षष्ठी पूर्ति के अवसर पर – लोक साहित्य परंपरा के समृद्ध लेखक दुर्गा प्रसाद पारकर
डुमन लाल ध्रुव
छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि, लेखक, गीतकार, नाटककार उपन्यासकार, स्तंभकार श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी अपनी पीढ़ी और निषाद समाज के संभवत पहले लेखक हैं जो सचमुच में आम जनता से जुड़े और उनके द्वारा लिखी गई नाटक शिवनाथ, चंदा ,सुकुवा, सोनचिरई विराट फलक पर लोकमंचों एवं लोक प्रस्तुतियों के माध्यम से छत्तीसगढ़ प्रदेश ही नहीं विदर्भ प्रदेशों में भी सीधे जनता से जुड़ीं । उनके जीवन और सृजन में कहीं विरोध नहीं था जो था , जैसा था – उसको उसी रूप में श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने अपने साहित्य में रखा और उसे हजारों – हजार जनता ने आगे बढ़कर स्वीकार किया । जब हम सिर्फ पारकर की साहित्य सृजन की बात करते हैं तो मन में ये सवाल उठता है कि आखिर साहित्य सिरजने के लिए लोक साहित्य की परंपरा को क्यों अपनाया ?
अधिकांशतः यह भी कहा जाता है कि हिन्दी भाषा-भाषी लेखक छत्तीसगढ़ी कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास नहीं पढ़ते। ऐसी स्थिति में श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी सचमुच हमारे सामने एक चुनौती भरे लेखक कवि हैं। जटिल बनाकर प्रस्तुत करने की कला से बड़ी कला है नाटकों में लोक धुनों को पिरोकर गीत संगीत की मधुरिम प्रस्तुति करने में महारत हासिल की है । सहजता में भी जो उर्वरापन या सुघड़ता पारकर जी के साहित्य में मिलता है ।
श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी का जन्म 11 मई 1961 को ग्राम बेलौदी, पोस्ट भेंडसर (नगपुरा) तहसील व जिला दुर्ग के केंवट परिवार में पिता श्री उदय राम पारकर, माता श्रीमती लीला देवी के यहां हुआ। बड़ी कठिनाई के साथ ऐसी परिस्थिति में जबकि जीवन यापन किया जाना ही दुरूह था, उन्होंने किसी तरह अपनी पढ़ाई जारी रखी और पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से एम. कॉम., एम. ए. हिंदी विषय में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। भिलाई इस्पात संयंत्र में नौकरी की।
कहा जाता है कि सहज होना सबसे अधिक कठिन है। सहज के पर्याय प्रकृति के असंख्य उपादानों में तो मिल जाएंगे, लेकिन मनुष्य में उनका मिलना दुर्लभ है । किसी भी जाने – पहचाने व्यक्ति की ओर देखो तो सामने से तो वह बड़ा सहज और सौम्य प्रतीत होता है । श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी अपने समकालीन साहित्यकारों में सहजता के ऐसे दुर्लभ पर्याय हैं, सांस्कृतिक मेधा के मानक और हमारी समृद्धि धरोहर के विरले आख्यान हैं। भक्त केंवटराज के गुणों को अपने व्यक्तित्व में मूर्तिमान करने वाले सहज व्यक्तित्व हैं। श्री पारकर जी लोक जीवन, लोक साहित्य , लोक कला , लोक संस्कृति को अपने जीवन का अंग बनाये इसीलिए वे सहजता की प्रतिमूर्ति के रूप में सदैव दिखाई देते हैं । यह सहजता उनके व्यक्तित्व में निरंतर किए गए संघर्ष के कारण आई । जीवन जीने की अदम्य साहस से दैन्य पराजित हुआ और जिजीविषा को सदैव आलोकमान बनाए रखा।
