डॉ प्रेमकुमार पांडेय की तीन कविताएं
मुद्दे
श्मशान की धूंधूं के बीच
अखबार पटे रहे
बलात्कार
हत्या और
गुरबत की
ताजा- तरीन खबरों से
राजा और युवराज
चाय की चुस्कियों के साथ
पीते रहे
और महसूस करते रहे
अपने आपको
तरोताजा|
हर शख्स
अपनी जुराब पर
पर्फ्यूम स्प्रेकर
बदबू पर
डालता रहा
परदा|
मुद्दे से
ध्यान भटकाने की
दलील पर
अनवरत
सर-संधान जारी रहा
चहुँ ओर |
एक बात
समझ से परे रही
क्या मृत्यु भी
कोई मुद्दा हो सकती है?
इन गलबजवन को
कौन समझाए?
मुद्दा तो
जीवन और मृत्यु
दो छोरों के बीच अटका
पतंग-सा फड़फड़ा रहा है|
मुद्दे तो होते हैं शुरू
जीवन की
सुगबुगाहट के साथ ही
रोटी और बेटी के
जो मृत्यु पर
अनंत में विलीन हो जाते हैं
अनुत्तरित|
इस समय
सांझा चूल्हा धधक रहा है
हवाएं हैं अनुकूल
ईंधन की भी नहीं है
मारामारी
हथपुइए दक्ष कलाकारों को आदेश दो
जितनी ज्यादा से ज्यादा
सेंक सके
सेंक लें रोटियां |
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उठ
सुबह हुई
सूरज निकला
परिन्दे चहके
फूल महके
तू भी उठ|
बादल छाया
फुहार लाया
धरती नाची
ठहरी नदी
पुन: जागी
तू भी उठ|
चिडिया जागी
विश्वास पागी
निकट आई
चीं चीं के स्वर
चिचिआई
तू भी उठ|
निशा बीती
प्रकृति जीती
उजाले की आस
जीवन की प्यास
पुन: जागी
सुस्ती भागी
तू भी उठ|
अंधेरा गया
उजाला नया
लहू को उबाल
छोड़ दे मलाल
उदास है बंटी
शरीर हुआ संटी
काम है बड़ा
निराशा में पड़ा
तू शीघ्र उठ|
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चोट
समूह की सांसे
एकाएक
बंद नहीं होती!
सभ्यता हारती है
संवेदना कराहती है
तब सन्नाटा पसरता है|
आओ
बची हुई ताकत से
जिम्मेदारी का
ठीकरा फोडे़ंने
और टोपी पहनाने के लिए
उचित नाप का
सिर ढूंढ़ें|
अपनी पीठ
थपथपाने
अपने मुंह पर
थूंकने की सुविधा
नहीं दी है
प्रकृति ने
आओ
इस असहयोग भरे दौर में
थोडा़ सहयोग करें
एक दूसरे के मुंह पर
पूरे जोर से
खखार कर
पच्च से थूंकें|
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सुप्रभात
डॉ प्रेमकुमार पाण्डेय
केन्द्रीय विद्यालय बीएमवाय चरोदा भिलाई
9826561819