“बहुरंगी काव्य के सुकवि सुशील यदु”
सुरता सुशील यदु :
छत्तीसगढ़ की उर्वरा माटी ने अनेक काव्य-रत्नों को जन्म दिया है। अस्सी के दशक में छत्तीसगढ़ी साहित्य के गगन पर नक्षत्र की तरह दैदीप्यमान सुकवि सुशील यदु ने न केवल अपनी साहित्य-साधना से अपनी विशिष्ट पहचान बनायी अपितु उन्होंने प्रान्तीय छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति की स्थापना करके समूचे छत्तीसगढ़ के साहित्यकारों को एक मंच पर लाने का सफल कार्य किया।
वैसे तो छत्तीसगढ़ में साहित्यिक समितियों की कमी नहीं है किन्तु प्रांतीय स्तर पर सबको एक सूत्र में पिरोने वाली इकलौती संस्था का नाम है “प्रान्तीय छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति” जिसने अपने प्रांतीय सम्मेलन में हर उम्र के साहित्यकारों को सम्मानित करने के साथ ही अनेक रचनाकारों के काव्य संग्रह के प्रकाशन का भी सराहनीय और अनुकरणीय कार्य किया है। इस मायने में सुशील यदु जी अन्य साहित्यकारों की तुलना में अगल से ही पहचाने जाते हैं।
सुशील यदु जी जहाँ हरि ठाकुर, बद्रीविशाल परमानंद जैसे साहित्यकारों को अपना प्रेरणा-स्रोत बताते हैं वहीं लक्ष्मण मस्तुरिया, विनय पाठक, सुरजीत नवदीप, त्रिभुवन पाण्डे, सुरेंद्र दुबे आदि से मिले प्रोत्साहन का उल्लेख खुले मन से करते हैं। आप सोच रहे होने कि दिवंगत कवि के लिए “वर्तमान काल” की क्रिया का प्रयोग क्यों कर रहा हूँ? इसका सीधा सा उत्तर है कि कवि कभी दिवंगत नहीं होते। वे अपनी रचनाओं में हर युग और हर काल में एक विचार बनकर जीवित रहते हैं। सुशील यदु जैसे कवि अपनी कालजयी रचनाओं के साथ स्वयं को भी कालजयी कर लेते हैं।
सुशील यदु जी जहाँ कविसम्मेलन के मंचों पर “होतेंव कहूँ कुकुर”, “घोलघोला बिना मंगलू नइ नाचय”, “अल्ला अल्ला, हरे हरे”, “बेंदरा के हाथ तलवार”, “कचरा ला बहार के फेंक ना” जैसी हास्य प्रधान कविताएँ सुनाकर श्रोताओं को हँसा-हँसा कर लोटपोट कर देते थे वहीं छत्तीसगढ़ के शोषण की पीड़ा से मर्माहत होकर अपने आँसू चुपचाप पी लिया करते थे।
छत्तीसगढ़ किसानों का प्रदेश है जिनका प्राण-तत्व है बारिश। किसानों को सबसे ज्यादा प्रतीक्षा रहती है आषाढ़ के महीने की। सुकवि सुशील यदु भी आषाढ़ के आने पर उसके प्राकृतिक सौंदर्य में डूब जाते हैं –
असाढ़ महीना आये, बादर करिया छाये
विकराल बिजुरी कड़कड़ाय
हवा अउ गरेर संग पानी जब रठ मारे
धरती के जिवरा जुड़ाय
नवा हे बहुरिया के परिछन करे सेती
डबरा ले मेंचका टर्राय
झेंगुर मल्हार गाये, घुटुप अँधियारी छाये
चउमास रथ मा चले आय
(आसाढ़)
उनकी लेखनी बादल की गड़गड़ाहट में नये छन्द और बन्द की सरगम सुन लेती है –
नवा छन्द अउ नवा बन्द ला गाइस बादर
सुख के पाती हरियर थाती लाइस बादर
(उमड़ घुमड़ के आइस बादर)
प्रकृति चित्रण के चितेरे कवि की कलम ऋतुराज के आने पर कोयल की तरह कूकती हुई वसंत के स्वागत में कह उठती है –
अहा बसंत, ओहो बसंत
कुंहुक कुंहुकावत, आनंद बगरावत,
बसंती संग मा आवत बसंत
(अहा बसंत)