श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी एक ऐसे कवि, लेखक, उपन्यासकार, नाटककार हैं जो युवा रचनाकारों से एक कदम बढ़कर मिलते हैं और यह भी एक सच्चाई है कि जो रचनाकार युवा पीढ़ी को जितना अधिक अपने साथ लेकर चलता है वह उतना ही प्रासंगिक होता है। दुर्गा प्रसाद पारकर की अपनी एक अलग दुनिया है । नई पीढ़ी से उनका यह जुड़ाव ना केवल रचना धर्मिता में दिखलाई पड़ता है बल्कि व्यवहार में भी वह जाकर युवा रचनाकारों से मिलते-जुलते हैं । और बचपन के दिनों में खो जाते हैं। उनके पास अनुभव का विस्तृत संसार है । छोटी-छोटी घटनाओं को भी संवादों में तराशना पारकर जी के लिए अद्वितीय कार्य है ।
श्री दुर्गा प्रसाद पारकर जी का यह मानना है कि अगर साहित्य को जीवित रखना चाहते हैं तो एक ओर उसे जीवन से जोड़ें, वर्तमान समाज की समस्याओं का समाधान उससे निकालें तथा दूसरी ओर उस साहित्य निहित रस से भी समाज को परिचित कराएं । इसके लिए भले ही दोहरी मेहनत क्यों न करनी पड़े , एक ओर उस रस से स्वयं को भिगो दें और दूसरी ओर आज की भाषा में उसे उतार कर समाज को भी भिगोएं । जो स्वयं नहीं भीगेगा, वह दूसरों को कैसे भिगोएगा ? समाज को भिगोना तभी संभव है जब समाज की भाषा के माध्यम से अपना रस उसके बाद गले के नीचे उतार सके ।
श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने दैनिक भास्कर के संपादक एवं लेखक श्री रमेश नैय्यर जी के आग्रह पर छत्तीसगढ़ी संस्कृति और जीवन शैली पर आधारित लेख के संकलन चिन्हारी पर निरंतर कालम लिखकर छत्तीसगढ़ी लोक भाषा कला संस्कृति को समृद्ध किया । कृति चिन्हारी का प्रकाशन होने से छत्तीसगढ़ी साहित्य में अभिवृद्धि हुई है । हमारा साहित्य पहले से और अधिक पोठ हुआ। लेखक द्वारा चिन्हारी लेखन की अपनी दृष्टि थी। छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध गीतकार ,इतिहासकार स्वर्गीय श्री हरि ठाकुर जी ने लिखा-है छत्तीसगढ़ के ग्रामीण समाज के संरचना में पौनी – पसारी के अब्बड़े महत्व है। पौनी- पसारी में बैगा, नाउ, धोबी, लोहार, राउत, कोतवाल ,रखवार, कुम्हार , मेहर के गणना होथे । पारकर जी हर ग्रामीण समाज के संरचना में इन्खर अधिकार और कर्तव्य के वर्णन विस्तार पूर्वक करे हे। इन्खर बिना स्वावलंबी ग्रामीण व्यवस्था के निर्माण नइ होवय। ये मन ग्रामीण समाज के अनिवार्य अंग बन गे हें । बर – बिहाव में कुम्हार हा करसा अउ चाकर मुंह के दिया लानथे , पोरा तिहार म बइला अउ लईका मन बर खिलौना , देवारी – तिहार में दिया, ग्वालिन, घर छाये बर खपरा बनाथें । कंड़रा हा बांस के केउ ठन जिनिस बनाथे- सुपा, टुकना, टुकनी ,पर्रा ,पर्री आदि। राउत रउताइन,नाउ- नवइन के हर अनुष्ठान में जरूरत पड़थे । कन्या के बिहाव में धोबनिन हर सुहाग देथे । छत्तीसगढ़ में धोबी ल ’’उजीर’’ कहिथें। उज्जर (उज्जवल ) करैया उजीर । नाउ ल मर्दनिया कहिथें ।
भाषा वैज्ञानिक डॉ कांति कुमार लिखे हे- ’’छत्तीसगढ़ के सुआ नृत्य , मड़ई आदि समारोह गुह्य सूत्रों और यज्ञ के इंद्र ध्वजों की वैदिक – परंपरा का रूपांतर हैं।’’ ये तथ्य के पुष्टि मुनि कांति सागर ह घलो करे हे ’’गुह्यसूत्र’’ एवं वेद में प्रतिपादित नृत्यों का प्रचार आज भी किंचित परिवर्तित रूप में छत्तीसगढ़ में है । प्रारंभ से ही इस क्षेत्र में वैदिक साहित्य का प्रचार रहा है।’’
