November 23, 2024

वर्जित समय में एक कविता

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मृत्यु के पास आने के सौ दरवाज़े थे
हमारे पास उससे बच सकने के लिए
एक भी नहीं
इस बार वह दबे पाँव नहीं आई थी
उसने शान से अपने आने की मुनादी करवाई थी
उसकी तीखी गन्ध हवा में फ़ैली थी
हम गन्धहीन हो चुके थे
जीवन का स्वाद उसने पहले ही हमसे छीन लिया था
इस बार हमें ले जाने से पहले ही
वह हमारे जीवित होने के सभी सबूत नष्ट कर चुकी थी

हमारे पास इतना भी समय शेष नहीं था
कि हम निबटा लेते बचे रह गए काम
ठीक से विदा कह पाते
हथेलियों में भर लेते पीछे छूट रहे
हाथों का स्पर्श
हम साँस- साँस की मोहलत माँगते रहे
और आख़िरी साँस तक
उनके प्रेम के लिए वर्जित ही रहे
जो कभी प्राण वायु बन हमारी धमनियों में तैरते थे

हमारे शेष रह गए शरीर को भी
परित्यक्त ही रह जाना था
किसी पवित्र नदी में फेंक दिया जाना था
या अस्पताल के बाहर कूड़े के ढेर पर
हमारी अंतिम यात्रा में इस बार शामिल था
सिर्फ़ हमारा खोखला शरीर
और उसपर एकाकी अट्टहास करता
एक
निर्दयी वायरस

मृत्यु भी चकित थी
इससे पहले कभी
वह इतनी वंचित नहीं लौटी थी

*****
रश्मि भारद्वाज

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