिन पुस्तक में डूबने पर जो महसूस किया तो मालूम चला कि इंसान के चरित्र की बदसूरती का बखान कितनी सरलता, सहजता और गहराई में डुबकर सच को उजागर किया गया है।
अब कहानी पर थोड़ा प्रकाश डालना उचित होगा।
यह कहानी दो भाईयों की है जिनकी माता बचपन में ही गुज़र जाती है और पिता के सिद्धांतवादी होने के कारण उनके बच्चों को लाड-प्यार के साथ ही उनके जरूरतों की चीज़ों के लिए भी काफी हद तक वंचित ही रहना पड़ जाता है। एक विधवा बुआ है जो मायके में ही रहते हुए घर और बच्चों की जिम्मेदारी तो उठा लेती है लेकिन पिता के लाड-प्यार की कमी को भर नहीं पाती। और इन सबका खामियाजा भुगतना पड़ता है किसे, तो घर के बड़े बेटे सुमन को ही, जो उम्र से पहले ही बड़ा होकर अपनी हर खुशी एवं इच्छाओं को ताक पर रख छोटे भाई की खुशियों का और उसकी फिजूल की जरूरतों को पूरा करने का अपना लक्ष्य बना लेता है। लेकिन जब बिन मांगे मुराद पूरी होने लगे तब इंसान उन मुरादों को महत्वहीन समझता चला जाता है।
इस कहानी में इन्हीं बातों को इतने सामान्य ढंग से प्रस्तुत किया गया है जिसे पढ़ते हुए ऐसा लगा ही नहीं कि कोई कहानी पढ़ी जा रही हो। बल्कि ऐसा महसूस हुआ मानो किसी अपने की आपबीती पढ़ रही। बड़े भाई सुमन की पत्नी सुषमा और छोटे भाई सुजय की पत्नी एला दोनों ही विचार और व्यवहार में एक-दूसरे से बिल्कुल ही भिन्न थीं। लेकिन विवाह के दस बरस बाद भी नि: संतान होने के कारण सुषमा, एला की कितनी ही बातों को दिल से नहीं लगाती। आख़िर एला के कारण ही उस घर में बाल-गोपाल के रूप में नीपू का जन्म जो हुआ था और बुआजी आनन्द में गोते लगाते हुए सुषमा को उसके देखभाल और लालन-पालन का दायित्व सौंप दिया था। क्योंकि एला का बिस्तर से देर से उठना, बिना हाथ-मुंह धोए रसोई को हाथ लगाना और सबसे बड़ी बात उसका मांस-मछली खाना था। उसके हाथों में घर और परिवार की जिम्मेदारी सौंपना एक ऐसे घर को नर्क में धकेलने जैसा था जहां बाल-गोपाल के भोग लगे बिना सुबह नहीं होती थी। वहां मांस-मछली के हाथों रसोई का छूना मतलब सब भ्रष्ट करवा जाना था। कुछ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा फिर एक दिन बुआ जी घर से लेकर मंदिर और रसोई की जिम्मेदारी कसम के साथ सुषमा को सौंप इस दुनिया से विदा हो गईं। समय बीतता गया और एला की मनमानी एवं नख़रों को भी हवा मिलती गई। जब सुषमा ठाकुर जी के भोग के कारण उसे रसोई में बिना नहाए आने पर टोकतीं या फ्रिज में मछली रखने से रोकतीं तब एला अपने पति से प्रत्यक्ष रूप से और जेठ से अप्रत्यक्ष रूप से सुषमा की चुगली कर जाती। अब तक एला दो बच्चों की माँ बन चुकी थी और सुषमा नि:स़तान रह गई थी। इस बात को एला अस्त्र की तरह अक़्सर ही इस्तेमाल कर जाती। और तब जब सुषमा, एला और सुजय के दोनों बच्चों को सुषमा को स्नेह, दुलार करते देखती और बच्चों को भी मां से कहीं ज्यादा ताई का स्पर्श पाकर आनंदित होते देखती तो उसके कलेजे पर सांप लोट जाता। इसी बात की जलन से बच्चों को हरसंभव दूर रखने का प्रयास करती। तभी मौका पाकर चुपके ही खुद उपर के माले पर और सुषमा का नीचे रहने के कारण रसोई भी अलग कर लिया और बच्चों को भी नीचे