November 21, 2024

नई ज़िदगी का आरम्भ

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– परिचय दास

( प्रिय पत्नी वंदना श्रीवास्तव के लिए , जिन्होंने विरल , साहसपूर्ण एवं अनथक प्रयत्न किए मेरे लिए, हर आयाम से , कोरोना के सर्वाधिक यातनापूर्ण समय में।

यह कविता कोरोना से कठिन मुक्ति एवं 18 मई , 2021 को पटना के एक अस्पताल में लगभग एक महीने भर्ती रहने व डिस्चार्ज के बाद 20 मई, 2021 को पटना के एक गेस्ट हाउस में लिखी गई है । संयोग से 14 मई को ही वैवाहिक वर्ष – गाँठ थी ।

शारीरिक कमज़ोरी के बाद पूर्ण स्वास्थ्य के लिए यत्न जारी। )

एकाएक दोपहर होती है और महसूस करता हूं कि अंधेरा सा- हो गया है
उखड़ गई हैं सांसें
शरीर हो गया है अक्षम जैसा
पाँच दिन पहले ज्वर – बुखार में सनी देह
फिर तो कितने काले घंटे बिताये असहनीय दु:ख
अकल्पित कठिनतम समय की
ये रातें! प्रकाश की देरी में …
सुख – दु:ख जीवन के सहज पर्याय !

काली छाया लेकिन स्पष्ट रेखा
जो कि समतल रेत पर प्रकाश द्वारा चिह्नित है,
या जहां दूर जहाज-रोशनी फीकी चमकती है
जैसे भटकती परियों की आग, वह अक्सर भूमि पर
गुमराह करती है मुझे

विडंबना की अंतहीन पुनरावृत्तियों में
पारदर्शिता से देखते हैं मुझे मेरे अतीत आज से दुस्सह दु:ख को

धूमिल टहनियों के बीच
एक थकी, कमजोर आवाज़ ही सही उठी
उठी और उठी फिर से
अपनी आत्मा को बहने के लिए
बढ़ती निराशा के विरुद्ध
आशा के पगबंध पर …

इतनी सारी सुइयाँ, दवाएँ
घनघोर तमिस्रा में राह तो निकालनी होगी

वंदना, तुमने अपनी परवाह नहीं कीं
खुद खेल गईं , जैसे जान पर अपनी
इस कठिन समय में मेरे लिए

यहाँ पटना में सारे आत्मीय जन दूर होकर भी मन से साथ हैं : सौभाग्य है मेरा
प्रिय साले , सलहज , साढ़ू, सालियाँ , बहनें, पिता, भाई, बेटे, बेटी, बहनोई, बुआ , फूफा,मामा, मामी, मौसी, मौसा , मित्र , विश्वविद्यालय के समस्त आत्मीय- आदरणीय, , साथी अध्यापक , साथी कर्मी , मेरे विद्यार्थी , कवि , चाहने वाले
दूर होकर
कोई दूर नहीं होता अगर दिल से साथ हो ! मेरा यह कृतज्ञ मन इनके लिए !

लोग मानते हैं, तुम हो जो नई क़िस्म की भोजपुरी कला सृजित करती हो नये तरीक़े से देश में
कई क़िस्म के प्रयोग करती हो व्यंजन में
जो सब्ज़ी को भी कविता की नई लय में बदल देती है
जो आम के टिकोरे के शिल्प को दे देती है नई सुगंध
जो देती है जिंदगी को नई सम्भव भाषा
अपने भाई ,पिता ससुर, ननदों ,भाभियों , बहनों , फुफाओं बुआओं , मामाओं, मामियों , मौसा- मौसियों सबको जोड़ देती हो!

भाषा के विविध रूपों,
सम्बंधों के आकारों की संरचना को देती हो नई मार्मिकता

सावित्री और सत्यवान का आज का रूपक

प्रयत्न करती हुई हर सम्भव सकारात्मकता का
अमृत के नये निचोड़ को तुम
पृथिवी पर लाने के लिए अनथक
अपनी जिंदगी खुद खतरे में डाले हुए
डरे बगैर

डॉक्टरों, उनके सहायक- सहायिकाओं के उस लग्न के प्रति भी समादर और सुझावों के साथ जिन्होंने मेरी केयर रखी

ताक़त और उत्साह देते हुए मुझे
जब कि मैं कहाँ हूं , अँधनींद में कमज़ोरी में मुझे खुद पता नहीं

