November 15, 2024

गोपालदेव का पुजारीपाली में प्राप्त शिलालेख संवत 919 [1167-68 ई.]

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   रतनपुर के कलचुरियों के उत्कर्ष के समय भी छत्तीसगढ़ क्षेत्र में उनके प्रतिस्पर्धी, सहयोगी अथवा अधीनस्थ शासक अथवा सामन्त हुए हैं, जिन्होंने आने शासनाधीन क्षेत्र में उत्कृष्ट निर्माण कार्य कराये हैं, तथा विभिन्न श्रोतों से जिनकी समृद्धि का पता चलता है।रायगढ़ जिले से लगभग 35 किलोमीटर पर सरिया के निकट पुजारीपाली नामक ग्राम है। यह महाप्रभु का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के सामने एक शिलालेख प्राप्त हुआ था, जो वर्तमान में रायपुर के पुरातत्व संग्रहालय में अवस्थित है। इस तिथि विहीन अभिलेख से गोपालदेव नामक सामंत के बारे में जानकारी मिलती है। अभिलेख में 25 पंक्तियों में 45 श्लोक हैं। शिलालेख एक काले पत्थर की पट्टी पर उत्कीर्ण है जो 2' 4.5" लंबा तथा 1' 6" चौड़ा है। अभिलेख की भाषा संस्कृत तथा लिपि तत्कालीन देवनागरी है।

    इस अभिलेख के बारे में प्रारम्भिक जानकारी डॉ भंडारकर (1903), कजेन्स(1904) से मिलती है। बाद में रायबहादुर हीरालाल ने (1916) 'इंस्क्रिप्सन इन सी पी एंड बरार' में इसकी संक्षिप्त जानकारी दी। इस अभिलेख का युक्तियुक्त सम्पादन और पाठ वी. वी. मिराशी ने 'कार्पस इंस्क्रिप्सन इंडिकेर' वॉल04, पार्ट 02 (1955) में प्रस्तुत किया। मिराशी के बाद बालचन्द जैन ने 'उत्कीर्ण लेख' (1961) में अभिलेख का पाठ अनुवाद प्रकाशित किया।

अभिलेख का पाठ [उत्कीर्ण लेख, बालचन्द जैन से]

(1) ………ता ब्रह्म [ वि] ष्ण [ महेश्वराः] …………म्मुखा वारा [ ही]

(2) ….सा स्वयं ॥ २॥ शंखचक्रधरा देवी वैष्णवी गरुडासना गोपालेन महाभक्त्या
पुष्पैर्दूपैश्च पूजिता॥३॥भुजङ्गवलया देवी महावृषभ [ वाहना] | .

(3). ……॥४॥नाम्ना त्रयीयं साधीरा यत्प्रभावोरणाङ्गणे। नन्वेतस्या: सुगंभीरचित्त
गोपाल ते नुतं॥५॥आद्यन्तदीपोयं द्वितीयश्लोकश्च ॥०॥षण्मुखा शक्तिहस्ता………

(4) [गोपालेन | स्तुता नित्यं सर्वपापप्रना (णा) स (श) नी॥६॥ वाराही घोरसंरावा दंष्ट्रोद्धृतवसुन्धरा । स्तुता गोपालवीरेण भक्तिभावेन सर्व्वदा ॥७|| नारसिंही
सटाक्षेपपातितोडगणाभुवि। चिन्ति-~–

(5) गोपालेन बलाधिका॥८॥ऐन्द्री गजवरारुढ़ा वज्रहस्ता महाबला। सहस्त्रलोचना देवी गोपालेन सुपूजिता॥९॥ नीलोत्पलदलश्यामा चामुंडा प्रेतवाहना। गोपालेन
रणेरीणांभयदाभ मिला

(6)-~~ ॥१०॥ इन्द्रगोपकवण्र्णाभा त्वरिता विधुदुज्वला (जवला)। मता सिन्दूरवर्णाभा गोपालेनाभिवन्दिता॥११॥ त्रिकला त्रिपुरा देवी निष्कलासुकला पुरा। त्रिकोणमंडला नित्यं गोपालहृदये स्थिता॥१२॥ शत्रुप [क्ष * ))

(7) [क्षय] करी [स] मयामलविग्रहा। मारीचा त्रिमुखी भीमा गोपालहृदये स्थिता ॥१२॥ जया रिपुप्रमथनी विजया जयवर्द्धनी। पथि क्षेमंकरी देवीगोपालेनार्चिता सदा॥१३॥ सा वरा [स]-

(8)सनामध्ये तु तारा भीममहार्ण वे। गोपालस्य प्रसन्नास्तु स्ता (ता) रणे [नैव चारुणा॥१४॥…………… पर्वते विन्ध्यवासिनीं। महाकाली महामाया गोपालेन प्रपूजिता ॥ १५॥ तोतला वि | प्र *]-

(9) दोषेषु त्रैलोक्या विजया रणे । चर्चिका भूतदोषेषु सा गोपालेन | विश्रुता ] ॥१६॥ [देवी च कामाक्षी महालक्ष्मी: ] क्षमा दया। श्रीगोपालेन वीरेण भक्तिभावेन रंजिता ।।१७।। सिद्धिः सरस्व [ ती]

(10) गौरी कीर्तिः प्रज्ञापराजिता। [आराधिता] महाभक्त्या गापालेन दिने दिने [॥१८॥]– सास्य गोपालवीरस्य प्रसन्ना वरदाभवत् ॥ १९॥ उवाच परम [ प्री]-

(11) ता देवी प्रत्यक्षरर्षिणा। भो गोपाल महावीर[सत्पुत्रस्त्वं] न संशयः [ ।। २२॥]~–~~- ~। गोपाल ] ~ भद्रस्त्वं शूद्रकप्रतिमो भुवि॥२१॥ यथा नन्दी महेशस्य

(12). विष्णोश्च गरुडो यथा। तथा गोपाल वाराहदे [वीपुत्रो] न संशयः [ ।। २२।।] ~– [संस्कृते | प्राकृते चैवन गोपालसमः परः।। २३॥ या सिद्धिः सर्वकार्येषु या विद्या

(13). कथ्यते बुधैः। तस्या प्रभावा [ द् गोपालो] [॥२४॥]
~– ~– ~-[I] — ~-~–
~~- सदाभवत् ॥२५॥ चरणांगुष्ठपातेन निहितं महि-

(14). षासुरं। दृष्टव गोपालवीरेण [स्तुता तेनांबिका भवत् [॥२६॥] [1]~-॥२७॥ रक्तबीजो ययाधानि सर्व्वदेवापराजि-

(15) तः। तांस्तुत्वा सर्व्वसंप [त्ति] गोपालस्य [गृहं श्रिता॥२८॥]-~———- ———– तथाभवत् ॥ २९॥ [ नि] शुंभशुंभमथनी महावीर्यपराक्रमा। चं-

(16) डिका चण्डविक्रान्ता गोपालेन | पुनः स्तुता] ॥ ३० ॥ धाम |– ~ ~-~–~~-1 गोपालेन पूजिता ॥ ३१ ।। कंसदैत्यवधार्थाय विष्णुना या स्तुता स्वयं

(17). तां समाराध्य गोपालो वर्णनीय: सतामभूत् ॥ ३२ ॥ पुत्रं प्रति ममत्वं हि -~ []-~ -~- ~- ॥३३॥ कोटिमन्त्रप्रभावेन पुनर्देवी वरं द-

(18) दौ । अतुलं तव गोपाल बलं वीर्य पराक्रमः ॥ ३४ ॥~– —- कोटिलक्षसहस्वशः ॥३५॥ गृध्रगोमायुसंकीर्णा रौद्रां रक्तनदीं तदा।

(19). नाभिमात्रान्तरन्ति स्म राक्षस्यो रक्तमोहिताः ३६॥—~–~~———- रविसारिसम्परिपतद्बाणान्धकारे रणे। श्रीगोपालसमोपर: क्षितित-

(20). ले यद्यद्ध तैविक्रमैरासीद [ स्ति भविष्यति] ~~-दाधारस्तदा कथ्यताम॥ ३७॥श्री केदारे प्रयागे च पुष्करे पुरुषोत्तमे। भीमेश्वरे नर्मदायां श्रीगोपालपुरे तथा ॥३८॥ वाराणस्यां

(21) प्रभासेच गंगासागरसंगमे। वरलीसी [घ] त [ स्था] ने श्रीवैराग्यम [ ठे] तथा॥ ३९ ॥अष्टद्वारे शौरिपुरेपेडराग्राम एव च। कीर्तिर्गोपालवीरस्य शरच्चंद्रसमा भुवि॥४०॥

(22) कंदर्प इव रूपेण गोपालः शौर्यशूद्रकः । स्थाने स्थाने हयारूढो रेवन्तइव दृश्यते। ४१॥ यो मम कुल परवन्से (वंशे) सुमति: संभवति मण्डले लोकः । पालयतु कीर्तिमेतां

(23). चरणगतो वदतिगोपालः॥४२ श्रीवत्सश्चरणाब्जपूजनमतिर्नारायणः सत्कवि:
श्रीरामाभ्युदयाभिधं रसमयं काव्यं स भव्यो व्यधात्। स्मृत्यारूढयदीयवाक्यरचना प्रादुर्भव-

(24) निर्भरप्रेमोल्लासितचित्तवृत्तिरभवद्वाग्देवता वल्लकी॥४३॥ ॥ व (ग) रुडाधिप [1 ] यच्चंद्रिकायां [ 8 ] गोपालेन नमस्कृता ॥ [ ठ] ॥ अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्च जैमिनिर्लोमशादयः। मार्कंडेयोथ दुर्वासा व्यास:का-

(25) लवसा (शा) यतः॥४४॥ अन्ये दैववशा: सर्वे काले क्षणविनासि (शि) नि। इति दृष्टा जना नित्यं परमा [र्थे | नमोस्तु (मनोस्तु) वः ॥४५॥ पंडितदेदूलिखिता धनपतिरु (नो) त्कीर्णा॥

अनुवाद [उत्कीर्ण लेख, बालचन्द जैन से]

ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर ……… वह वाराही ……… स्वयं । २ । गोपाल ने शंख और चक्र धारण करनेवाली (और) गरुड़ पर बैठी वैष्णवी देवी की पूजा बड़ी भक्ति से पुष्प और धूप से की । ३। बड़े बैल पर बैठी (और) सांपों के कंकण पहनने वाली देवी ……….. | ४ | यह वह त्रयी नामक देवी है जिसका प्रभाव युद्ध के मैदान में (देखा जाता) है; हे गम्भीरचित्त वाले गोपाल यह वही है जिसे तू प्रणाम करता है। ५। यह श्लोक और दूसरा श्लोक आदि अन्त दीपक है। छह मुख वाली (और) हाथ में शक्ति धारण करने वाली, सभी पापों का नाश करने वाली……… (देवी की) स्तुति गोपाल नित्य करता है। ६ । घोर स्वर वाली (उस) वाराही की स्तुति गोपालवीर सदा भक्ति भाव से करता है जिसने अपनी दाढ़ से पृथ्वी को उठा लिया था। ७। अपनी अयालों से पृथ्वी पर नक्षत्र फैलाने वाली अत्यन्त बलवती नारसिंही………. गोपाल ने………. ।८ । गोपाल ने (उस) ऐंद्री देवी की पूजा की (जो) हजार आंखों वाली है, ऐरावत हाथी पर बैठी है, महान बलवाली है (और) जिसके हाथ में वज्र है ।९। नीलकमल के समान श्याम (वर्णवाली) चामुण्डा प्रेत पर बैठकर युद्ध में शत्रुओं को भयकारी है;। गोपाल ने……… १० । गोपाल ने त्वरिता (नामक देवी) की अभिवन्दना की जो विद्युत के समान उज्ज्वल तथा इन्द्रगोपऔर सिन्दूर जैसे रंग वाली है। ११ । त्रिपुरा नामक देवी तीनों कलाओं को जानती है, त्रिकोणमण्डल में पहले (उसकी पूजा करने से) गोपाल के हृदय में नित्य स्थापित है। १२ । मारीची नाम की तीन मुखवाली भयंकर देवी गोपाल के हृदय में स्थित है, वह शत्रुओं की सेना को नाश करने
वाली और सफेद वर्ण है, (उसका नाम) समया है। १२। शत्रुओं का नाश करने वाली जया और जय बढ़ाने वाली विजया (दोनों) देवियां मार्ग में कल्याण करने वाली हैं. गोपाल सदा (उनकी) पूजा करता है । १३ । भयंकर समुद्र में बैठने वाली वह तारा गोपाल पर प्रसन्न हो…… | १४ । पर्वत पर रहने वाली विंध्यवासिनी, महाकाली और महामाया (इनकी) पूजा गोपाल ने की। १५ । विप्रों के दोषाचरण करने पर जो तोतला कहलाती है, रण में तीन लोक को जीतती है, प्राणियों के दोषाचरण करने पर
चर्चिका कहलाती है, वह (देवी) गोपाल ने देखी है। १६ । कामाक्षी, महालक्ष्मी, क्षमा, दया, ये देविया गोपालवीर के भक्तिभाव से प्रसन्न हईं। १७ । गोपाल ने प्रतिदिन बड़ी भक्ति के साथ सिद्धि सरस्वती, गौरी, कीर्ति (और प्रजापराजिता) की आराधना की।१८। …….. गोपालवीर से प्रसन्न होकर उसने।वर दिया। १९ । (गोपाल के मन्त्रों के) प्रत्येक अक्षर से परम प्रसन्न होकर देवी बोली, हे गोपाल महावीर, तू सत्पुत्र है इसमें (कोई) संशय नहीं। २०। …… गोपालभद्र, तू पृथ्वी पर शूद्रक के समान है। २१ । जैसे महेश का नन्दी और विष्णु का गरुड़, उसी प्रकार वाराही देवी का पुत्र गोपाल है, इसमें संशय नहीं। २२। ………. संस्कृत और प्राकृत में गोपाल के समान (कोई) दूसरा नहीं है। २३ । जो सभी कार्यों में सिद्धि है (और) विद्वान लोग जिसे विद्या कहते हैं, उसके प्रभाव से गोपाल ……… 1२४1……… सदा हुआ। २५ । यह देख कर कि पैर के अंगूठे से दबाकर महिषासुर को मार डाला, गोपालवीर ने अंबिका की स्तुति की। २६ । (श्लोक २७ नष्ट हो गया है) सभी देवों से अपराजित रक्तबीज (राक्षस) को जिसने मारा उसकी स्तुति करने से गोपाल के घर में सभी संपत्ति आ गई। २८।(श्लोक २९ खंडित है) शुंभ और निशुंभ को मारने वाली चण्डिका की गोपाल ने फिर स्तुति की; वह महान शक्ति वाली है और उसका चरण प्रचण्ड है। ३०। (श्लोक ३१ खंडित है) कंस राक्षस को मारने के लिए स्वयं विष्णु ने जिसकी स्तुति की, उसकी भली-भांति आराधना करके गोपाल सज्जन लोगों द्वारा वर्णन करने योग्य हो गया। ३२ । पुत्र के प्रति ममता……..। ३३ । करोड़ मन्त्रों के प्रभाव से देवी ने फिर वर दिया कि हे गोपाल, तेरा बल, वीर्य (और) पराक्रम अतुल हो। ३४ । करोड़, लाख, हजार……। ३५ । रक्त से मोहित राक्षसी रक्त की भयावनी नदी को जो नाभि तक गहरी है तथा गिद्धों और सियारों से भरी है, तैरती थीं। ३६ । बतलाइये कि पृथ्वी पर गोपाल के समान (और कौन) दूसरा हुआ था, है, या होगा, जिसने अपने अद्भुत विक्रम से (उस) रण में- जिसमें चारों ओर से छटते बाणों से अंधकार छा गया है……… | ३७। श्रीकेदार, प्रयाग, पुष्कर, पुरुषोत्तम, भीमेश्वर, नर्मदा तथा श्रीगोपालपुर । ३८ । वाराणसी, प्रभास, गंगासागर संगम, वरली और श्री वैराग्यमठ । ३९ । अष्टद्वार, शौरिपुर तथा पेडराग्राम (इन स्थानों में) पृथ्वी पर गोपालवीर की कीर्ति शरत्कालीन चन्द्रमा के समान (सुशोभित है)। ४० । गोपाल, रूप में कामदेव, शौर्य में शूद्रक और घोड़े पर बैठकर रेवन्त के समान जगह-जगह देखा जाता है। ४१ । मेरे कुल में या अन्य वंश में जो माण्डलीक हों, वे इस कीर्ति की रक्षा करें, गोपाल ऐसी प्रार्थना करता है। ४२। विष्णु के चरणकमलों की पूजन में जिसकी बुद्धि है, उस नारायण कवि ने सुन्दर (और) रसभरा श्रीरामाभ्युदय नामक काव्य रचा है। उस कवि की वाक्य रचना को स्मरण कर वाग्देवी का चित्त प्रेम से प्रसन्न हो गया (और वह) वीणा बन गई (प्रशस्ति रची) ४३ । गरुड़ाधिप जिनको गोपाल ने चंद्रिका में नमस्कार किया। अगस्त्य, पुलस्त्य, जैमिनि, लोमश इत्यादि और मार्कण्डेय, दुर्वासा, व्यास सभी काल के वश हुए। ४४ । और जो दूसरे हैं वे भी इस काल में भाग्य के वश हैं जो क्षण में नष्ट हो जाता है; ऐसा देखकर,भाइयों आप का मन नित्य परमार्थ में लगा रहे। ४५।। पंडित देदू ने लिखी। धनपति ने उत्कीर्ण की।