इस तरह छत्तीसगढ़ी भाषा में छत्तीसगढ़ के रीति-रिवाजों, तीज त्योहारों , लोक कला व संस्कृति की प्रमाणिक स्वरूप को छत्तीसगढ़ी साहित्य जगत के सामने रखा। वहीं छत्तीसगढ़ी में परिवारिक पृष्ठभूमि की उपन्यास ’’केंवट कुंदरा’’ , ’’बहू हाथ के पानी’’ विस्तार पूर्वक चित्रण किया गया है । ’’केंवट कुंदरा ’’ लोकजीवन , लोक चेतना , लोक संस्कृति के वाहक के रूप में व्याख्यायित किया गया है। उपन्यास किसी व्यक्ति या स्थितियों के रेखा चित्रों की तरह है – और इन रेखा चित्रों को सजीव बनाने के लिए वह जीवन के छोटे-छोटे ब्योरे देकर उनमें एक नया जीवन रस भर देते हैं। उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु की तरह जीवन की जड़ों से ज्यादा गहरे और मजबूती से जुड़े हुए केवट कुंदरा की तस्वीर को पूरी विश्वसनीयता के साथ उभरते हैं। एक और हमारी छत्तीसगढ़ की विलुप्त हो चली धरोहर के बारे में आश्वस्त करती हैं वहीं दूसरी ओर यह भी प्रमाणित करती है कि सृजन की निरंतरता के लिए केवल समर्पण आवश्यक है । श्री पारकर जी का पूरा जीवन सृजन और समर्पण का पर्याय बन कर रह गया है । उनकी कोई निजी आकांक्षा नहीं है , न ही किसी से कोई अपेक्षा है । यदि स्वयं की कोई अपेक्षा है तो अधिक से अधिक छत्तीसगढ़ी के लिए अपनी लोक परंपरा के लिए और अपने जातीय जीवन- मूल्यों के लिए कुछ कर जाएं। जीवन मूल्यों के प्रतिमान बनकर सदैव के लिए इतिहास में प्रतिष्ठित हो जाएं।
जीवन की सत्ता का कितना सच्चा और कितना जीवंत दस्तावेज हो सकती है, इस सत्य का सूक्ष्म संवेदनात्मक उद्घाटन भी है। जीवन का एक संपूर्ण कालखंड उनकी गहनतम संवेदना की परती भावभूमि पर उनके जीवन में एक बार पुनः घटित होता दिखता है । पात्रों के भीतर जीवन के एक खास समय तक जो कुछ घटित हो चुका है और जो कुछ अब तक घटित रह गया है उसका इतना जीवंत और सशक्त चित्रण हमें औपन्यासिक कृति ’’बहू हाथ के पानी’’ में मिलता है कि शब्दों को पढ़ते हुए एहसास होता है कि हम पढ़ नहीं रहे घटनाओं को घटित होते हुए, जीवंत दृश्यों की तरह देख रहे हैं । पात्रों के अंततः स्वरों को सुन रहे हैं। सारे चरित्र एक धूरी पर घूमते हुए जीवन के एक खास मुकाम पर आकर जैसे ठहर से गए हों, बावजूद इसके वे जितना ठहर से गए हैं उससे कहीं अधिक अपने भीतर की यात्रा पर निकल पड़े जान पड़ते हैं, अपने आत्म की तलाश में अपने जीये क्षणों, न जी सके क्षणों के सुख-दुख , पछतावों, निर्णीत – अनिर्णीत क्षणों के बीच के शाश्वत द्वद और यंत्रणाओं को एक बार फिर से अपने ही भीतर ,अपने से दूर छिटककर देखते हुए। आत्मिक संशयों के बीच विचरता जीवन इसका जीवंत प्रमाण है।
नोनी के का नाव हे ? हंसा कथे – नोनी के नाव हेमलता हे। नाव तो बढ़िया हे। हंसा कथे – मंय तो राशि बरग घलो मिलान कर डरे हंव । गुन घलो बढ़िया मिलत हे । सबो झन सुनता सलाह होके संतू के रिश्ता ला हेमलता संग पक्का कर देतेव । अब तो मनराखन अउ बिसाखा हा छोटे बेटा संतू के ’’बहू हाथ के पानी’’ घलो पिये बर मिलगे कहिके भारी खुश होगे। अब तो घर ह स्वर्ग कस लागे बर धर लिस । हेमलता ह घर के काम बूता ला सम्हाल लिस। काम बूता झरे के बाद खुमान , सरला , दीपक बैसाखिन की कविता के मीटिंग होइस। खुमान कथे दादा हा तोला फैसला सुनाय बर केहे रीहीस । कविता कथे कि ददा हा जउन पहिली दीपक के नाम म पावर ऑफ अटॉर्नी लिखे रिहीस उही ला सुनाबे केहे रिहीसे। बाद के पावर ऑफ अटार्नी हा तो दीपक भईया अउ बैसाखिन भउजी ला रद्दा देखाये बर रिहीसे। एकर बाद दीपक, खुमान, अउ कविता, सरला, अउ बैसाखिन बीते दिन ला बिसार के सुम्मत के नवा जोत जलइन।