अंधेरा गलत नहीं है
यह जीवन का हिस्सा है
रात में सितारों के लिए एक पृष्ठभूमि, जो आप जानते हैं उसके बीच का स्थान।

अंधेरे को रोशनी से डुबाने की जरूरत नहीं है।
तुम अंधकार को प्रकाश में लाई , भेंट की तरह।
फिर तो प्रकृति भी बनी सहज,
नमनीय पराशक्ति
मेरे लिए प्रार्थना रूप।

इस कठिनता में तुमने अपने पूरे दिल से प्यार किया और भी ज़्यादा
मेरे लिए संसार से मुट्ठी भींच लीं
इस दुस्सह काल में तुमने दुनिया के सारे दर्द सहे – माँ पत्नी प्रेमिका की तरह एक साथ
ताकि मेरी आंखों में एक भी आंसू न आए
वापस लाई जिंदगी के नये आकाश को , नये आकार को, नये रूपक को
यह नया जीवन , मेरी मुस्कान का कारण है
अनंत काल तक
काश मुझे ऐसे शब्द मिल जाते
जो अर्थ स्पष्ट कर देते
इस सघन लगाव का।
पर शायद यह सम्भव नहीं
अर्थात् शब्द ,अर्थ, जीवन की संभाव्य- असंभाव्य रहस्यात्मकताएँ
उनकी संज्ञाओं के सहज अनुवर्तन की अकथ -असम्बोध्य अन्तर्कथाएँ !

तुम और मैं नीले आसमान पर उड़ते हैं
सबसे अंधेरी रातों में भी
हम पूरी तरह से समझते रहेंगे
एक दूसरे के सपनों को
कैसे सच किया है
और यह क्या चमत्कार हो सकता है
तुमने मुझे
कुछ बहुत कठिन अनुभव करने के बीच जीवन को संम्भव बनाने का किया असम्भव यत्न :
बिना शर्त प्यार जो मेरे शरीर, आत्मा और दिमाग में मौजूद
है
तुमने
जीने की मेरी इच्छा को भविष्य बनाया
तुम जादुई हो
मुझे नहीं पता कि मैं कहाँ होता
इस कठिन राह में महज़ अकेले मेरे जीवन में तुम्हारे होने ने जिजीविषापूर्ण बनाया मुझे
मैं तुम्हारे इस प्रेम को सोने की सारी खानों
या पूर्व के सभी धनों, ताक़तों से अधिक मूल्यवान मानता हूं
जैसे ऐसी सहज प्रतीति कि नदियों का बहना हो नहीं सकता इस प्रेम के बिना
मेरे जीवन में इतनी सारी ऋतुओं के लिए साक्षी हो
उम्मीद में मेरी आत्मा में प्रवेश करती हो
मेरे साथ खड़ी हो
निकल गया हूं प्रथमत: इस त्रास से
उबर रहा हूं धीरे धीरे इस विन्यास से
नई जिंदगी में मेरे आंतरिक कोण को तुमने छुआ है,
मेरी पवित्रता को सहेजा है
मेरी ज़रूरत के हर समय में मजबूत होने के लिए
तुम ने मुझे ताकत दी है कि किस तरह मैं आगे बढ़ूं
समय क्या दे सकता है
हम एक साथ सीखेंगे और बढ़ेंगे,
हर उस पल को संजोते हुए जिसे हम जीते हैं

एक सुंदरता जो
अंदर और बाहर दोनों से निकलती है
प्रथम छुवन की तरह गहराई तक प्रवेश करती है
मुझे खुशी है कि मैंने तुमसे अपने कठिन समय में जीवन का सबसे अधिक प्यार पाया।
सुबह के सूरज की गर्मी की तरह
तुम्हारे विचार मुझे गले लगाते हैं
प्रकट होते हैं निर्विकल्प भाषा में
नए दिन की एक शानदार रोशनी में
एक दूसरे के जीवन में एक दूसरे की उपस्थिति
बजते सितार में जीवन के गद्य का संवेद्य संगीत।

‘एगो सुग्घर सपना बनावेला जिनिगिया
अँजोरिया नयन में रही।’

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20. 05. 2021
पटना

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परिचय दास
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
नव नालंदा महाविहार सम विश्वविद्यालय ( संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), नालंदा
मोबाइल – 9968269237

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