November 18, 2024

कृष्ण कल्पित एक ग़ज़ल

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पढ़ा जा रहा न लिखा जा रहा है
लिखा था कभी वो मिटा जा रहा है

सुना जा रहा न कहा जा रहा है
बातों का सारा मज़ा जा रहा है

यही हाल है आजकल ज़िंदगी का
कि तिनका हवा में उड़ा जा रहा है

रस्ते से परिचित न मंज़िल से वाकिफ़
न जाने कहाँ क़ाफ़िला जा रहा है

बही जा रही हैं दरिया में लाशें
दरिया है दरिया बहा जा रहा है !

यह_समय १.

कहाँ जा रही है बहर तेरी कल्पित
कहाँ पे तेरा क़ाफ़िया जा रहा है !

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