उपन्यास बहू हाथ के पानी अपने जीवन के असली नाटकों को जी सके, जो हमारी नियति में लिखे थे। चकाचैंध से भरी पूरी दुनिया को समझने के लिए हमें आगत भविष्य की सचेत करती है।
श्री दुर्गा प्रसाद पारकर छत्तीसगढ़ की लोक सांस्कृतिक संस्था लोक मंजरी से जुड़कर छत्तीसलोक पत्रिका का संपादन करते हुए छत्तीसगढ़ की लोक नाट्य की नई परंपरा की नींव रखी। नाटककार स्वर्गीय प्रेमसाइमन की तरह दुर्गा प्रसाद पारकर ने लोक संस्कृति को बचाए रखने एक सही और संतुलित मोड़ दिया । छत्तीसगढ़ी साहित्य की समानांतर पगडंडियों पर चलते हुए उन्होंने एक ओर अपूर्व त्याग और साहस के साथ वर्ष 2013 में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में एम. ए .छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम चालू कराये। शिक्षा और छत्तीसगढ़ महतारी के प्रति समर्पण की भावना को देखते हुए अंततः एम.ए. छत्तीसगढ़ी प्रवर्तक की सर्टिफिकेट प्रदान कर उनकी भावनाओं का अभिनंदन किया गया । शिवनाथ ,सुकुवा , चंदा,सोनचिरई और छत्तीसगढ़ की कल्याणकारी योजना छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी नरवा ,गरवा ,घुरवा ,बारी अपनी समसामयिक परिस्थितियों से अपने लोकनाटकों की विषय सामग्री का चयन किया गया। चरित्रों और आदर्शों में आधुनिकता की तूलिका से नए रंग भरे। सामयिक लोक जीवन को संस्कारित किया । उनके द्वारा लिखे गए लोकनाट्य छत्तीसगढ़ के सामयिक समस्याओं के मूल उत्स तक पहुंचने और पहुंचाने की ऐतिहासिक दृष्टि है जिससे छत्तीसगढ़ की लोक चेतना के रंग गहराते हैं। शिवनाथ लोक का ही एक अनुभाविक रूप है। छत्तीसगढ़ भू – भाग के लिए पूर्णता की आकांक्षा है। सुकुवा आधुनिक समाज की जीती जागती तस्वीर है। नारी का सम्मान है। वह किसी स्थाई समस्या का प्रावधान नहीं है। लोकनाट्य सुकुवा अपनी अस्मिता के साथ उपस्थित होते हैं-नारी के सम्मान सुकुवा, नारी के स्वाभिमान सुकुवा। भक्ति के स्वरूप सुकुवा ,भक्ति के भाव सुकुवा ,सुम्मत की समता के सुकुवा ,गढ़िस नवा समाज सुकुवा। इन नाटकों की एक खासियत यह भी है कि उनकी कथावस्तु में यथार्थ व नारी सम्मान की आदर्श का समन्वित रुप उपस्थित है। युगानुकूल जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठापना को नाटक का वांछनीय और लोकानुरंजन तथा लोक कल्याण की समन्वयात्मक दृष्टि- नियोजन को उसका आत्यंतिक प्रयोजन मानते हैं।
चंदा में छत्तीसगढ़ की लोक धरातल कहीं भी नहीं छूटता है। तकनीकी दृष्टि से श्री दुर्गा प्रसाद पारकर ने नए-नए प्रयोग किए । महिला उत्थान खातिर छत्तीसगढ़ के जुझारू नेत्री श्रीमती चंदा जी ला मिनीमाता सम्मान से सम्मानित करे गिस । ये सम्मान सिरिफ चंदा के ही नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के जम्मो नारी मन के सम्मान आय । ये सम्मान छत्तीसगढ़िया मन के सम्मान आय, जउन विकास के सोच रखथे, विकास के खातिर मेहनत करथे । चंदा हा एक नारी होके समाज ला नवा दिशा दे बर बड़े-बड़े बुता करीस । सब ला ये संदेश दिस के अगर मन में संकल्प है तो कोनो भी काम ला आसानी से करे जा सकत है। यद्यपि नाटककार के रूप में दुर्गा प्रसाद पारकर जी ने सर्वाधिक ख्याति भी प्राप्त की है।
