गीतिका
पूस मास में धरा ठिठुरती, दिखा कुहासा गहरा ।
धूप नहीं है कहीं दूर तक, लगा सूर्य पर पहरा।
खगदल खोज रहे सूरज को,वृक्ष लता मुरझाए।
ओढ़ उदासी दिखी कमलिनी ,किस पथ पर रवि ठहरा।
दिन छोटे हैं रातें लंबी, ठंडी खूब हवायें।
सुनें नहीं आवाज धरा की, दिशा-दिशा है बहरा।
शीत लजाती बैठ गई है, नभ पर बौने बादल।
छत पर बैठा काग सोचता,रश्मि रथी है दुहरा।
साँझ रात का भेद न समझे,छाया है अँधियारा ।
कृषक खेत में थर- थर काँपे ,पवन झूमता लहरा।
तुहिन कणों से आच्छादित है,आज धरा सुकुमारी।
मृग शावक गज ढूँढे दिनकर, जंगल- जंगल सहरा।
नवनीत कमल
जगदलपुर छत्तीसगढ़