नहीं उतरने देती। यहां तक कि आए दिन लड़ कर, रूठकर बच्चों को लेकर मायके चली जाती। रसोई अलग तक तो बातें ठीक थी लेकिन रूठकर भागने की बात काम करने वाली सहायिका के माध्यम से पूरे मुहल्ले में फैल जाती है। अब दो भाईयों का एक-दूसरे से नज़रे चुराना एवं एला का यूँ रूठने भागने से तो दोनों भाईयों के मध्य अजनबी से भी बद्तर हो गए थे रिश्ते। अब व्यंग्यबाणों और शब्दों के ऐसे आड़े-तिरछे अस्त्र छोड़े जाने लगे थे कि उसी शहर में नौकरी करने के बावजूद सुमन और सुषमा ने गांव लौटने का फैसला कर लिया। लोगों के साथ-साथ दफ्तर में भी यह बहाना बना गया कि जिस मकान में रहते थे उसका मकान मालिक उसे बेचने वाला था इसीलिए लौटना पड़ा।
भले ही गांव का मकान टूटा-फूटा था और विशेष कोई सुविधा भी नहीं थी, लेकिन शांति तो थी। गांव के उस घर को बरसों बाद भी रहने योग्य बनाए रखने के लिए सुमन के ही रिश्ते के चाचा, जो उससे उम्र में दो-चार साल बड़े होने के कारण आपस में मित्रवत व्यवहार रखते थे, ने अपने उपर ले लिया। इस कारण सुमन और सुषमा दोनों ने ही उन्हें अपने ही घर और रसोई का हिस्सा बने रहने का आग्रह किया। अविवाहित और अकेला रहने के कारण विधु चाचा ने भी यह आग्रह स्वीकार कर लिया लेकिन उनकी गृहस्थी में हर तरह से अपना योगदान देते रहे। और सुषमा भी उनके आतिथ्य स्वीकार करते हुए शुद्ध शाकाहारी भोजन भी दोनों के पसंद का ख़्याल रखते हुए ख़ूब रस लेकर बनाती। बातों-बातों में सुषमा को पुस्तकें पढ़ने के शौक को जानने के बाद विधु चाचा जो कि स्थानीय पुस्तकालय के सदस्य होने के कारण कई तरह की पुस्तकें लाकर पढ़ने को दिया करते जिसे सुषमा पति और चाचा के दफ़्तर जाते ही दिन का काम खत्म करके आनंदपूर्वक पढ़ती। क्योंकि रात में बिजली की सुविधा जो नहीं थी। लेकिन कम सुविधाओं में भी शांति और #सुकून से रहते हुए करीब एक साल बीत गए। तभी एक रोज़ भोजन बनाते हुए सुषमा को अचानक ही रसोई की खिड़की से एक घना-सा वृक्ष दिखा जिस पर मन मोहने वाले फूल खिले थे। पहली बार नज़र जाने के कारण सुषमा उन फूलों को देख मोहित हो गई। आज वैसे भी पति को सोता छोड़ कर रसोई बनाने के काम में लग गई थी।
इधर सुजय की पत्नी भी सुषमा के रहने वाले खाली हिस्से को देख जीजाजी के उसी शहर में हुए तबादले के कारण अपनी जीजी और जीजाजी को ख़ूब आदर और ज़िद से उसी घर में आसरा दे देती है। कुछ ही दिनों के बीतते ही एला अपने माता-पिता को भी वहीं ले आती है और खुल्लम खुल्ला ख़र्चे करते हुए आनंद पूर्वक जीवन बीताने लगती है। इन सबमें कोई मायूस होता है तो वो दोनों बच्चे होते हैं। अब मायके के परिवार के आते ही एला को यह कहते हुए कान भरती हैं कि गांव की सारी जमीन-जायदाद हड़प बैठा है भाई। और फिर ये सब सुनकर सुजय के मन में भी शक़ और लालच का बीज प्रस्फुटित होते देर नहीं लगता। तभी एक दिन अपनी पत्नी से किसी वैवाहिक सामारोह के आमंत्रण का बहाना करके गांव अपने भाई से जमीन-जायदाद का हिसाब मांगने निकल पड़ता है।