फागुन महीने में होली की उमंग में झूमते हुए शब्दों के रंगीन चित्र उकेर देते हैं –
छलके रंग चोरो-बोरो
लइकन खुसी होके मगन ठमके-ठमके
एसो होरी तिहार माते झमाझम
रंगझांझर हो झमके-झमके।
(होरी)
ग्राम्य दृश्यों में सांध्य का सौंदर्य उनकी कविता में कितना जीवन्त हो उठा है –
गरू-गाय लहुटन लागे, मछरी मन फुदकन लागे
कुंदरा ले उड़े धुंगिया, चूल्हा में आगी जागे
लाई कस छरिया के, चंदैनी टिमटिमाये
रतिहा हा सरग ले अंकवारत हे संझौती
(संझा सुंदरी)
प्रकृति-प्रेम में मगन हृदय कब तरुण हो जाता है और कब स्वाभाविक रूप से प्रेम-पाश में बँधकर बगिया में सजनी को आमंत्रण दे डालता है, कुछ पता ही नहीं चलता –
फूल हाँसन लागे ये दारि, बगिया झुमरगे
बगिया मा जब चले आये सजनी मोर,
मन के मिलौनी मोर, हरियर आमा रे घन मऊरे
(हरियर आमा घन मऊरे)
प्रेम में डूबा मन एकाकीपन चाहता है। भूख-प्यास की सुध नहीं रहती। बस प्रियतम की मोहक छवि कण-कण में दिखाई देने लगती है –
संगी जँहुरिया सुहावै नहीं
हाथ के कँवरा खवावै नहीं
देखत रहितेंव तोर हिरनी कस नैना
मन बैरी हा अघावय नहीं
(झूल झूल के रेंगना)
प्रेमातिरेक का एक सुंदर उदाहरण और देखिए –
मन मतौनी मातगे तोर मीठबोलना बोली
करमा संग माते माँदर मधुरस रस घोली
रंगमतिहा संग लागे हे पियार,
अब तो जिवरा नइ बाँचे राम
(नैना के लागे कटार)
प्रेम डगर पर चलना अत्यंत ही दुष्कर कार्य होता है। मिलन की खुशी के साथ ही अनायास बिछोह का अनजाना भय भी हृदय में समाया रहता है –
प्रेम डगरिया बहुत कठिन हे, संगी संग निभाना
एक मया बिसवास जीतके, दूर चले झन जाना
(सुरता समागे)
प्रेम के वासंती मौसम में अचानक बिछोह का पतझर भी आ जाता है, सारे रंगीन सपने अचानक शीशमहल की तरह टूट जाते हैं तब जीवन के हर आयाम व्यर्थ लगने लगते हैं। बिछोह का ऐसा ही मार्मिक दृश्य सुशील यदु जी के इस गीत में परिलक्षित हो रहा है –
बिरथा लागे राग रंग हा, संगी सहेली साथी संग हा
झरगे पाना सुक्खा रूखवा, नइये चिटको उमंग हा
बनगे जिनगी पतझरिया, अब के बसंत बहुर नहीं आय
टुटगे सपना सुंदरिया, रहि रहि दरपन जिवरा डराय
(सपना सुंदरिया)
कच्ची उमर में प्रेम जागना, सपनों का बुनना फिर सपनों का टूट जाना उम्र जनित स्वाभाविक प्रक्रिया है। कुछ समय तक विरह की पीड़ा में तड़फ लेने के बाद उम्र परिपक्व होकर यथार्थ के धरातल पर आ जाती है तब जीवन का सही अर्थ ज्ञात होता है। स्वप्नाकाश से मोह भंग होने के बाद मन का पंछी फिर से माटी से जुड़ जाता है। इस प्रकार यथार्थ के धरातल पर उपजे गीत, वास्तव में जीवन के गीत होते हैं –
तुमन रेंगत रइहव मोर किसान डहरे डहर मा
अमरित घोरत रइहव मोर किसान जहरे जहर मा
(मोर किसान)
किसान के जीवन का एक और यथार्थ चित्रित करते हुए सुकवि सुशील यदु कहते हैं –
करजा के फाँसी हे अउ करम में काँटा
भाग में आवत हे अँधियारी बाँटा
जाँगर के नांगर ला परिया में जोतेन
जिनगी भर खायेन हम घाटा अउ घाटा
(गाँव भर खोखी)
