November 16, 2024

दृश्य बदल जाता है

0


मैं चारों तरफ फैले
परमात्मा के
नैसर्गिक सौंदर्य में
बंधकर रह गई हूं

देखती हूँ
मूसलाधार बारिश में
झूम झूम कर नहाते पेड़
दूर नदी की धार में
एक कटा पेड़ बहते
गुड़हल पर मौसम का
पहला फूल खिलते
बया के घोसले से
कोयल को अंडे चुराते

सहसा दृश्य बदल जाता है

देखती हूँ
उस नदी का सूखना
किनारों की रेत हवा में
बवंडर बन फैलती है
हर दिशा में
हर दिशा से सवाल आता है
क्या परमात्मा की जरूरत नहीं क्या उसे भी निसर्ग से उठा
आभासी चौखटे में पूजेगा मनुष्य आभासी फूल ,प्रसाद चढ़ा

क्या करेगा
जब चैत्र वैशाख की
लू भरी तपती दोपहरी में चलते-चलते थक जाएंगे पैर
फिर भी नहीं मिलेगी
एक पत्ते तक की छांव

विकास के इस दौर में आखिर नैसर्गिक जरूरतों के लिए
कहां भटकेगा वह

इस सदी की तमाम कोशिशें नाकाम हैं
अब तो साँस भी
बोतलबंद है
जिसे कोशिशों के बाद भी
न पाने की तड़प में
तड़प रहा है मनुष्य

आहत हूँ मैं
ढूंढ रही हूं प्रेम की उस बूंद को
जो परमात्मा में बसती है

संतोष श्रीवास्तव

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *