बुजुर्ग पिता
लालित्य ललित
हार जाता है
अपने ही नालायक बच्चों से
बच्चों के लिए
उसका मूल्य तभी तक रहता है
जब तक वह प्रोपर्टी के हकदार नहीं बनते
मालिक बनते ही
बुजुर्ग पिता के जन्मदिन की शुभकामनाएं भी
पिता को नसीब नहीं होती
लगता है
वह भी सरकारी आश्वासन की तरह
उनके खाते में दर्ज होती चली गई
बुजुर्ग पिता खाँस रहे हैं
गांवों में
शहरों में
घरों में
कोनों में
पिता की कहीं सुनवाई नहीं
कभी कभार उनकी मनपसंद सब्जी मिल जाया करती थी
जब उसकी हमराज थी
अब वह ही नहीं रही
कोई उनकी सुनता नहीं
उनके दिमाग़ में भी आने लगे है
ओल्ड एज होम
पर ये विचार धनाढ्य व्यक्तियों को ही आते है
घरों से उपेक्षित अनेक बुजुर्ग अनाथालयों में
रेलवे स्टेशनों और ऐसी ही अनगिनत जगहों पर पसरे है डबडबाई आंखों से
कि क्या देखा था
क्या हो रहा है!
ईश्वर न्याय भी नहीं करता
बुजुर्ग पिता तब भी अपने बच्चों को ही आशीर्वाद देता है
कि मेरी जिंदगी भी बच्चों की उम्र में जुड़ जाएं
बच्चे भी भूल जाते हैं
कि एक न एक दिन बुजुर्ग सभी ने होना है।बुजुर्ग पिता/लालित्य ललित