कर्ज और हानि की निजी समस्याओं के जूझता हुआ एक छत्तीसगढ़िया जब अपने छत्तीसगढ़ का सूक्ष्म अवलोकन करता है तो पाता है कि केवल वही नहीं बल्कि पूरा छत्तीसगढ़ ही शोषकों द्वारा शोषित है। कोई गरीबी भोग रहा है तो कोई पलायन करने को मजबूर है। वह आजादी प्राप्ति के बाद भी छत्तीसगढ़ को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ पाता है। इसी सच्चाई को शब्दांकित करते हुए सुशील यदु जी लिखते हैं –
कहाँ उड़ागे सोन चिरैया, कहाँ गे धान कटोरा हे
गाँव ले अब पलायन होवै, छुटगे धरती के कोरा हे
सरे आम हमरे इज्जत के, होवत हवै नीलामी हे
छत्तीसगढ़ हा भोगत हावै, अइसन घोर गुलामी हे।
(धान कटोरा रीता होगे)
तरुणाई में होली पर्व का आनंदोत्सव मना चुके कवि को यथार्थ के धरातल पर अब अंतस में दहकती हुई होली नजर आने लगती है –
गरीबहा के अंतस बरत हवै होली
आतंकवादी मन हा उगलत हें गोली
आँखी में आँसू हे जुच्छा हे ओली
कफन संग निकलत हे दुलहिन के डोली
(महंगाई अउ होली)
इसी तरह तरुणाई में दीपोत्सव की खुशियाँ मनाने वाले कवि को दीवाली का पर्व बेहाल दिखाई देने लगता है –
बादर घलो दगा देइस अब, आँखी होगे सुन्ना
लइका मन करहीं करलाई, हो जाही दुख दुन्ना
भंड़वा बरतन पुजवन चढ़हीं, बिना मौत के काल देवारी
आँसू भरके दिया बारबोन, लागथे एसो साल देवारी
(बेहाल देवारी)
तमाम विसंगतियों के बावजूद कवि हार नहीं मानता और मन-दीपक को जला कर चारों ओर अँजोर फैलाने का उपक्रम करते रहता है –
मोर दियना के बाती बरत रहिबे ना
चारो खूँट अँजोरी करत रहिबे ना
(दियना के अँजोर)
विपत्तियों को जीवन का अनिवार्य अंग मानते हुए वह मेहनत का करमा गाकर संघर्ष की प्रेरणा देता है –
बिपदा के परबत काटत रहिबे
महुरा ला पीके अमरित बाँटत रहिबे
(महिनत के करमा)
जीवन के झंझावात से जूझने के बाद कवि, जीवन की परिभाषा कुछ इस तरह से देता है –
जिनगी नोहे फूल के दसना, जिनगी नोहे रस के रसना
जिनगी आय करम के खेती, जिनगी आय बिपत में हँसना
(जिनगी आय येखरे नाव)
जिस दौर में साहित्य का “स” भी नहीं जानने वाले, अपने आपको येन केन प्रकारेण विद्वान साहित्यकार के रूप में स्थापित करने के लिए तमाम हथकंडे अपना रहे थे, आत्म-प्रशंसा की मदिरा पीकर चूर हो रहे थे, स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ साबित करने में लगे थे उस दौर में सुशील यदु जी ने निष्काम भावना से साहित्य साधना में रत रहते हुए सीमित संसाधनों के बावजूद अनेक प्रतिभावान नवोदित साहित्यकारों को स्थापित कर दिया। गुदड़ी के लालों को खोज-खोज कर सम्मानित कर दिया। यहाँ तक कि कुछ प्रतिष्ठित साहित्यकारों की पुस्तकें भी प्रकाशित करवा दी। उनका जीवन-दर्शन उनकी ही कविता में स्पष्टतः महसूस किया जा सकता है –
हमन नाचा के जोक्कड़ अन, करथन गम्मत भारी
कोनो सच के रस्ता रेंगय, कोनो चलै लबारी
कोनो सुख के झूलना झूलै, कोनो दुख ला झेला
चारेच दिन के जिनगी दुनिया, चारेच दिन के मेला
(दुनिया खूब तमासा)
छत्तीसगढ़ के कालजयी सुकवि सुशील यदु जी को कोटिशः नमन।
आलेख – अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़