November 19, 2024

बस अब मुझे कोलाहल चाहिए,
बहुत हुआ,
बस अब मुझे
बाग में इतराते पंछियों का
कलरव चाहिए।

स्वरों की नदी में बहने का मन है,
मौन झेलता बैरागी तन है,
बस अब मुझे
झरनों के स्वर का हलाहल चाहिए।

समाचारों से ऊब होने लगी,
बागों में बिछी हरियाली दूब
बिन कदमताल नहीं जगी।
सूख ही न जाये कहीं?
माली दादा के पानी के पाइप की
खिलखिलाती बौछार चाहिए।

बस अब मुझे
फिर वही चमन चाहिए,
एक नया रोगमुक्त गगन चाहिए,
एक नया रागों भरा मनन चाहिए,

बस अब मुझे
कोलाहल चाहिए!
©निर्मला सिंह

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