कृष्ण कल्पित एक ग़ज़ल
पढ़ा जा रहा न लिखा जा रहा है
लिखा था कभी वो मिटा जा रहा है
सुना जा रहा न कहा जा रहा है
बातों का सारा मज़ा जा रहा है
यही हाल है आजकल ज़िंदगी का
कि तिनका हवा में उड़ा जा रहा है
रस्ते से परिचित न मंज़िल से वाकिफ़
न जाने कहाँ क़ाफ़िला जा रहा है
बही जा रही हैं दरिया में लाशें
दरिया है दरिया बहा जा रहा है !
यह_समय १.
कहाँ जा रही है बहर तेरी कल्पित
कहाँ पे तेरा क़ाफ़िया जा रहा है !