सुषमा भोजन बनाते हुए कृष्ण चूड़ा के फूलों को देख अपने पति सुमन को जगाने गई। ज्योंहि हाथ लगाया शरीर और माथा का ताप उसे असहनीय लगा। आश्चर्य यह देख हुआ कि माथे पर चल रहे पसीने के बावजूद भी शरीर तप रहा था। अब यह सब देख सुषमा ने घबराकर विधु चाचा और गांव वालों की मदद से डॉक्टर को घर पर ही बुला लिया। आकर डॉक्टर ने यह देखते ही सन्निपात का विकार बताया कि खून के माथे पर चढ़ जाने से ही शरीर का ताप इतना बढ़ा हुआ था। सुमन ज्वर पीड़ित अपनी इस हालत में भी बड़बड़ाते हुए अपने छोटे भाई से माफी मांगे जा रहा था और उसके फूल जैसे दोनों बच्चों को याद किए जा रहा था। डॉक्टर के परामर्श से शहर से ताप कम करने के लिए बर्फ मंगाया गया। लेकिन कोई असर नहीं हुआ। गांव के लोग सभी एकजुट होकर उसके आंगन में खड़े रहे। सुमन अपने पति को बेचैनी भरी दृष्टि से निहारे जा रही थी। उसके मुंह की बात और साथ में कृष्ण चूड़ा के वृक्ष पर लगे फूल देखने की लालसा मन में ही दबी रह गई थी। इस काली अंधियारी रात में कृष्ण चूड़ा की खूबसूरती कहांँ गुम हो गई थी ये तो न उस अंधियारी रात को ख़बर थी, न सुषमा को और न ही उस दरख़्त से खड़े कृष्ण चूड़ा के वृक्ष को ही जिसकी खूबसूरती का बखान जिससे करने वाली थी वो तो भाई के विछोह में उस ज्वर के बहाने सदा के लिए ही सो गया था।
अब जिस भाई के लिए कलेजा निकाल कर रख दिया हो वही मांस कम मिलने का आरोप लगा दे तो जीवन के आधी उम्र में ही ज़िन्दगी बोझ लगने लगती है और मांस के लोथड़े से भरे अपने शरीर का त्याग कर जाती है।
सुमन के आंख बंद करते ही सुषमा की तो पूरी दुनिया ही उजड़ जाती है। लेकिन नि: संतान होने के कारण गांव-घर के कहने से मुखाग्नि देने के लिए छोटे भाई को बुलावा भेजते हैं। नियति का खेल भी कैसा कि जिस भाई से लड़कर जायदाद का हिसाब मांगने को दरवाजे पर पहुंचा ही था कि ऐसा नजारा देखा। सुजय के देखते ही लोगों के साथ सुषमा को भी क्रियाकर्म करने के लिए सहारा मिला।
इंसानियत तो अपनी बेशर्मी और नंगापन लिए तब खड़ा होता है जब नि: संतान बड़े भाई को मृत्युशय्या पर लेटे देख कर भी दाह-संस्कार करने से इन्कार कर देता है। तो क्या तब भी उसके मन में जमीन-जायदाद का ही हिसाब-किताब चल रहा था? सुजय के इनकार करते हुए सुमन की पत्नी सुषमा मुखाग्नि देने को आगे आती है लेकिन गांव वालों के धिक्कार और मृत भाई के एहसान को याद दिला इस कर्मकांड के लिए आगे आने को कहता है। गांव वालों के धिक्कार ने भले ही छोटे भाई से कर्मकांड करवा दिया हो लेकिन मन को मौत का मातम नहीं मनाने दिया।
इंसान कभी-कभी इतना नृशंस उत्पीड़क एवं अनाचारी होता है कि निर्बल, क्षीणकाय एवं रूग्ण काया से भी रक्त चूस कर अपनी प्यास बुझाते हुए क्षुधा को शांत करने की आस लगाए रहता है। लेकिन फिर भी खस्सी की जान जाए और खवैया (खाने वाले) को स्वाद ही न लगे।
महज़ अठ्ठासी पृष्ठों के इस उपन्यास ने जीवन की उस सच्चाई से पुनर्मिलन करवाया जिससे किसी तरह खुद को निकाल पाने में सक्षम हुई थी। यह सिर्फ़ एक उपन्यास नहीं बल्कि जीवन की वो सच्चाई है जिसे कितने ही परिवार के बड़े बेटों ने झेलते हुए जीया होगा।
सत्कर्म का फल मधुर ही हो ये कतई जरूरी नहीं। बहुधा कुछ अपने ही मधुर फल के बदले विषपान करा जाते हैं।
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आकांक्षा प्रिया