कथा/लघुकथा
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रामनाथ साहू
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मुझे इस साल कथा का आयोजन कराना है। मैंने यह संकल्प लिया है । श्यामलाल, तेरा मन कुछ करने- कराने का नहीं करता ?
नहीं भाई, मैं जैसा भी हूं, ठीक हूं, अपनी नून- रोटी , जो चल रही है ;वही ठीक है । श्यामलाल जी ने नवरतन जी को कहा।
वे दोनों किराना व्यवसायी थे और गहरे दोस्त थे । दोनों की दुकानें आमने-सामने थीं। यह दोनों एक दूसरे की गतिविधियों को अच्छे तरीके से देख सकते थे ,और देखा भी करते थे ; जब भी फुर्सत के क्षणों में वे हुआ
करते थे ।
इस जीवन में नेम- धरम कुछ लगता है, श्यामलाल ! कुछ पुण्य कमाना भी
पड़ता है ।
तुम्हारी दुकानदारी की सभी बातें मुझे समझ आती हैं, पर यह तुम उन-पुन(पुण्य) की बात करते हो; वह मेरे भेजे में नहीं घुसते भाई ! इसे तो तुम अपने पास ही रखा करो ।
तभी दिहाड़ी मजदूरों का एक छोटा दल दुकानदारी के सिलसिले में उन लोगों के पास आ पहुंचा। यहाँ आकर वे दोनों दुकानों में बट गए ।चीज आखिर वही लेनी थी , जो दोनों ही दुकानों में मौजूद थीं। दाल चावल चीनी शक्कर चाय …
संजोग से आज तीन मजदूर नवरतन जी की दुकान में गए थे और दो मजदूर श्याम लाल जी के पास ।जाहिर है श्याम लाल जी का सौदा जल्दी निपट गया । अब वे नवरतन जी की गतिविधियों को देख सकते थे ।
और उन्होंने ने देखा भी। जिस चाय के पैकेट का दाम श्यामलाल जी ने पैंतालीस रुपए जोड़े थे अपने ग्राहक के लिए,उसी पैकेट के लिए नवरतन जी ने अपने एक ग्राहक से गोल -मोल करते पचास रुपए जोड़े।
मजदूरों के चले जाने के बाद श्यामलाल जी में नवरतन से कहा – यह क्या नवरतन ! तुमने चाय की पैकेट के लिए पचास रुपए लिए हैं उस आदमी से।
कथा की तैयारी के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा ! नवरतन जी ने जवाब दिया था ।
रामनाथ साहू