सोन चिरई नाटक की अपनी दृष्टि व दिशा है । समाज के अभावात्मक स्थितियों को भी उकेरा और उसके विकासात्मक रूप को भी पहचाना।
छत्तीसगढ़ी लोक नाटकों के सृजन की मनोभूमि में नाटककार श्री दुर्गा प्रसाद पारकर सोन चिरई में डॉक्यूमेंट्री फिल्म डोंगरगढ़हीन दाई बमलेश्वरी, नाटक- सुग्घर गांव ,सोनबती, हमला का करना है, मंथरा, लघु फिल्म – सोन चिरई, बुद्धू के हनुमान , पठौनी जैसी रचनाओं में नाटककार यही चाहता है कि वह जो कुछ रचे अधिक संख्या में भी प्रमाण और अधिक ढंग से और अर्थवान हो । वह इन नाटकों को , पात्रों को नया अर्थ दे सके।
इस व्यापक संघर्ष में लेखक दुर्गा प्रसाद पारकर ने जमीन से गहरे जुड़े समस्याओं की खोज की है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण किसानों को जगाने में सुराजी गांव नाटक सबसे प्रबल सिद्ध हुआ है। सुराजी गांव नाटक कृषक हृदय के भावों की अभिव्यक्ति है। रसायनिक विकृतियों से ऊपर उठकर जैविक खेती को आगे बढ़ाने एवं आर्थिक उपार्जन के लिए अनुप्राणित होने का आह्वान किया है। ग्रामीण जीवन को उन्नत बनाने के अनेक संकेतिक उपाय किए हैं और गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की परिकल्पना को अनेक आकांक्षाओं के स्वर को प्रतिध्वनित किया है। जीवन दृष्टि के अनुरूप अपने नाटक स्वच्छंदतावादी नाट्य प्रणाली को आधार बनाकर कल्पना ,भावुकता ,अतीत के प्रति अनुराग तथा शैली शिल्प के स्वच्छंदता को ग्रहण किया है। सुराजी गांव के माध्यम से पूरे छत्तीसगढ़ वासियों के जीवन स्तर में सकारात्मक बदलाव कर नई दृष्टि में सफल हुए हैं ।
दुर्गा प्रसाद पारकर छत्तीसगढ़ी गीत लेखन के साथ लोक पारंपरिक तथ्यों की भी जानकारी रखते हैं। छत्तीसगढ़ की धरती में जन्म लेना और अपने आपको गौरवान्वित , प्रकृति की प्रत्येक कृति को वे ध्यान से देखते हैं, उन्हें इसका पूर्ण ज्ञान है कि कौन फूल कब खिलता है और कितने समय तक अपना सौरभ बिखेरता है । गीत मस्तिस्क से नहीं हृदय से निकलते हैं। उनके गीतों में जिंदगी मुस्काती है और मानव जाति पर अपना स्नेह उड़ेलती है। वस्तुतः गीत छत्तीसगढ़ महतारी के गीत हैं।
बइरी ला नष्ट करे बर हितवा के कष्ट हरे बर
आये सतयुग मा तंय दाई
तंय लिये अवतारे बगलामुखी बमलाई…
’ ’ ’
तोर दरस ला पा के मइया मोर चोला तर जाही ना ।
तोर असीस ला पा के मैया मोर जिनगी संवर जाही ना ।
पैरी छनकावंव पांव मा दाई ,
चूरी खनकावंव हाथ मां दाई,
करधन पहिरावंव तोला दाई…
मोला दरस दिखा दे बमलाई…
मन हा लगे हावे मइया,तोरे जस ला गाये के ।
एके ठन मोर मन हे मइया,तोरे सेवा बजाये के ।।
कवि दुर्गा प्रसाद पारकर ने इन गीतों में माता का जो अभिनंदन किया है वह सहस्त्र कंठों से मुखरित होकर हमें आमंत्रित करता है। सृष्टि के आदिकाल से मनुष्य इस गीत को गाये ऐसी आकांक्षा है ।
दिनांक:- 10.05.2021
डुमन लाल ध्रुव
प्रचार-प्रसार अधिकारी
जिला पंचायत-धमतरी
मो. नं. 9424210208