निष्कर्ष के कुछ बिंदु

(1) अभिलेख के अधिकांश हिस्से में इस प्रशस्ति के ‘नायक’ गोपाल द्वारा देवी के विभिन्न रूपों की स्तुति है।

(2) उसने केदार, प्रयाग, पुष्कर, पुरुषोत्तम, भीमेश्वर, नर्मदा, गोपालपुर, वाराणसी, प्रभास, गंगा सागर संगम, वरली, वैराग्यमठ, अष्टद्वार, शौरिपुर, पेडराग्राम में निर्माण कार्य करवाये रहें होंगे। पुरुषोत्तम जगन्नाथ है। पुष्कर तीर्थ राजस्थान में है, प्रभास सौराष्ट्र में स्थित प्रभासपट्टन है, भीमेश्वर तीर्थ गोदावरी जिले के द्राक्षाराम नाम से भी प्रसिद्ध है। शौरिपुर उत्तरप्रदेश में है। पेंड्राग्राम सारंगढ़ के निकट स्थित आधुनिक पेंडरी हो सकता है। गोपालपुर पुजारीपाली से 15 किलोमीटर दूर गोपालपुर ग्राम हो सकता है।

(3) अभिलेख में आगे उत्कीर्ण है “मेरे कुल में अथवा अन्य वंश में जो माण्डलिक हो, वे इस कीर्ति की रक्षा करे”। इससे प्रतीत होता है कि वह माण्डलिक शासक है। तत्कालीन समय में कलचुरियों की प्रभुता के कारण वह सम्भवतः उन्ही का माण्डलिक रहा होगा।

(4) एक माण्डलिक शासक द्वारा देश के विभिन्न हिस्सो में निर्माण कार्य कराना आश्चर्य जनक है। सम्भव है अभिलेख में अतिरंजना हो, अथवा कुछ स्थलों पर उसने कुछ दान किया हो।

(5) इस प्रशस्ति की रचना नारायण कवि ने की है, जिसने ‘श्रीरामाभ्युदय’ नामक काव्य की रचना की है।

(6)प्रशस्ति को लेखबद्ध(शिला में) पंडित देदू ने किया तथा धनपति ने उसे उत्कीर्ण किया।

(7) अभिलेख तिथि विहीन है, तथा यह किस अवसर के लिए उत्कीर्ण कराया गया, यह भी ज्ञात नही है।मगर मिराशी लिखते हैं यह जिस मंदिर में लगा रहा होगा उसके निर्माण के उपलक्ष में लिखा गया होगा।

# क्या पुजारीपाली का गोपालदेव भोरमदेव का फणिनागवंशी गोपालदेव है?#

    छत्तीसगढ़ के इतिहास का अध्ययन करने से 11-12वी शताब्दी के लगभग तीन गोपालदेव का पता चलता है-(1)इस अभिलेख में उल्लेखित गोपालदेव(2)भोरमदेव के फणि नागवंश का छठा शासक गोपालदेव(1088-89 में वर्तमान) (3) जाजल्लदेव (द्वितीय) के शिवरीनारायण अभिलेख में उल्लेखित गोपालदेव(1167-68 में वर्तमान)।पुजारीपाली का अभिलेख तिथि विहीन है मगर अभिलेख प्रकृति 11-12वी शताब्दी के लगभग ही प्रतीत होता है।

