मेरा दुलारा बस्तर ( कहानी – अंतिम क़िश्त )

अब तक –कांकेर के आदिवासी समूह ने ब्रितानी फौज़ के 50 लोगों को शहीद कर बाक़ी लोगों को धमतरी और दुर्ग की ओर वापस भागने हेतु मजबूर कर दिया।
इससे आगे—–डेविड अपनी इस हार से बौखला गया। उसने दिल्ली कलकत्ता में बैठे अपने हुक्मरानों से चर्चा कर 1महीने बाद फिर हमले की तैयारी प्रारंभ कर दी । इस बार के संग्राम में 1000 सैनिकों के साथ दिल्ली से कुछ नामी गिरामी योद्धा भी डेविड का साथ देने आ रहे थे।
ठीक 30 दिनों बाद डेविड की फौज़ ने फिर कांकेर पर आक्रमण कर दिया । यह युद्ध 5 दिनों तक चला और आदिवासी समूह को हार का सामना करना पड़ा। फिर आदिवासी समूह पीछे हटते हुए कांकेर के पास स्थित जंगल में छिप गये और उनके विरोध के स्वर शांत हो गये।। उन्हें यह समझ आ चुका था कि आधुनिक हथियारों से लैस ब्रितानी फ़ौज़ से लड़ना आत्म हत्या के समान है। उनसे लड़ना हैं तो कहीं से आधुनिक हथियारों को प्राप्त करना होगा और उन हथियारों के सही उपयोग का प्रशिक्षण भी लेना होगा। इस मुकाम को हासिल करने में कम से कम 2/3 वर्ष लग ही जायेंगे।
इसके बाद ब्रितानी सैनिक कांकेर में अपना राज स्थापित कर आगे की रणनीति बनाने में मशगूल हो गये। लेकिन इस युद्ध में एक अकल्पनीय बात हुई सेमुवल डेविड आदिवासी समूह के गिरफ़्त में आ गये। जिसे वे बंधक बनाकर अपने साथ जंगल ले गये। ब्रितानी फौज़ ने सेमुवल डेविड को ढूंढने का बहुत प्रयास किया मगर विशाल घने जंगल ने उन्हें असफल होने पर मजबूर कर दिया। धीरे धीरे ब्रितानी हुकूमत भी डेविड के बारे में सोचना छोड़ कर बस्तर के संसाधनों को लूटने की राह पे अग्रसर होने लघे।
अब ब्रितानी राज सारे बस्तर में हो चुका था । ब्रितानी सरकार बस्तर के कीमती मालो- असबाब का बेहिसाब दोहन करते हुए अपने देश को समृद्ध बनाने मे लगे रहे। आदिवासी समूह घने बीहड़ में शरण लेकर ब्रितानी लोगों की पकड़ से परे थे। समय बीतता गया 15 अगस्त 1947 को भारत देश आज़ाद हो गया और ब्रिटेन के लोग धीरे धीरे वापस अपने देश को प्रस्थान करने लगे।
कुछ वर्षों बाद कांकेर में पुराने आदिवासी समूह का फिर पदार्पण हो गया था । हालांकि अब वहां भारत सरकार का शासन था पर बहुत सी बातों में वहां वर्चस्व उसी ( कोर्राम) आदिवासी समूह का ही था। एक और विशेष बात अब सेमुवल डेविड आदिवासी समूह का ही हिस्सा बन चुके थे। डेविड को आदिवासी लोगों की जीवन शैली बेहद रास आ चुकी थी। अब वे तमाम उम्र उनके साथ ही रह कर बिताना चाहते थे । सैमुवल डेविड जी को अब युद्ध के नाम से ही घृणा हो गई थी और उन्होंनें एक आदिवासी बाला से विवाह कर अपना घर बार बसा लिया था । वे पूरी तरह से बस्तरिया ज़िन्दगी जीते हुए अपने आप को सौभाग्यशाली मानने लगे। वे अक्सर ये कहते थे कि जो ख़ुशी और शांति मुझे बस्तर में आदिवासी भाइयों के सान्निध्य में प्राप्त हुई है वैसी ख़ुशी और शांति मुझे अपने चमक दमक भरी शहरी जीवन व सैन्य जीवन में कभी भी हासिल नहीँ हुई थी। अब मैं कभी भी न सैनिक बनना चाहूँगा न ही सरकारी अधिकारी बनना चाहूँगा न ही बस्तर की ज़िन्दगी को त्याग कर इंगलैंड जाना चाहूँगा। अब बस्तर और बस्तर की अवाम ही मेरी दुनिया है। बस्तर के अलावा कहीं और मैं अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। बस्तर की सेवा करते हुए ही मुझे अपने प्राण त्यागने में आनंद का एहसास होगा।
जय बस्तर, जय दंतेशवरी माता, जय भारत, जय बस्तरिया संस्कृति।
( समाप्त )