अभिनेत्री दीप्ति नवल की कविताएं – संवेदना के नव धरातल
मैंने देखा है दूर कहीं पर्बतों के पेड़ों पर…
मैंने देखा है दूर कहीं पर्बतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झुंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो
मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
और नीचे घाटी में
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
बाँसुरी का सुर कोई़…
तब
यूँ ही किसी चोटी पर
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!
दीप्ति नवल
“बहुत घुटी-घुटी रहती हो…
“बहुत घुटी-घुटी रहती हो…
बस खुलती नहीं हो तुम!”
खुलने के लिए जानते हो
बहुत से साल पीछे जाना होगा
और फिर वही से चलना होगा
जहाँ से कांधे पे बस्ता उठाकर
स्कूल जाना शुरू किया था
इस ज़ेहन को बदलकर
कोई नया ज़ेहन लगवाना होगा
और इस सबके बाद जिस रोज़
खुलकर
खिलखिलाकर
ठहाका लगाकर
किसी बात पे जब हँसूंगी
तब पहचानोगे क्या?
दीप्ति नवल
लोग एक ही नज़र से देखते हैं…
लोग एक ही नज़र से देखते हैं
औरत और मर्द
के रिश्ते को
क्योंकि उसे नाम दे सकते हैं ना!
नामों से बँधे
बेचारे यह लोग!
—
रेगिस्तान की रात है
और आँधियाँ सी
बनते जाते हैं निशां
मिटते जाते हैं निशां
दो अकेले से क़दम
ना कोई रहनुमां
ना कोई हमसफ़र
रेत के सीने में दफ़्न हैं
ख़्वाबों की नर्म साँसें
यह घुटी-घुटी सी नर्म साँसें ख़्वाबों की
थके-थके दो क़दमों का सहारा लिए
ढूँढ़ती फिरती हैं
सूखे हुए बयाबानों में
शायद कहीं कोई साहिल मिल जाए
रात के आख़री पहर से लिपटे इन ख़्वाबों से
इन भटकते क़दमों से
इन उखड़ती सांसों से
कोई तो कह दो!
भला रेत के सीने में कहीं साहिल होते हैं
दीप्ति नवल