    डॉ भण्डारकर और राय बहादुर हीरालाल,धानू लाल श्रीवास्तव तथा डॉ विष्णु सिंह ठाकुर भोरमदेव के गोपालदेव तथा पुजारीपाली के गोपालदेव को अभिन्न मानते हैं। जबकि वी.वी. मिराशी, डॉ संतलाल कटारे, बालचंद जैन,और डॉ ऋषि राज पांडेय उन्हें अलग-अलग मानते हैं।

    बिष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार चूंकि पुजारीपाली का गोपालदेव दुर्घर्ष संग्राम में विजित हुआ था, मड़वा महल अभिलेख में भी गोपालदेव को "स्वबाहुदर्पेण जितरीदप् र्प :" कहा गया है, इस तरह गुणों में समानता है।दुसरी बात विष्णु जी ने यह भी बताया है कि भोरमदेव के गोपालदेव ने  अपने पैतृक राज्य के अतिरिक्त रतनपुर के कलचुरी शासकों के पूर्वी मंडल को धारण किया(प्राच्यमंदधौ मंडल मूर्तवराया:) इस तरह वे दोनो को समान होने की सम्भावना व्यक्त करते हैं। लेकिन इस साक्ष्य को पर्याप्त नही माना गया।इधर एस.एस. यादव एवं अतुल प्रधान ने भी इस मत को अस्वीकार किया है।

    पुजारीपाल का गोपाल देव खुद को माण्डलिक कहता है। भोरमदेव के गोपालदेव को भी कलचुरियों का माण्डलिक माना जाता है। एक मंडल शासक का साम्राज्य इतना विस्तृत(भोरमदेव से सारंगढ़) होने की सम्भवना कम है, ऐसे  में तो वे अपने अधिपति कलचुरियों से अधिक शक्तिशाली दिखाई देते हैं।विष्णु सिंह जी ने अपने आलेख में मिराशी द्वारा उल्लेखित सम्वत 919 को उन्ही के द्वारा किसी मूर्ति अभिलेख के माध्यम से 922 पढ़ते हैं। विष्णु सिंह जी ने जिस अभिलेख का चित्र दिया है वह सम्वत 922 ही है मगर यह अमरकंटक मूर्ति अभिलेख का चित्र है। सम्भवतः आलेख के बीच मे इस चित्र के आने से विष्णु जी से चूक हुई है।मिराशी ने जिस शिवरीनारायण अभिलेख का जिक्र किया है वह तो स्पष्टतः सम्वत 919 है।

    गोपालदेव के नाम की पहचान के सम्बन्ध मे एक दूसरा अभिलेख जाजल्लदेव द्वितीय का शिवरीनारायण से कलचुरी सम्वत 919 (1167-68 ई.) का अभिलेख है। यह कलचुरियों से अलग किसी समानांतर शाखा(माण्डलिक) है।इसमे गोपालदेव का नाम राजदेव के चार पुत्रों के नामोल्लेख क्रम में आया है।अभिलेख से मिराशी निष्कर्ष निकालते हैं कि चेदिनरेश जयसिंह के विरुद्ध युद्ध में अपने भाई उल्हणदेव के साथ सहभागी होने और युद्धभूमि में भाई की मृत्यु के उपरांत अपने शौर्य से चेदीश्वर पर विजय प्राप्त की होगी। यह शौर्य उसके पुजारीपाली अभिलेख के प्रशंशा के अनुरूप प्रतीत होता है। और दोनो क्षेत्रों की भौगोलिक निकटता की दृष्टि से भी इन दोनो गोपालदेव की सम्यता की सम्भवना अधिक प्रतीत होता है।

    बहरहाल भविष्य में शोध और नये साक्ष्यों के आलोक में ही इस समस्या का युक्तियुक्त हल मिल सकता है।

संदर्भ
(1) कार्पस इंस्क्रिप्सन इंडिकेर वॉल 04, पार्ट 02 (1955)- वी.वी. मिराशी
(3)इंस्क्रिप्सन इन सी.पी. एंड बरार(1916)- राय बहादुर हीरालाल
(4) चौरा-भोरमदेव मूर्ति लेख एवं पुजारीपाली अभिलेख में उल्लिखित गोपालदेव में अभिन्नता- विष्णुसिंह ठाकुर (कोशल पत्रिका भाग एक)
(5)छत्तीसगढ़ दक्षिण कोसल के कलचुरी -डॉ ऋषिराज पांडेय(2008)
(6)अष्ट-राज्य-अंभोज(1925)- धानू लाल श्रीवास्तव
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अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728320

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