मनीषा शुक्ला की कविताएं
भोर की देह कुछ सांवली हो गई
रात पर रात का रंग चढ़ता नहीं
तुम गए, बुझ गए दीप आकाश के
चाँद भी रोशनी में उतरता नहीं
अब अमलतास रहने लगा है दुखी
धूप से बोलती ही न सूरजमुखी
अब कहीं भी न सेमल दहकता मिले
रंग करने लगा रूप से बेरुखी
तुम गए तोड़कर हर नदी का भरम
झील में कोई मुखड़ा सँवरता नहीं
प्यास के काम आती दुआ ही नहीं
बादलों को हवा ने छुआ ही नहीं
तुम गए, खो गई है ज़मीं की नमी
ज्यों कि सावन कभी भी हुआ ही नहीं
थक गए रोज़ चलकर समय के चरण
पास पल भर, कोई पल ठहरता नहीं
हर घड़ी बर्फ़ सी गल रही है उमर
ओस जैसे टिकी कास के फूल पर
भाग्य में शीत का सूर्य था; इसलिए
शाम ज़्यादा हुई, कम हुई कुछ सहर
प्रेम करना सभी को सुहाता अगर
कोई मिलकर किसी से बिछड़ता नहीं
©मनीषा शुक्ला